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देवप्रयाग का विहंगम दृश्य |
भारत वर्ष के
उत्तरी सीमांत पर स्थित उत्तराखंड राज्य
को देवभूमि भी कहा जाता है. पौराणिक साहित्य मे हरिद्वार से आगे का क्षेत्र स्वर्ग
कहलाता था. अत: इसे देवभूमि कहना सर्वथा उचित ही है. यहां का प्राकृतिक सौंदर्य
कल्पनाओं से भी खूबसूरत है. शब्दों मे उसका वर्णन करना संभव नहीं है. यहां के
निवासी निष्कपट, सत्यवादी, संतोषी
तथा आस्तिक प्रवृत्ति के होते हैं. बदरीनाथ केदारनाथ गंगोत्री व यमुनोत्री जैसे प्रख्यात तीर्थस्थल यहीं पर
हैं. फूलों की घाटी ( valley of flowers) बदरीनाथ के निकट
है. यह एक प्राकृतिक पुष्पोद्यान है जहां सैकड़ों प्रजाति के सुगंधित फूल खिलते
हैं. समीप ही लोकपाल हेमकुंड साहिब है, जिसके सरोवर के तट पर
सिक्खों के दसवें गुरु गोविद सिंह जी ने
तपस्या की थी. यहां पर टिहरी जिले मे एक उच्च पर्वत शिखर “खैट” पर आज भी परियां निवास करती
हैं तथा अनेक लोगों ने उन्हे देखा भी है. यहां बताना जरूरी होगा कि परियां मानव
योनि से उच्चतर एक देव योनि है, जो मानव शरीर मे आज भी ऊंची
पर्वत श्रेणियों पर विहार करती हैं. उत्तराखंड की लोक कथाओं मे जीतू बग्ड्वाल नामक
चरवाहे का जिक्र आता है, जिसकी बांसुरी की मीठी धुन पर मोहित
होकर परियों ने उसका अपहरण कर लिया था.
इसी प्रकार उत्तरकाशी
मे प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण मे एक “शक्ति” स्थापित है. जो लगभग पंद्रह सौ वर्ष पुरानी है.
यह उत्तराखंड मे मौजूद धातु शिल्प का श्रेष्ठ उदाहरण है. यहीं पर्वत शृंखलाओं मे
स्थित दयारा नाम का विशाल प्राकृतिक चरागाह है, जिसे
बुग्याल ( meadows) कहते
हैं. ऐसा ही एक बुग्याल केदारनाथ मंदिर के समीप भी है.
यहां नैनीताल तथा
मसूरी जैसे पर्वतीय पर्यटन स्थल भी हैं जहां पूरे विश्व से लोग घूमने आते हैं.
मसूरी की विंटर लाइन खासी प्रसिद्ध है. सूर्यास्त के मौके पर जब सूरज क्षितिज से पहले
ही अस्त हो जाता है तो पश्चिमी आकाश का वह रक्तिम दृश्य अत्यंत मनोहर होता है.
इसी प्रकार नैनीताल
की नैनी झील मे नौका विहार का भी अपना अलग आनंद है. यहीं चमोली जिले मे काफी उंचाई
पर रूप कुंड स्थित है, जिसमे बड़ी संख्या मे नर
कंकाल आज भी मिलते हैं. ये कंकाल साधारण मानव की अपेक्षा बड़े हैं. इनके सिरों पर
चोट के निशान मिले हैं.
उत्तराखंड के दक्षिणी
भाग का इतिहास भी अत्यंत रोचक है. यहां एक स्थान का नाम जौनसार है. कुछ इतिहासकार इस
शब्द की उत्पत्ति यामुन नामक जनपद से मानते हैं जबकि कुछ का कहना है कि सिकंदर के कुछ
सैनिक आगे गंगा की ओर नहीं जाना चाहते थे और यमुना की इसी खूबसूरत घाटी मे बस गए. यवनों
के कारण इस प्रदेश को यवनसार और अंतत: जौनसार कहा जाने लगा. यहीं पास मे हरकी दून जैसा
अत्यंत सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर वन प्रदेश है जहां की जैव विविधता विश्व भर
मे प्रसिद्ध है.
इसी स्थान के पास लाखामंडल
नामक स्थान भी मिला है जहां छठी सातवीं शताब्दी के पुरावशेष मिले हैं. किंवदंती है
कि यहीं पर लाक्षा गृह का निर्माण कौरवों ने
कराया था ताकि पांडवों को जला कर मार सकें.
यहां तीसरी शताब्दी
ईसापूर्व का एक शिलालेख मिला है. यह सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए चौदह शिला
लेखों मे से एक है. यहां के लोग इसे चतर शिला (चित्रशिला का अपभ्रंश ) भी कहते हैं. इस शिला पर एक हाथी का चित्र खुदा
हुआ है तथा ब्राह्मी लिपि मे “गजतमे” लिखा हुआ है. इस लेख का मिलना यह सिद्ध करता है कि अशोक महान
के समय में यह स्थान प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ
था. संभवत: इसका नाम हरिपद तीर्थ (या विष्णु
तीर्थ ) था. इस शब्द का उल्लेख दिल्ली (महरौली) मे कुतुब मीनार के पास स्थित लौह
स्तंभ मे भी हुआ है. इसी से पता चलता है कि
इस स्तंभ का नाम विष्णु ध्वज था. जिसे बाद मे उखाड कर मेरठ के पास ले जाया गया. फिर
वहां से सन 1368 मे फीरोजशाह तुगलक उखड़वा कर दिल्ली लाया था. आज भी कालसी शिलालेख के पास हरिपुर नामका कस्बा है.
यहीं पास मे बाड़्वाला
नामक स्थान के पास जगत गांव है जहां दूसरी शताब्दी के अतिरात्र यज्ञ के अवशेष मिले
हैं. यह यज्ञ भी अश्वमेध की भांति विशाल यज्ञ था. इस यज्ञ मे उड़ते श्येन (बाज) की आकृति की यज्ञवेदिका बनाई गई थी जिसका वर्णन
हमे प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथों तथा यजुर्वेद
आदि मे मिलता है. यह यज्ञ राजा शीलवर्मन द्वारा किया गया था. आज भी इस यज्ञवेदिका के
अवशेष जगत गांव ( शायद यज्ञ ग्राम) मे देखे जा सकते हैं.
यहीं चकराता नामक सुंदर
पर्वतीय पर्यटन स्थल है जहां विराट की खाई नामक स्थान है. कहा जाता है कि अज्ञात वास
के अंतिम वर्ष मे पांडव राजा विराट के इसी राज्य मे उनके सेवक बन कर रहे थे.
यहां आज भी देववन नामक
एक वन है,
जहां देवशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था. यह देवशर्मा उन अट्ठाइस ब्राह्मणों
मे से एक था जिसने जनमेजय के सर्प सत्र मे भाग लेकर नाग वंश का विनाश कर दिया था.
देवप्रयाग ही क्यों
संपूर्ण उत्तराखंड आज भी पुरातात्विक व ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण राज्य है.
यहां सप्त ऋषियों की तपस्थलियां भी हैं. ये सप्त ऋषि हैं- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि,
गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
उखीमठ चोप्ता, तुंगनाथ मंडल, धारी की देवी, ज्वालपा
देवी, सुरकंडा देवी , चंद्रबदनी,
कुंजापुरी आदि कितने ही शक्ति पीठ भी उत्तराखंड मे मौजूद हैं.
उत्तराखंड की साक्षरता
दर लगभग 70% है. यह भारत मे केरल राज्य के बाद सबसे अधिक है. कठिन भौगोलिक
परिस्थितियों के बावजूद इतनी ऊंची साक्षरता दर बताती है कि यहां के निवासी शिक्षा
के महत्व से भली भांति परिचित हैं.
उत्तराखंड प्राकृतिक संसाधनों से भी समृद्ध है. यहां वन संपदा, खनिज संपदा, जल शक्ति के स्रोत तेज बहाव वाली नदियां तथा जैव विविधता अपेक्षाकृत अधिक
है. जिप्सम, चूना पत्थर, क्वार्ट्ज़ ,
मून स्टोन, अभ्रक, लौह
अयस्क (हेमेटाइट) तथा ताम्र अयस्क (कापर
चैल्को पायराइट) काफी मात्रा मे मिलता है.
यहां के जल संसाधन का सबसे बड़ा उदाहरण
भागीरथी नदी पर बना टिहरी बांध है
जिसकी क्षमता लगभग आठ मेगावाट है. ऐसे ही अनेक बांध अन्य नदियों पर भी बनाए गए
हैं.
उत्तराखंड मे देहरादून . उधमसिंह नगर, ऋषिकेश, हरिद्वार
रुडकी आदि अनेक औद्योगिक क्षेत्र हैं. जहां मुख्यत: दवाइयों का निर्माण, कॉस्मेटिक्स,
पैकेजिंग तथा विद्युत
संबंधी वस्तुओं का उत्पादन होता है.
देहरादून मे धान की एक खुशबूदार प्रजाति भी पैदा होती है, जिसे बासमती कहा जाता है. इसके
अलावा यहां दून टी कंपनी भी है जिसकी हरी चाय (green Tea) की
अपने विशेष जायके के कारण पूरे विश्व मे मांग है. देहरादून की लीची भी अपने स्वाद
व सुगंध के कारण बहुत प्रसिद्ध है.
शिक्षा के लिए उत्तराखंड वैदिक काल से ही प्रसिद्ध रहा है. यहां
कोटद्वार के समीप कण्व ऋषि का आश्रम था जो
आकार मे भले ही तक्षशिला व नालंदा जैसा विशाल न रहा हो किंतु ज्ञान मे कण्वाश्रम
की ख्याति किसी विश्वविद्यालय से कम न थी. इस ज्ञान केंद्र के कुलपति कण्व ऋषि थे.
यहीं इसी आश्रम मे प्रतापी सम्राट भरत का
जन्म हुआ था जिनके नाम पर इस भूखंड को भारत कहा जाता है.
इसी आश्रम के समीप आयुर्वेद के प्रखर विद्वान तथा
प्रतिसंस्कर्ता आचार्य चरक का भी विशाल औषधि उद्यान था जहां अनेक दुर्लभ तथा सुलभ
जड़ी बूटियां उगाई जाती थी तथा उनसे औषधियां भी बनाई जाती थी. उनके औषधिप्रस्थ को
आज “चरेख का डांडा” कहा जाता है.
इसी प्रकार चमोली जिले मे आज जहां पांडुकेश्वर है वहां
सेनीटोरियम जैसा चिकित्सालय था जिसमे पीलिया (jaundice) , क्षय रोग या राजयक्ष्मा (Tuberculosis)
का इलाज किया जाता था.
महर्षि वेदव्यास की भी यह प्रिय तपस्थली रही है. यहीं बदरिकाश्रम
के निकट व्यास गुफा मे उन्होने गणेश जी की सहायता से एक लाख अस्सी हजार श्लोकों की
रचना कर जय नामक महाकाव्य लिखा था जिसे बाद
मे भारत तथा महाभारत कहा गया.
इसी उत्तराखंड मे गंगा
यमुना तमसा, भिल्लंगना नयार, पिंडर, ऋषिपर्णा, समंगा आदि
प्रसिद्ध नदियों के साथ साथ अति प्रसिद्ध नदी सरस्वती का उद्गम स्थल भी है. बदरी
नाथ से आगे माणा गांव के आसपास आज भी यह
नदी जलधारा के रूप मे मिलती है. हिमालय से उतरने के बाद गंगा तथा यमुना
पूर्वाभिमुखी हो कर बहने लगीं व बंगाल की खाड़ी मे समुद्र से मिलीं जबकि सरस्वती
अपनी सहायक नदी घग्गर (दृशद्वती) के साथ
मिल कर पंजाब , हरियाणा राजस्थान गुजरात होती हुई कच्छ की
खाड़ी मे गिर कर अरब सागर मे जा मिली. यह नदी सिंधु नदी के लगभग समानांतर बहती थी.
इन्ही दोनो प्रसिद्ध नदियों के तट पर भारत की अति समृद्ध प्राचीन संस्कृति व
सभ्यता फली फूली थी जिसे आज हम सिंधु सरस्वती की सभ्यता कहते हैं. हड़प्पा व
मोहेंजोदारो जैसे प्रमुख स्थल तथा काली बंगा, राखीगढ़ी ,
बाणावली धोलावीरा जैसे
पुरातात्विक महत्व के स्थल इन्ही दोनो नदियों के तट पर मिले हैं.
देवलोक से मनुष्य लोक की ओर आते हुए देवप्रयाग आखिरी प्रयाग है. इसके बाद ऋषिकेश या हरिद्वार मे कोई प्रयाग नहीं है.
यदि हम बदरी नाथ से
हरिद्वार की ओर चलें तो सबसे पहले हमे विष्णु प्रयाग मिलता है जो अलकनंदा तथा धौली गंगा के संगम पर स्थित है. उसके बाद नंद
प्रयाग आता है जो अलकनंदा तथा नंदाकिनी नदियों के संगम पर स्थित है. उसके बाद कर्ण
प्रयाग आता है जो पिंडर (कर्ण गंगा) तथा अलकनंदा के संगम पर स्थित है. इसके बाद रुद्र
प्रयाग आता है जो अलकनंदा तथा मंदाकिनी के संगम पर स्थित है. अंत मे देवप्रयाग आता
है जो अलकनंदा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है.
देवप्रयाग से आगे ऋषिकेश
की तरफ जाने पर इस महान नदी की संज्ञा “गंगा” हो जाती है.
पुराणों मे उल्लेख है
कि पहले गंगा शिवजी की जटाओं मे कैद थी. स्वर्ग से जब ब्रह्मा जी ने राजा भगीरथ की
विनती पर गंगा को अपने कमंडल से मुक्त किया तो वह शिवजी की जटाओं मे फंस कर रह गई.
तब भगीरथ ने भगवान शंकर से प्रार्थना की थी कि गंगा को कृपया मुक्त कर दें ताकि मैं
अपने साठ हजार पुरखों को मोक्ष प्रदान कर सकूं.
तब शिवजी ने अपनी जटाओं
की एक लट खोल दी जिससे गंगा जी भूमि पर उतर गईं और राजा भगीरथ के पीछे पीछे चलती हुई
बिहार पहुंची जहां राजा सगर के साठ हजार पुत्र कपिल मुनि के शाप से भस्मावस्था मे पड़े
थे. गंगा का अमृतमय स्पर्श पाकर उन्हे स्वर्ग की प्राप्ति हो गई. तत्पश्चात गंगा गौड़
देश मे जाकर समुद्र से मिल गई.
इस प्रतीकात्मक कथा
मे भी यही संकेत है कि देव प्रयाग मे गंगा
कहलाए जाने के पश्चात यह देवतुल्य नदी शिवालीक पर्वत मालाओं मे उलझ कर एक समुद्र के
आकार मे बदल गई. प्रागैतिहासिक युग का यह समुद्र
टेथिस सागर कहलाता था जब गंगा को इन पहाड़ों के बीच हरिद्वार के समीप पर्वत मालाओं से
बाहर निकलने का एक पूर्वाभिमुख मार्ग मिल गया
तो समुद्र धीरे धीरे सूखने लगा. यही भाग सूख कर जब रहने योग्य बन गया तो यहां मानव
बस्तियां बस गईं . बेकार पड़ी जमीन को साफ करके कृषि योग्य बनाया गया. इसी भाग मे आज
उत्तराखंड का देहरादून हरिद्वार, ऋषिकेश आदि पड़ता है.
आज भी शिवालीक पर्वत
की चट्टानों पर समुद्र मे पाए जाने वाले जीवों
जैसे शंख,
सीपियां घोंघे आदि के जीवाश्म मिलते हैं . बी. एससी. के प्रोजेक्ट वर्क के दौरान (1976 मे) लेखक ने स्वयं मोहंड की चट्टानों से अनेक सीपियां,
शंख तथा घोंघों के जीवाश्म इकट्ठे किये थे.
अंत मे निष्कर्ष यही निकलता है कि
देवप्रयाग से ही प्राचीन भारतीय सभ्यता का उदय हुआ. यहीं से देवतमा नदी को गंगा नाम
मिला. इसी स्थान से यहां के निवासियों को देव संज्ञा मिली. कहना उचित ही होगा कि जो
उत्तराखंड मे है वह सब जगह है और जो उत्तराखंड मे नही है वह कहीं भी नहीं है. देवप्रयाग
उसकी एक झलक मात्र है.
लॉकडाउन के बाद जल प्रदूषण
तथा वायु प्रदूषण का स्तर बहुत घट जाने से गंगा नदी का जल बहुत निर्मल हो गया है. संलग्न नवीनतम वीडियो इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है.
(समाप्त)
(समाप्त)
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