मेरे शरीर पर हाथ
जैसे दो अंग दिखाई दे सकते हैं, पर यकीन मानिए मेरे हाथ कट
गये हैं। मैं अगर कुछ कहना चाहूं तो वह भी बेकार होगा. इसके पीछे दो कारण हैं : एक
तो यह है कि मेरे चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे
पहाड़ हैं, जिसकी वजह से मेरी कही गई हर बात लौटकर मेरे पास आ
जाएगी। दूसरे यहीं, मेरे
बिलकुल करीब धमाकों का विकराल शोर रह रह कर उठ रहा है । मेरी कमजोर आवाज अगर उठी
भी तो आप उसे नहीं सुन पाएंगे । जाहिर है कि मेरे मुंह का
होना न होना अब कोई मतलब नहीं रखता ।
मगर मैं फिर भी चुप नहीं रहना
चाहूँगा। मेरे भीतर तुम्हारे लिए आज भी प्यार का सागर लहरा रहा है, क्योंकि बुनियादी तौर पर तुम भी इन्सान हो मेरी ही तरह, और इन्सान का मतलब बहुत ऊंचा होता है।
मुझे याद है वह दिन भी………. जब तुम्हारी जीप पहले-पहल
आकर मेरे गांव मे रूकी थी। तुमने मेरे खेत के साथ दूर तक चले गए ऊंचे मटियाले
पहाड़ों को देर तक अच्छी तरह देखा-परखा था।
एक भोली सी मुस्कराहट कुछ क्षणों के लिए तुम्हारे होंठों पर कौंध गई थी। पंचायत की तरफ से फिर जब
तुम्हारा स्वागत किया गया तो तुमने बताया था - इन पहाड़ों के भीतर अथाह दौलत छिपी है. हम उसे बाहर निकालेंगे
और निकाल कर उन लोगों की मदद करेगें जो जरूरतमंद हैं, जो कड़ी
मेहनत करके रोटी कमाना चाहते हैं।
इस पर तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंज उठा। भोली भीड़ खुशी से पागल हो
उठी I मेरी खुशी का तो ठिकाना न था। फूल-मालाएं तुम्हारे गले
मे पहनाते हुए अपने साथियों को बताया था मैंने- भाइयो, अब
हमारे अच्छे दिन आ गए हैं । अब कोई भी नौजवान काम की तलाश मे शहरों की तरफ नहीं
भागेगा। सबको यहीं काम मिलेगा ।
मेरी यह बात धीरे-धीरे सच्चाई में बदलने
लगी। पहाड़ की तलहटी में मशीनों और गाड़ियों का जमाव होने लगा। एक पक्की सड़क बनने का काम भी शुरू हो
गया। भयानक दैत्याकार मशीनों मे हलचल होने लगी। खेतों की सीमाओं तक बड़े-बड़े साइन
बोर्ड़ बना कर खड़े कर दिए जिन पर लिखा था ‘सावधान, विस्फोट
कार्य चल रहा है।
जिस रोज खदानों पर काम शुरू हुआ, पहाड़ की पूजा की
गई। फिर लड़डू बांटे गए। तुम भी हमारी तरह भगवान को मानते हो, उससे डर कर चलते हो-यह जान कर तुम्हारे लिए हमारे मन में और भी इज्जत बढ़ गई। हमने सच्चे मन से भगवान से मन्नत मांगी थी
कि तुम्हारा काम खूब अच्छा चले, हम भंडारा करेंगे।
आखिर खदानों पर काम शुरू हो गया। पहाड़ पर सुरंगें बिछ गई। धमाके होने
लगे। उन कड़कड़ाती आवाजों ने आदमियों को ही
नहीं, जानवरों और पशु-पक्षियों को भी दहला दिया। दहाड़ती हुई उन आवाजों से तो चट्टानों
के दिल भी कांप उठे होंगे। फिर घाटियों की खूबसूरत खामोशियों मे बसा मेरा वह
प्यारा गांव तो बेचैन हो उठा था।
धमाकों के झटके
किसी भारी-भरकम भूचाल से कम नहीं होते थे। गांव के कच्चे मकान उन झटकों से जड़ तक
हिल जाते। लोग मारे डर के घरों से बाहर निकल आते। गोशालाओं मे बंधे जानवर घबरा कर खूंटे तुड़ा कर दौड़ पड़ते।

मेरा शान्त गांव तुम्हारी खदान के धमाकों से बेचैन हो उठा। आखिर मैंने फैसला कर लिया कि इसकी शिकायत तुमसे करूंगा। कितना खुश हुआ था मैं तुमसे मिलने की बात ही सोच कर ! मुझे यकीन था- तुम मुस्करा कर मेरे करीब आओगे और कहोगे, कहो भइया क्या सेवा है मेरे लायक ? इस पर मैं नाराज होकर कहूंगा, सारी आबादी की नींद छीन ली मालिक आपने, और फिर पूछते हैं क्या सेवा है मेरे लायक ? यह धमाकों का कलेजा हिला देने वाला शोर कब तक चलेगा
सोचा था-यह सुन कर तुम ठहाका लगा कर हंस पड़ोगे और कहोगे- अच्छा, मैं यहां काम बंद करवा कर कहीं और शुरू कराये देता हू। अब खुश हो ?

मेरा शान्त गांव तुम्हारी खदान के धमाकों से बेचैन हो उठा। आखिर मैंने फैसला कर लिया कि इसकी शिकायत तुमसे करूंगा। कितना खुश हुआ था मैं तुमसे मिलने की बात ही सोच कर ! मुझे यकीन था- तुम मुस्करा कर मेरे करीब आओगे और कहोगे, कहो भइया क्या सेवा है मेरे लायक ? इस पर मैं नाराज होकर कहूंगा, सारी आबादी की नींद छीन ली मालिक आपने, और फिर पूछते हैं क्या सेवा है मेरे लायक ? यह धमाकों का कलेजा हिला देने वाला शोर कब तक चलेगा
सोचा था-यह सुन कर तुम ठहाका लगा कर हंस पड़ोगे और कहोगे- अच्छा, मैं यहां काम बंद करवा कर कहीं और शुरू कराये देता हू। अब खुश हो ?
यही सब सोचता हुआ मैं खदानों की ओर चल पड़ा । तार लांघ कर मैं तुम्हारे पास पहुंचा ही था कि दो लंबे-तगड़े आदमियों
ने मुझे दबोच लिया और बेतहाशा मारने लगे। मेरे कपड़े फट कर तार-तार हो गए। मुंह से
खून बहने लगा, पर वे फिर भी बेरहमी से मुझे लातें और घूंसों से
मारते रहे। मै किसी तरह-जान बचा कर तुम तक पहुंचा और कहा, मालिक,
मैं आपसे फरियाद करने आया था।
लेकिन तुम पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
तुम मुझे मार खाते देखते रहे। एक भी शिकन तुम्हारे चेहरे पर न उभरी । अपने इंजीनियरों
से तुम उसी शांत भाव से बात करते रहे। तुम्हारा चेहरा देखकर कौन कह सकता था कि
तुम्हारे बिल्कुल करीब ही एक असहाय व कमजोर देहाती को इतनी बर्बरता से पीटा जा रहा
है।
इसके बाद तुम मेरे चोट खाए शरीर के पास
आए,
नीचे झुके और आंखों से आंसू पोंछते हुए बोले- ओह, तुम थे !
तुम्हारी आंखों से टपकते आंसुओं में पीड़ा थी, लेकिन
मैं तब नहीं जान सका था कि ये आंसू नहीं, सिर्फ छींटे हैं,
गर्म और खारे पानी के छींटे। मैं एक बार फिर धोखा खा गया। तुम्हारे
लिए मेरे भीतर विश्वास और सम्मान उमड़ पड़ा। कराहते हुए मैं बोल उठा- फरियाद करने
आया था मालिक। धमाकों की आवाज से आदमी और मवेशी सभी डर गए हैं। मकान हिलने लगते हैं
।
इस पर कितने भोलेपन से कहा था तुमने - ये तो होता ही है, भइया, ऐसी कितनी ही छोटी मोटी मुश्किलें आड़े आती ही
रहेंगी। पर हमे इनसे डरना थोड़े ही चाहिए।
तुम्हारे जवाब में मुझे कुछ शक हुआ । तुम कहना क्या चाहते हो, मैं समझ न सका । पर तुम्हारे भोलेपन ने मुझे पराजित कर दिया । मुझे लगा - तुम ऊंचे ख्यालों के एक नेकदिल इन्सान हो। तुमने खाली हाथों को रोजगार दिया है तुम्हारे इरादे गलत कैसे हो सकते हैं ?
तुम्हारे जवाब में मुझे कुछ शक हुआ । तुम कहना क्या चाहते हो, मैं समझ न सका । पर तुम्हारे भोलेपन ने मुझे पराजित कर दिया । मुझे लगा - तुम ऊंचे ख्यालों के एक नेकदिल इन्सान हो। तुमने खाली हाथों को रोजगार दिया है तुम्हारे इरादे गलत कैसे हो सकते हैं ?

मै और मेरे गांव के सब लोग धीरे-धीरे कड़कती आवाजें सुनने के आदी हो गए। तेज झटकों का खौफ भी आहिस्ता -आहिस्ता एक मामूली धटना बन गई. लोग एक बार फिर सहज तरीके से जीने लगे ।
लेकिन उस रोज की घटना ने गांव के सहज होते वातावरण को फिर बेचैन कर दिया । मैं घर से खेत पर जाने के लिए निकला ही था कि मैने देखा- गांव के लोग रोते
पीटते एक लाश के साथ मेरे घर की तरफ बढ़ रहे थे। करीब आने पर मैने देखा, वह मेरे भाई की क्षत-विक्षत ताजा लाश थी। मुझे बताया गया कि सुरंग
दागते वक्त वह संभल नहीं पाया, जिससे चट्टानों के तेज नुकीले
टुकड़े प्रचंड गति से छिटक कर उस पर बरस गए। उसका चोट खाया जिस्म देखते ही देखते
मलबे के ढे़र में बदल गया।
तुमने ज़िंदगी के बदले थोड़े से रूपये देकर एक विधवा के आंसू पोंछ दिए। पर क्या उस जवान औरत को तुम उसका पति
लौटा सके ? वे अनाथ हो गए मासूम बच्चे क्या नहीं मागेंगे तुम
से अपना बाप ?
और फिर शुरू हो गया लाशों का अंतहीन सिलसिला, जो आज तक चला आ
रहा है। फर्क था तो सिर्फ इतना ही कि बाद मे लाशों के नाम पते कागजों में
दर्ज नहीं थे। इससे तुम्हें सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मरने वालों को
मुआवजा देने की फ्रिक से तुम बच गए । पर
इससे एक भारी नुकसान यह हुआ कि दर्दनाक हादसों की तरफ से तुम लापरवाह हो गए।
आये दिन तुम्हारे जोर जबरदस्ती करने और खून चूसने के खिलाफ जुलूस निकलते । नारे लगाये जाते । भाषण होते । हड़तालें भी होने लगीं । फिर अचानक खबर आती कि चाकुओं से
गोद कर किसी मजदूर नेता की हत्या कर दी गई है। बस, उसके बाद
कुछ समय तक सब कुछ सामान्य हो जाता। तुम्हारी खदानों की शांति दूसरे मजदूरों के लिए मिसाल बन जाती। इससे इतना
जरूर हुआ कि आस पड़ोस के लोगों ने तुम्हारी खदानों मे काम करना बिल्कुल बंद कर
दिया। इसका मतलब था कि मै और मेरे जैसे और भी जरूरतमंद लोग तुमसे, तुम्हारी नीतियों से खुश नहीं हैं, और तुमसे अपने
सारे संबंध तोड़ते हैं ।
लेकिन तुम्हारी खदानों से टूट कर गिरती चट्टानों को फैलने से मैं न रोक
सका। पत्थरों का यह लापरवाह फैलाव मेरे खेतों तक भी आ पहुंचा। यह संबंध जो
तुम्हारे और मेरे बीच, बल्कि हमारी समूची बस्ती के बीच
कायम हो गया, बिल्कुल इकतरफा .और मनमाना था ।
मेरे वे उपजाऊ खेत जिन्हें मेरे बाप दादा ने व मैने चट्टानों की छाती तोड़
कर व खून पसीना बहाकर बनाया था धीरे-धीरे पथरीले बंजर में बदलने लगे। ये वही खेत
थे, जिन पर मेरे पूरे परिवार की आशाएं टकटकी लगाए देखा करती थीं
।
बरसात का मौसम भी मेरे गांव के
लिए खुशियों की बहार लेकर नहीं आ सका था । मूसलाधार बारिश के बाद भी जिस नदी मे
कभी बाढ़ नहीं आई, इस बार वही नदी मानो पागल हो उठी। पहली बारिश
में ही उसने विकराल रूप दिखा दिया । आसमान
छूती उसकी लहरें किनारा तोड़ कर खेतों और गांवो मे जा घुसीं । धान की हरी भरी
क्यारियों की जगह अब दूर-दूर तक समंदर की उफनती लहरें थी। गांव के गली-रास्ते चौपाल और बाग-बगीचे सभी
तो डूब गए थे पानी में । कई कच्चे मकान, पशु-पक्षी और आदमी
भी उस अथाह जल राशि में समा गए। पानी उतरने के बाद जब मैने अपने खेतों की तरफ देखा
तो मै अपनी रूलाई न रोक सका। मेरी डबडबाई आँखो के सामने अब धान, मक्का और गन्ने के हरे-भरे लहलहाते खेत न थे। चारों तरफ दूर-दूर तक बजरी
और पत्थरों के ऊंचे-ऊंचे टीले थे, हरियाली का नामोनिशान तक
मिट गया।
गांव के सभी लोग नदी के इस अजीबोगरीब बर्ताव से हैरान रह गए। मुझे भी खूब
याद है कि होश संभालने के बाद से मैने नदी का ऐसा खौफनाक रूप नहीं देखा था। सभी
लोग किसी अनजान डर से सहमे हुए थे । बड़े-बूढ़े
चौपाल पर इकट्ठे हुए थे इसका कारण जानने के लिए। आखिर तय हुआ कि यह प्रकोप इन्द्र
भगवान के रूठने से हुआ है। बस फिर क्या था, नदी किनारे जंगी बरगद
के नीचे यज्ञ कराया गया, भंडारा हुआ, प्रसाद
बांटा गया, सारा गांव खुश था कि अब नदी कभी पागल नही होगी।
लेकिन अगली बरसात मे नदी का
पागलपन हद से बाहर हो गया। सदियों पुराना जंगी बरगद उखड़ कर औंधे मुंह पड़ा था । फूस
के कच्चे घरौंदे लहरों की भेंट चढ़ गये। कई लोग ज़िंदगी से हाथ धो बैठे। दूर तक फैले
हरे भरे खेत अब किसी सूखे दरिया मे बदल गए
और पूरा गांव किसी उजाड़, वीरान बस्ती में बदल गया। सांझ होते
ही सियारों के झुंड घरों के बिल्कुल पास आ जाते और फूट-फूट कर रोने लगते।
दूसरी तरफ तुम्हारी खदानें बढ़ते-बढ़ते एक विशाल खनिज उदूयोग में बदल गईं ।
बिजली की दूधिया रोशनी में कच्चे माल के आसमान छूते ढेर मीलों दूर से दिखाई पड़ते ।
और जब कच्चा माल हद से ज्यादा बढ़ गया तो तुमने भारी खनिज उद्योग लगाने का पक्का
फैसला कर लिया।
इस भारी उद्योग के
लिए हजारों बीघा ज़मीन की जरूरत थी. जाहिर है कि तुम्हारे मंसूबों को पूरा करने के
लिए मेरे उजड़ते गांव और खेतों से बेहतर जमीन
दूसरी नही हो सकती थी। तुमने एक एक करके सारी जमीनें कौड़ियों के भाव खरीद लीं।
आखिर वह दिन भी आ पहुंचा, जब मुझे अपना घर छोड़ कर
जाना पड़ा। सदियों से बसा अपना प्यारा गांव, जहां मेरा बचपन
बीता था, पीढ़ियों से चले आ रहे वे खेत, जहां मेरी जवानी ने अंगड़ाई ली थी, नदी के वे गहरे
कुंड, जिनमे नहाते हुए मैं डूब कर भी बच जाता था, घाटी के वे खामोश किनारे जहां बैठ कर मैंने जाने
कितनी ढलती हुई सांझ देखी थीं -अब मुझे आखिरी विदाई दे रहे थे। आम की वो बगिया जहांं अपने बचपन के दोस्तो के साथ अंबिया तोड़ते हुए मैंने कई दोपहर बिताई थी-अब
जैसे मुझ से पूछ रही थी - हमे नही ले जाओगे अपने साथ ?
दिल पर पत्थर रखकर अपने घर, अपने आगंन और अपने खेतों
को आखिरी बार देखा मैंने । अपने हाथ से रोपे आम के पेड़ को गले लगाया और ....। और
फिर मुंह फेर कर चल पड़ा था एक अनजान, अंधेरे रास्ते पर, किसी नए
धरातल की तलाश में.....................!
मेरे चारों तरफ पसरा है
एक गहरा सुनसान अंधेरा । उस अंधेरे से उठती धमाकों की दिल दहला देने वाली आवाज़ें, विधवाओं
का विलाप, और अनाथ हो गये बच्चों की चीख पुकार !
मेरे जिस्म पर आज भी आपको दो हाथ दिखाई दे सकते हैं, पर अब उनमे उठने की हिम्मत नहीं बची. मेरे जिस्म पर अब भी एक मुंह मौजूद
है, पर मैं चाह कर भी बोल नहीं सकता ! अगर बोलने या चीखने की
हिम्मत करूं भी तो कोई फायदा नहीं । मेरी चीख ऊंचे पहाड़ों से टकरा कर खाली हाथ वापस
लौट आएगी ।
लेकिन फिर भी मैं तुम से कुछ कहना चाहूंगा, क्योंकि
बुनियादी तौर पर तुम भी इन्सान हो, मेरी ही तरह ! और इन्सान
का मतलब बहुत ऊंचा होता है ।
(समाप्त)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें