यह उन दिनो की बात है,
जब तुम ग्वाल-बालों के
साथ गाय चराने वन में जाते थे। कदंब के पेड की छांह में बैठ,
जब तुम वंशी बजाते,
गायें चरना छोड़,
तुम्हारे पास आ जाती।
जंगली जानवर व पक्षी भी खिंचे चले आते थे उस धुन पर। वह मीठी तान सुन कर गोप-गोपियां
सुध-बुध खो बैठते! ऐसा लगता, मानों जड़ प्रकृति भी उस अलौकिक धुन का रस-पान कर रही है।
जरा आ कर सुनो तो मोहन,
तुम्हारे आज के भारत
में संगीत कहां पहुंच गया है ? कानों के परदे फाड़ने वाले डीजे के शोर को अब संगीत कहा जाता
है। गीतों का कोई अर्थ नहीं होता। बेसुरे,
नाकों से गाने वाले,
भौंडे,
फूहड बोल ही आजकल खूब सुने
जाते हैं। अश्लीलता और टुच्चेपन के सिवा इन गानों में शायद ही कुछ मिले। जब यह
संगीत चलता है तो आस-पास पेड़ों पर बैठे पंछी उड़ जाते हैं। कुत्ते भौंकने,
व गधे रेंकने लगते
हैं। संगीत-प्रेमियों की तो क्या गत बनती होगी-बताना मुश्किल है।
क्या एक बार फिर आ कर वही वंशी की धुन नहीं सुनाओगे ?
याद है- जब बिना वस्त्र पहने नहाती गोपियों के कपड़े छिपा
दिए थे तुमने ? तब गोपियों ने तुम्हें वचन दिया कि अब वे वस्त्र पहन कर ही जल
विहार करेंगी । अपने वचन की मर्यादा का गोपियों ने हमेशा पालन किया।
और तुम्हारे भारत की आज की नारी ?
कितनी र्निलज्ज हो गई
है कृष्ण ? कपड़े तो जैसे उन्हें काटने दौड़ते हैं। नग्न देह का प्रर्दशन
करने की उनमें जैसे होड़ लगी हुई है। लज्जा,
शील,
संकोच,
सब भूल चुकी हैं वे।
प्रेम अब केवल नाटकों में दिखाई पड़ता है। नारी का एक वर्ग अब व्यावसायिक हो गया है ।
क्या एक बार आ कर प्रेम का पाठ नहीं पढ़ाओगे ?
वह घटना याद है ?
यमुना किनारे गायें
चराते हुए तुम गेंद खेला करते थे ?
काली नाग ने जमुना का
पानी जहरीला कर दिया था। तुमने जान-बूझ कर गेंद यमुना में फेंकी। फिर खुद ही कूद
गए गेंद लाने। काली नाग को नथा। यमुना से भगाया। यमुना का पानी फिर से पीने लायक
बना।
आज फिर से आके तो देखो अपनी यमुना को ! शहरों के सीवर और गन्दे नाले,
उसी यमुना में खुलते
हैं। शहर का सारा कचरा, दुनियां भर की प्लास्टिक की थैलियां,
मरे हुए कुत्ते-बिल्ली,
पालतू सुअरों के
रेवड़-उसी मल-मूत्र, दुर्गंध युक्त कीचड़ हो चुकी यमुना में लोटे रहते हैं। चमड़े
के कारखानो का जहरीला पानी हो या कैमीकल उद्योगों का तेजाबी पानी-सभी यमुना में
छोड़ा जाता है। यमुना की सफाई के नाम पर करोड़ों रूपये डकार लिये जाते हैं लेकिन
यमुना साफ नहीं हो पाती। आज तुम्हारी यमुना का पानी पीना तो दूर, छूने लायक भी नहीं रहा।
क्या अपनी यमुना की दुर्गति तुम्हें दिखाई नहीं देती कृष्ण ?
क्या इतने निर्मोही,
निष्ठुर हो गए तुम ?
भूल गए यमुना के शीतल,
निर्मल,
स्वच्छ जल को ?
हरे-भरे तटों को ?
गोकुल के वे गांव,
जहां तुम दही-माखन
चुराते थे-सुना है बड़े खुशहाल थे। हर गोप के यहां सौ-पचास गायें तो जरूर होती थी। शुध्द
दूध-मक्खन खाने से गोकुलवासी बीमार नही पड़ते
थे । तुम्हारे सभी संगी-साथी भी स्वस्थ थे।
तुम्हारे उन्ही गांवों की आज क्या हालत है-खुद ही आ कर देखो
माधव। ट्रक के ट्रक भर कर रोज गाय-भैंसें,
बैल,
बछड़े-बूचड़खाने पहुंच
रहे हैं। उनका मांस पैक हो कर विदेशों को भेजा जा रहा है। शुद्ध दूध का स्वाद भी आज
बच्चों को नहीं मालूम। पिलाते ही बच्चों का पेट खराब हो जाता है । होश संभालने के
बाद से उन्होने पाउडर का ही दूध पिया है। गरीब मां,
बाप तो मिल्क पाउडर भी
नहीं खरीद पाते। उनके बच्चे सिंथेटिक दूध पी कर बड़े होते हैं। कपडे़ धोने का सोडा,
मोबिल आयल व पानी को
मशीनों से फेंट कर बनाया जाता है वह दूध। शहरों की डेरियों में लंबे-लंबे इंजेक्शन
भोंक कर गाय-भैंसों से खीचा जाता है दूध। मरे बछड़ों व कटड़ों की खालों में भूसा
भरकर गाय-भैंसों के आगे किया जाता है खड़ा। ताकि पशुओं की ममता जाग उठे। उनके थनों
में दूध उतर सके।
पशुओं की ममता तो फिर भी जाग ही जाती है केशव। लेकिन
इन्सानों की ममता फिर भी नहीं जागती। अपने शरीर की सुन्दरता बचाने के लिये बहुत सी
महिलाएं शिशुओं को स्तन-पान ही नहीं
करातीं।
इन मांओं को आकर समझाओ कृष्ण ! मां का दूध बच्चे का जन्म
सिद्ध अधिकार है !
याद तो करो कृष्ण-जब ब्रज के सभी घरों में पकवान बन रहे थे।
इन्द्र को खुश रखने के लिये हर साल उसकी पूजा की जाती थी। तुम्हें यह व्यक्ति-पूजा
अच्छी न लगी। बन्द करा दिया इन्द्र-पूजा को। उसकी जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा शुरू
करा दी। इन्द्र का अभिमान आहत हुआ। लगातार सात दिन ब्रजमंडल पर घनघोर बारिश हुई।
तुमने गोवर्धन पहाड़ को बताते हैं छतरी की तरह उठाये रखा। बड़े सब्र के साथ इंद्र का
अहंकार झेला । आखिर इन्द्र को हार माननी पड़ी।
आज के अपने उसी भारत को एक बार फिर तो देखो कान्हा !
आडंबरों की अति हो गई है। ऋषि-मुनियों का रूप धारण किये धूर्त-जनता को धोखा दे रहे
हैं। अपने आपको भगवान बता कर पुजवा रहे हैं। धर्म का डर दिखा कर लोगों की गाढ़ी
कमाई लूट रहे हैं। अय्याशियों के नये-नये रिकार्ड बना रहे हैं। धर्म के नाम पर शक्तियां
बटोरने मे लगे हैं ये बाबा नामके धोखेबाज ! क्या यह सब तुम्हें नहीं दीखता प्रभु ?
प्लीज ! एक बार आओ न !
इन ढोंगी-पाखंडियों की दूकानें बन्द करके चाहे वापस लौट जाना।
अधर्म, अत्याचार और अन्याय से तुम्हें सख्त नफरत थी वासुदेव।
अन्यायी होने के कारण तुमने मामा कंस को मारने में भी संकोच न किया । उस दुष्टात्मा ने अपने सगे सात भानजों को पत्थर
पर पटक-पटक कर मारा था। बाप उग्रसेन को कैद कर,
खुद राजा बन बैठा था।
अमीर-गरीब छोटा-बड़ा, कोई भी खुश नहीं था उसके राज में।
जरा एक बार फिर देखो तो अपने उसी भारत को। मोहिंदर पंधेर का
रूप लेकर कंस फिर पैदा हो गया है। अपने साथी सुरिंदर कोली के साथ मिल कर उस राक्षस
ने सैकड़ों निर्दोष बच्चों को जिन्दा काटा है,
उनके कलेजे निकाल कर
खाये हैं, उनके मांस का सूप बना कर पिया है।
ऐसे घिनौने काम करने के बाद भी उसे बेगुनाह साबित करने की
जोरदार कोशिशों हो रही हैं, क्योंकि वह पैसे वाला है। सत्ता के करीब है।
क्या तुम्हें मारे गए बेकसूर बच्चों की दर्दनाक आवाजें नही
सुनाई पड़ीं ? क्यों नहीं आते ?
क्या मजबूरी है ?
द्रौपदी कुल-वधू थी। परदे में रहने वाली। कौरव-सभा में बाल
खींच कर घसीटते हुए उसे दुःशासन लाया। भरी सभा मे उसके वस्त्र उतारे जाने लगे।
उसने भीष्म पितामाह, द्रोण, कृप, विदुर, कर्ण और खुद अंधे राजा-रानी से गुहार की। सबने सिर झुका
लिये। सिर झुकाए पांचों पांडवों को देखा,
जो बिक चुके थे। अन्त
में द्रौपदी ने तुम्हारी शरण ली वासुदेव। साड़ी को अनन्त विस्तार दे कर तुमने उसकी
लाज बचाई।
और आज आकर अपने भारत की कुल-वधुओं के तमाशे तो देखो प्रभो !
सिर पर पल्लू काढ़े, लाज भरी आंखे झुकाए,
शोहदों से घिरी
गली-गली, घर-घर जा कर वोट मांग रही हैं। चरित्रहीन राजनिति बाजों के
आगे-पीछे नाच रही हैं। और फिर सत्ता पाने के बाद बेगुनाहों पर गोलियां चलवा रही
हैं, लाशें बिछ रही हैं। देश असंतोष की आग में जल रहा है और
कुलवधुओं में होड़ लगी है पावर खींचने की,
ऊपर उठने की,
पब्लिक को बेवकूफ
बनाने की।
‘कुलवधुओं’ का यह बदलता चरित्र तुम्हें दिखाई नहीं देता ?
अंधे के राज में प्रजा का क्या हाल होता है-यह तो तुमने
देखा ही है प्रभु। पहले तो आधा ही राज्य दिया पांडवों को। फिर जुआरी साले शकुनि की
मदद से वह भी छीन लिया। तेरह साल तक जंगलों में भटकाया। फिर भी आधा राज नहीं
लौटाया। पांच गांव तक नहीं दिये।
आखिर फैसला लड़ाई से होना तय हुआ। तुमने पांडवों का साथ
इसलिये दिया कि वे सच्चाई के रास्ते पर थे। अंधा युग खत्म हुआ। धर्म का राज्य
स्थापित हुआ।
हे कृष्ण ! जरा आ कर तो देखो। एक बार फिर तुम्हारा भारत धृतराष्ट्र
जैसे अंधे, बहरे, और गूंगे हाथों में है। अमीर तेजी से अमीर व गरीब तेजी से
गरीब हो रहा है। कहीं आरक्षण की आग है तो कहीं किसानों के आत्महत्या करने का दुःख।
कहीं किसानों की उपज न खरीदने का आक्रोश,
तो कहीं उनकी जमीनें
छीन कर अमीरों को सौंपे जाने की मक्कारी। कहीं अच्छे खासे चल रहे सरकारी कारखाने बेचे
जा रहे हैं। मुंह खोलते ही पुलिसिया जुल्म
का नंगा नाच ! मंडियों में गेहूं सड़ रहा है,
पर वहां से न खरीद कर
बाहरी मुल्कों से ऊंचे दामों पर खरीदा जा रहा है। खेतों व मिलों में पड़ा गन्ना सूख
रहा है पर उसे न खरीद कर बाहरी मुल्कों से चीनी खरीदी जा रही है । खेतों व मंडियों
में कपास बेहिसाब पड़ी है पर वहां से न ले
कर बाहर से मंगाई जा रही है ।
हे प्रभो ! अमीरों की सेजें सज रही हैं। महानगरों के फुटपाथ
बेघरबार, बेरोजगार परिवारों से अटे पड़े हैं। लाखों किसानों की खुदकशी
के बाद भी अंधे, निर्दयी शासकों की जुबान पर ताले पडे हुए हैं। उनकी
अंतरात्मा उन्हें नही धिक्कारती। एक बोल भी सहानुभुति का उनके गले से नहीं निकलता।
ऐसे राक्षसी शासकों के जबड़ों में फंसी जनता की दर्दनाक पुकार
क्या तुम्हें सुनाई नहीं पड़ती ?
क्यों कहा था कि सज्जनों की रक्षा और दुष्टों का संहार करने
के लिये मैं हर युग में आऊंगा।
प्लीज़ बताओ न कृष्ण,
तुम कब आओगे ?
(समाप्त)




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