व्यंग्य- हम भी अगर कुत्ते होते


           देर सबेर ही सही, आखिर वह शुभ घड़ी आ ही पहुंची है जब हम कुत्ते को ‘राष्ट्रीय पशु’ का गौरव प्रदान कर सकते हैं। ये अलग बात है कि इस पोस्ट के लिए ‘गधे’ का नाम भी उछाला जाता रहा है। 

     मगर जनाब कहां राजा भोज, कहां गंगू  तेली ? कुत्ता अपनी खुशियां, अपने गम चेहरे से प्रकट करता है, बहुत हुआ तो पूंछ हिलाकर । जबकि गधा ऐसी स्थिति में भावनाओं पर कंट्रोल नही कर पाता ।  रेंक रेंक कर धरती आसमान सिर पर उठा लेता है। और गलती से कहीं अपना भाई  दीख गया तो गाने के साथ नाचने भी लगता है। जैसे मिरगी का दौरा पड़ गया हो। दूसरे गधे की वफादारी भी डाउटफुल रहती है। जाने कब, किस पर, और कहां दुलत्ती झाड़ दे। या फिर जोश में आकर कुलांचे भरने लगे।

            ये चंद गंभीर आरोप हैं जो गधे के राष्ट्रीय पशु बनने में रोड़े बने हुए हैं, अखाड़े  में रह जाता है  सिर्फ एक दावेदार-कुत्ता। परंपरा कहती है कि ऐसी हालत में कुत्ते को र्निविरोध राष्ट्रीय पशु चुना जा सकता है।


            इधर देखने में आया है कि बालीवुड के कुछ नामचीन हीरो कुत्तों के खून के प्यासे हो गये हैं, बात-बात पर कहते हैं; ‘कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा’। 

       ये बड़ी बुरी बात हैं अगर रक्त-पान का इतना ही शौक है तो और भी जानवर  हैं जमाने में। उनका खून पिया जा सकता है। जानवरों का खून अच्छा न लगे तो इन्सान का खून भी सस्ता व स्वादिष्ट है। ट्राइ किया जा सकता है। निठारी-नौएडा के सपूत मुनिंदर पंधेर व उसके वफादार नौकर सुरिंदर कोली तो इन्सान के बच्चे का सूप बना कर पी चुके हैं, लोगों को दावत में पिला चुके हैं। उनका मीट पका कर खा-खिला चुके हैं। फिर इन्सान का खून पीना कौन सी बड़ी बात है ?

            हमारे पुराने लिटरेचर में कुत्ते का सामाजिक स्टेटस चांडालों से भी नीचे रखा गया है। कुत्ता उसे कहते थे जो गंदगी के ढेरों पर मुंह मारता फिरता था। मतलब की चीज मिलती तो अगले-पिछले पंजों से कुरेद-कुरेद कर बाहर निकाल लाता। फिर इतमीनान से बैठ कर खाता। कभी-कभी कुत्ते आपस में गुर्राने व लड़ने लगते। लड़ाई कभी खतरनाक रूप भी धारण कर लेती। गली के कुत्ते मिल कर ओपरे कुत्ते पर टूट पड़ते। उसे तब तक लिटा-लिटा कर काटते जब तक कि वह पूंछ को पिछली टांगों के बीच दबा, जान बचा कर नौ दो ग्यारह न हो जाता।

            यह पुराने जमाने की बातें हैं। हो सकता है सच हों, मगर आज स्थिति काफी अलग है। आज कुत्ता-कुत्ता नहीं रहा डौगी हो गया है । अब वह भी मालिक की तरह टायलेट जाता है। बाथ लेता है । ब्रेकफास्ट करता है । सर्दी में स्वेटर या कोट तथा गर्मियों मे शौर्ट पहनता है, पूंछ पर भी बटन वाली आस्तीन चढ़ी रहती है।


            कूड़े के ढेरों पर खाना तलाशने का काम उसने अब इन्सान को सौंप दिया है।

    मालिक की वातानुकूलित कार मे बैठ, डौगी जब सैर पर निकलता है तो आदतन उसकी निगाह कचरे के ढेरों पर भी जा टिकती है, जहां नंग-धड़ंग, काले-कलूटे इन्सान के पिल्ले गंदगी के ढेरों को सूंघते, हाथ-पैरों से कबाड़ कुरेद कर खाने लायक कचरा बटोरते रहते हैं। वे भी उस समय एक दूसरे पर गुर्राते हैं। कभी आपस में छीना झपटी भी करते है। कई बार मिल कर वे किसी एक बच्चे पर टूट पड़ते हैं। उसके हाथ लगी जूठी पाव-भाजी या अधखाई इडली छीन कर खा जाते हैं। फिर उसे लिटा-लिटा कर लातों-घूंसों से तब तक मारते हैं जब तक वह सिर पर पांव रख कर भाग नहीं जाता।


            वह सीन देख, कार में बैठे डौगी का सीना फूल उठता है। लगता है मानो कह रहा हो -‘गर्व से कहो हम कुत्ते हैं।


            यहां तक आते-आते आपके मन में शायद एक सवाल उठ गया हो कि जब पुराने जमाने में अपने यहां कुत्ते की औकात दौ कौड़ी की थी तो आज वह एकाएक बढ़ कैसे गई ?

            आपका सवाल जायज है। दरअसल कुत्ते का सामाजिक स्तर उठा है ग्लोबलाइजेशन के बाद। जैसे-जैसे हम उदार होते गए, वैसे-वैसे गोरे हमें उधार देते गए । उधारी लेने में हमें चार्वाक के जमाने से ही महारत हासिल थी। ऋण ले कर हम काफी अरसे से घी पीते आ रहे थे। गोरों का कमाल सिर्फ इतना है कि उन्होने हमारी प्रतिभा को पहचाना। हमें ऐसे-ऐसे ऋण दिए कि दूसरे देशों ने सोचा भी न होगा। ऐसे-ऐसे लोन दे दिए  कि आने वाली पीढियां भुला न पाएंगी। मन ही मन कहेंगी-वाह ! क्या लोन है ? खतम ही नहीं होता!

            एक तरफ कर्जे बढ़ते रहे, दूसरी तरफ गोरों की सभ्यता और संस्कृति का रंग चढ़ता रहा। कुत्तों का स्टेटस बढ़ता रहा। क्योंकि गोरे खुद कुत्तों का बड़ा सम्मान करते हैं। उनके यहां एक कहावत है- ‘लव मी, लव माइ डॉग। अगर आप मुझे प्यार करते हैं तो मेरे कुत्ते को भी प्यार करें।’ वे खुद को कुत्ते से ज्यादा नहीं समझते। 

    हम तो महज लफ्फाजी करते हैं कि सभी प्राणियों को अपने जैसा समझो, यानी कि आत्मवत सर्व भूतेषु, जबकि गौरांग प्रभुओं ने यह करके भी दिखा दिया। 

    उनका कहना है- सभी कुत्तो को अपने जैसा समझो, यानी कि आत्मवत सर्व कुत्तेषु। उन्हें साथ नहलाओ, साथ खिलाओ, साथ पिलाओ, साथ सुलाओ, साथ घुमाओ, उन्हें स्बचालित माशीनों में सफाई से बना डौग मील खिलाओ। ये नहीं कि कच्चे-पक्के दो टिक्कड़ तोड़ कर उछाल दिये उनकी तरफ, जिन्हें ऊपर वाले की इनायत समझ, पूंछ हिलाते हुए वे चपर-चपर खा जाएं। आज तो श्रीमान जी, जैसे आप अपना राशन-पानी खरीदते हैं ठीक वैसे ही डौगी जी का मील भी फूड बाजार से खरीदना होगा आपको।

            वैसे आजादी से पहले भी हमारे गुलाम भारत में कुत्तों को राजकीय सम्मान मिला करता था। आजादी मिली। गोरों को मजबूरी में इंडिया छोड़ना पड़ा। भले ही उनके बाद राज-पाट चलाने आए  लोग दिमाग और संस्कारों से पक्के अंग्रेज थे। भले ही उनकी चमड़ी का रंग गेहुआं या काला रहा हो। आजादी की वजह से कुत्तों के सोशल स्टेटस में जो गिरावट दर्ज हुई, उससे ये काले अंग्रेज मन ही मन दुखी रहते थे। वे बराबर कोशिश करते रहते थे कि किसी तरह कुत्तों को उनका खोया हुआ सम्मान वापस  मिल जाए।


            आजादी के सत्तर साल बाद अब जा कर इन लोगों की इच्छा पूरी हूई। आज उन्होने  अंग्रेजी नस्ल के कुत्तों का रूतबा  देसी आदमी से ज्यादा बढ़ा दिया है। इसका गवाह है सन दो हजार सात का राष्ट्रीय बजट, जिसमें कुत्तों का खाना सस्ता हुआ है। देसी आदमी के खाने का जिक्र तक नहीं किया गया।

            बजट में उन देसी किसानों का भी जिक्र नहीं है जो पिछले पांच साल से कर्ज में फंस कर आत्महत्या कर रहे हैं। कारण यह है कि ये देसी लोग इन काले अंग्रेजों की नजर में कुत्तों से भी गए  बीते हैं। इन देसी लोगों का खाना-दाल, चावल व आटा, बेहिसाब मंहगे हुए हैं। यानी कोशिश यही है कि जिस देसी आदमी ने बैंकों से कर्ज नहीं लिया- आत्महत्या का उसे भी पूरा हक है । फांसी नसीब नही हुई तो भूख से ही सही ।  

पेड़ पर लटक कर या  भूख से सही   
हो कहीं भी मौत लेकिन मौत होनी चाहिए ॥
 

            क्या यह हमारी तरक्की का संकेत नहीं है ? क्या इससे हमारे सत्ताधारियों ने संदेश नही दिया कि उनकी नजरों मे विदेशी मूल के कुत्तों के लिये पूरा सम्मान है, करोड़ों देसी इन्सानों से भी ज्यादा ?

            इन डौगीज के लिये डाक्टर हैं, दवाएं हैं,अस्पताल हैं। बीमार होने पर उन्हें एडमिट भी कराया जाता है। उनके स्वास्थ्य लाभ के लिये पूजा-पाठ किए  जाते हैं। ऊपर वाले से दुआएं मांगी जाती हैं। उनके पिल्ले लाख  दो लाख तक मे भी बिकते हैं।

            इस तरह हम देखते हैं कि हमारी ऊंची सोसायटी में कुत्ते ने अपना खोया आत्म-सम्मान पा लिया है। लेकिन समस्या अभी निम्न-मध्यम तबके में बनी हुई है।


            सुना है एक ‘कुत्ता सेवी संगठन’ ने अदालत में ‘कुत्ता-हित याचिका’ याचिका दायर की है। मांग की गई है कि रामधारी सिंह दिनकर की निम्नलिखित कविता पाठ्यक्रम से बाहर निकाली जाय-

             श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं।

             मां की हड्डी से चिपक ठिठुर,  जाड़े की रात बिताते हैं।।
              पत्नी के गहने-वस्त्र बेच, जहां ब्याज चुकाये जाते हैं।
             महलों का झूठा अहंकार,  देता तब मुझको आमंत्रण।।

    भला ग्लोबलाइजेशन के दौर में ऐसी कविताएं कैसे पढ़ाई जा सकती हैं ? विदेशी निवेशक नाराज नहीं हो जाएगा ? और निवेशक नाराज हुआ तो सेंसेक्स नीचे गिरेगा। सेंसेक्स गिरने का मतलब होगा-हम एकाएक गरीब हो गए।

      एक प्रस्ताव और सरकार के सामने लाया गया है कि ‘राष्ट्रीय कुत्ता आयोग’ की स्थापना हो। यह आयोग कुत्तों की सोशल-इकोनामिक प्राब्लम हल करे, पिल्ले मातृमूलक व्यवस्था फालो करें या पितृमूलक-इस पर भी फैसला हो। मालिक की संपत्ति पर कुत्ते का हक भी हो ताकि रिटायर होने के बाद भी वह आराम से जी सके।


     आशा है अगले बजट में इन समस्याओं का कोई न कोई समाधान जरूर निकाला जाएगा।

(समाप्त)

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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