जी हां !
हमें गर्व से कहने में जरा भी झिझक नहीं होनी चाहिए कि हम चाटुकार
हैं। सच पूछिए तो चाटुकारिता का यह दुर्लभ गुण हमारे स्वभाव में है । इसी गुण के
कारण दुनिया में अब तक बाकी बचा हुआ है – ‘नामो – निशां हमारा’ । वरना
यूनान, मिस्त्र, रुमा सब मिट ही गये हैं जहां से ।
कुछ समाज शास्त्रियों को गलत
फहमी हो है कि चाटुकारिता हम भारतीयों का स्वाभाविक गुण नहीं है । बल्कि करीब
हजार बरसों की गुलामी से उपजी आदत है । मगर देखने में आया है कि गुलामी के पहले भी
ये गु ण हमारे पुरखों में पाया जाता था ।
राजा आम्भि ने इसी गुण की बदौलत सिकन्दर से अपना राज बचाया ।
पुरु में यह गुण नहीं था ।
नतीजा अपना राज – पाट गंवाया । घायल
हुआ । कैदियों की तरह सिंकदर के आगे सांकल से बांध कर लाया गया । झूठे स्वाभिमान
पर आखिर सच्ची चाटुकारिता की जीत हुई । तभी तो कहा जाता है – सत्यमेव जयते ।
गुलामी के दौर मकें भी फिजूल की
परेशानियां सिर्फ उन्हें उठानी पड़ीं जो चाटुकार नहीं थे । जिनमें बेमतलब स्वाभिमान
भरा रहता था । जो जज़बाती थे । मुल्क की मिट्टी पर जान निछावर करने को कूदते रहते
थे ।
ठीक उसी दौर में चाटुकारिता का
महान गुण धारण करने वाले सुल्तानों के यहां जागीर पाते थे । मजहब को कपड़ों की बदल
कर रियासतें पा जाते थे । फौज में ऊंचे – ऊंचे ओहदों तक पहुंच
जाते थे । राजा टोडर मल, मान सिंह, जय सिंह काला पहाड़ वगैरह इसके उदाहरण हैं ।
आजादी की पहली लड़ाई में झांसी
की रानी लक्ष्मीबाई में भी चाटुकारिता के महान गुण का अभाव था । तभी तो वह मरदानी
खूब लड़ी । और लड़ते – लड़ते वीरगति पा गई
। आज उसक रानी का चित्र ही बाकी रह गया है
। धन्य है वह चाटुकार चितेरा, जिसने तरस खा कर झांसी की इस रानी की पेंटिंग बनाई
। कितनी खूबसूरत पेंटिंग बनाई है । काश । आज झांसी की रानी जिंदा होती । कितनी खुश
होतीं अपना चित्र देखकर । खुले, बॉब कट बाल, सिर पर कम से कम दो किलो सोने का
मणियों जड़ा मुकुट । हाथ में नंगी तलवार । दूसरे हाथ में घोड़े की रास । पीठ पर
दुपट्टे से बंधा युवराज । सरपट दौड़ते घोड़े की पीठ पर बैठी, कैमरे के लेंस की तरफ
देख कर मुस्कराती रानी, व पीठ से बंधा, कैमरे की तरफ देख कर स्माइल पोज़ देता
झांसी का भावी भाग्य विधाता ।
आप मानो या न मानो, लेकिन अगर
झांसी की रानी आज जिंदा होती तो वह अपना चित्र बनाने वाले चितेरे से बड़ी इज्जत से
पेश आती । उसका निवास तब होता जनपथ, दिल्ली में । वहीं बैठकर वह आखिरी मुगल
बादशाह को तलब करती । फोने सुनते ही बादशाह नंगे पांव भागता जनपथ पहुंचकर खिदमत
में आदाब पेश करता । कोर्निश बजाता वे सिजदे में झुक कर कहता – क्या हुक्म बजा लाऊं ऐ मलिका – ए – हिंन्दोस्तां । रानी कहती – किस्मत से मुद्दतों
बाद एक नायाब चाटुकार कलाकार इस धरती पर उतरा है । इसके खरचे – पानी के लिए फौन स्कोलरशिप दी जाए । ऐसे कलाकार कुकुरमुत्ते की तरह
बेहद नाजुक होते हैं । वे आम आदमी की सोहबत में मुरझा कर सूख सकते हैं । लिहाजा
ताई से कहों, हुनरमंद शख्स को अपने कोटे के थ्रू राज्यसभा में पहुंचा दें ।
जो हुक्म मलिका – ए – हिंदोस्तां कह कर खिसकती पगड़ी सिर पर बिठाता ,
सिजदा करके धीरे – धीरे पीछे हटता बादशाह बेतहाशा दौड़ पड़ता
जनपथ से राजपथ की तरफ । आखिर एक महान चाटुकार – चित्रकार के
भविष्य का सवाल था । गाड़ी –वाड़ी के चक्कर में देर हो जाती,
और देर हो जाती तो मलिका – ए – हिंदोस्तां
नाराज हो जातीं । और वो नाराज हो जाती तों तय था कि कयामत आ जाती ।
रानी झांसी आज जिंदा होती तो
उनकी पेंटिंग में चित्रकार को दो एक मामूली फेर बदल करने पड़ते । सबसे पहले तो उनकी
शक्ल आज की जैसी होती । युवराज का फेस भी आज जैसा होता । बाकी सब चीजें पुराने
जमाने वाली रहतीं । जैसे घोड़ा, तलवारें, मुकुट वगैरह । पीठ पर बंधे युवराज के मुस्कराते
गालों पर गड्ढे पड़ते ।
मान लीजिये – आज की महारानी लक्ष्मी बाई का पुत्र दत्तक न होता । बल्कि अपना सगा
पुत्र होता – तो क्या होता ? सोचिए
महारानी यदि विदेशी मूल की होती तो क्या होता ?
क्या वह तलवार लेकर यूरोपीय
भाइयों पर टूट पड़ती । नो । नाट एट ऑल । शी कुड हैव रादर सेव्ड योरोपियन ब्रदर्स ।
उन्हें बचाने का भरसक प्रयत्न करती । भला कौन बहन होगी जो भाई पर तलवार भी
उठाएगी व उसकी कलाई पर राखी भी बांधेगी । चाहे वह भाई क्वात्रोची ही क्यों न हो
। मगर हालात चितेरे के वश में नहीं होते । उसके वश में होते हैं आकार और रंग ।
दिमाग में होता है चाटुकारिता का पावन, पवित्र भाव, श्रद्धा का भाव, भक्ति का भाव,
समर्पण का भाव, जमीन पर बिछ – बिछ जाने का भाव और
अंत में आटे – दाल का भाव । हो सकता है कि उसके दिमाग में
अभाव ही रहता हो । जैसे बंगले का अभाव, नकदी का अभाव, गाड़ी का अभाव, और होने वाली
पीढ़ियों की सुरक्षा का अभाव ।
भाव – अभाव के ये चित्र ही खोपड़ी से उतर कर पहले ब्रश तक आते हैं । और फिर धीरे
– धीरे कैनवस पर उभर आती है किसी महरानी लक्ष्मी बाई की
रंगीन पेंटिंग । अब अगर महारानी की शक्ल किसी पार्टी की अध्यक्षा से मिलने लगे
तो बेचारे चित्रकार का क्या दोष ।
चाटुकारिता का यह गुण सिर्फ
चित्रकारों में मिलता हो – ऐसा नहीं है ।
कवियों, लेखकों व मूर्तिकारों में भी यह अद्भुत गुण देखा गया है । रीतिकाल के
बिहारी, विद्यापति, भूषण, केशव, मतिराम, घनानंद आदि महाकवि अपने युग के विख्यात
चाटुकार थे । आज भी लालू चालीसा, माया चालीसा, जय ललिता चालीसा, सोनिया चालीसा,
वसुंधरा चालीसा आदि खंड – काव्यों के रचयिता कवियों में
चाटुकारिता परम दुर्लभ गुण भली भांति सुरक्षित है। अत: साहित्य मकें चाटुकारिता
का भविष्य अति उज्जवल प्रतीत होता है । घबराने की जरुरत नहीं है । यही बात
मूर्तिकला पर भी लागू होती है । हमारी मौजूदा पीढ़ी के मूर्तिकारों में चाटुकारिता
खूब अच्छी प्रकार भरी हुई है । वे अब राम, कृष्ण, हनुमान, दुर्गा आदि की
मूर्तियां बनाने में वक्त बरबाद नहीं करते । अब वे मायावती, जय ललिता, लालू,
वसुंधरा, सोनिया आदि की मूर्तियां बना कर अपनी चाटुकार क्षमता का भव्य प्रदर्शन
कर रहे हैं । क्योंकि इन मूर्तियों को
बना कर यश और धन – दोनों की प्राप्ति होती है । सारे भय,
सारे दु:ख – दारिद्रय, तत्काल मिट जाते हैं । राम, कृष्ण,
देवी, वगैरह की मूर्तियां बनाने वालो को तो टी वी भी नहीं दिखाता । चलिए देर से ही
सही, आखिर हमारे कलाकारों को , आत्मसाक्षात्कार तो हुआ कि वे धरती पर किस लक्ष्य
की पूर्ति हेतु आये हैं । चाटुकारिता का प्रकाश उनके अंतस्थल से फूटा तो सही ।
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