डॉक्टर भारती को बचपन में जो माहौल मिला,
वह लीक से हट कर था।
उनके पिता बनारस के शास्त्री थे। ज्योतिष और कर्मकांंड उनका पेशा था। उन्हें वैद्यक
व तंत्र-मंत्र का भी काफी ज्ञान था। पिता जब यजमानी में होते-भारती उनके कमरे में
पहुंच जाते। गणेश दैवज्ञ की ‘ग्रहलाघव’ हो,
भास्कराचार्य की
‘लीलावती’ हो, ‘रसराज महौदधि’ हो या फिर ‘इन्द्रजाल’-जो कुछ हाथ लगता,
वहीं छिपकर पढ़ने लगते।
श्रीमद्भागवत गीता, कई पुराण,
सूर्य सिद्धांत व वृहत्पाराशर
होराशास्त्रम् उन्होने आठवीं-नवीं तक आते-आते घोट डाले थे।
प्रेतात्माओं से सताए लोगों को पिता अभिमंत्रित राख की चुटकी से कैसे
ठीक करते-बालक भारती कई बार देख चुके थे। मंत्र-सिध्द कटोरी हवा में उड़ कर चोरी के
गड़े माल तक कैसे जाती है-उन्होने अपनी आंखों से देखा था। कुल-देवी ने पिता को सपने में नंबर बताए । लेकिन पिता ने गरीब गुरबा
यजमानों को वे नंबर बता दिये । अगले दिन उन्ही नंबरों पर हजारों-लाखों का सट्टा
निकला-पर पिता ने कभी भी उन नंबरों का फायदा नहीं उठाया । बालक भारती अपने
पिता के इस गुण से मन ही प्रभावित भी हुआ था।
पिता के द्वारा किये गए नवरात्रि के पाठों के समापन पर
यजमान पर अवतरित होती आदि-शक्ति को बालक भारती ने कई बार देखा था। दिव्य
जड़ी-बूटियों के हवन से उठती मधुर सुगंध,
जौ की हरियाली,
कलाई पर बंधे कलावे व
माथे पर लगे रोली-अक्षत के टीके-जाने कितनी बार बालक भारती ने देखे थे। संस्कृत के
अनेक श्लोक, दुर्गा-कवच,
देव्यापराधक्षमापन
स्तोत्र, हनुमान चालीसा व संकल्प मंत्र... जंबू द्वीपे भरत खंडे,
कलियुगे,
प्रथम चरणे.....उसे
सहज ही याद हो गए थे।
वैदिक संस्कृति में पले-बढ़े बालक भारती की रूचि संस्कृत व हिन्दी
साहित्य में बढ़ने लगी। मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग आदि दर्शन उसके मानस-पटल पर स्पष्ट उभर आए थे। दसवीं की
परीक्षा में संस्कृत न लेने से वह उदास हुआ था। फिर भी हिन्दी तथा उसके साथ पढ़ाई
जाने वाली संस्कृत में वह सबसे ज्यादा अंक ले कर पास हुआ था।
बालक भारती आगे संस्कृत,
दर्शन,
हिन्दी,
आदि विषय लेकर पढ़ना
चाहता था किन्तु पिता चाहते थे वह विज्ञान पढ़े। क्योकि युग विज्ञान का था।
वह पिता की इच्छा का अनादर न कर सका। रूचि के खिलाफ जा कर
भी विज्ञान व अंग्रेजी पढने पड़े उसे। वह असाधारण सफलता जरूर न पा सका,
फिर भी अच्छे अंकों से
उसने बारहवीं की परीक्षा पास की।
पिता की ही इच्छा मानते हुए वह मेडिकल की परीक्षा में बैठा
व चुन लिया गया।
मेडीकल की पढ़ाई मे
सर्जरी का विषय भारती ने बेवजह नहीं चुना
था। मानव शवों को चीर कर जब प्रोफेसर यकृत,
फेफड़े,
आंतें व पित्ताशय,
आदि दिखाते, तब भारती
सिर्फ यह देखता कि योग-दर्शन में बताए गए-मूलाधार,
आज्ञा,
सहस्त्रार आदि षट्चक्र
उस शरीर मे कहां हैं ? मष्तिष्क स्थित
ब्रहम-कमल, व इड़ा पिंगला सुषुम्ना आदि नाड़ियां कौन सी हैं ?
एकाध बार भारती ने यह प्रश्न अपने साथियों से तथा
प्रोफेसरों से भी पूछा, किन्तु समाधान मिलना तो दूर,
उसे हंसी का पात्र
बनना पड़ा। कई बार तो दबी जबान से कहा जाने लगा कि भारती पागल हो रहा है,
वरना ऐसे बेसिर पैर के
सवाल कोई पूछता है ?
भले ही इस सवाल का संतोषजनक उत्तर प्रोफेसर नहीं दे सके,
प्रश्न को हंसी में
उड़ा दिया। किन्तु भारती को यकीन था कि प्राचीन किताबों में जो कुछ लिखा है-सच है,
भले ही कोई बता न सके।
नतीजा यह हुआ कि डाक्टरी की पढ़ाई के साथ-साथ भारती प्राचीन
चिकित्सा ग्रंथ भी पढ़ने लगे। बल्कि सच तो यह था कि डाक्टरी की पढ़ाई भारती ने
करीब-करीब छोड़ ही दी। उसकी जगह वह चरक संहिता,
सुश्रुत संहिता,
निघंटु,
रसायन चिकित्सा,
वनौषधियों के मटेरिया
मेडिका आदि पढ़ने लगे।
इसी बीच उन्हें ‘भारद्वाज संहिता’ हाथ लगी जिसमें कई प्रकार
के विमान बनाने का उल्लेख था। उस पुस्तक को पढ़ कर भारती हैरान रह गए। उसमें बिजली,
बिजली के तारों,
तथा रूबी लेज़र द्वारा विद्युत ऊर्जा पैदा करने के रहस्य समझाए गए थे।
‘भावप्रकाश’ अर्क प्रकाश,
रसेन्द्र चिन्तामणि,
नागार्जुन कृत
‘रसेन्द्र मंगल’ आदि किताबें भी मंगा कर जिज्ञासु भारती पढ़ने लगे।
रस-सिद्ध नार्गाजुन का वह प्रसंग तो डाक्टर भारती को छू गया
था। नालंदा में जिन दिनों वह आचार्य थे,
वहां भीषण अकाल पड़ा।
गरीबों को भूखों मरते देख नागार्जुन ने प्रतिज्ञा की थी-‘सिद्धे रसे करिष्येहं
निर्दारिद्रयमिदं जगत’ अर्थात-पारद के द्वारा स्वर्ण बना कर मैं इस संसार से
दरिद्रता मिटा दूंगा।
नतीजा यह निकला कि डाक्टर भारती प्राचीन रसायन-ग्रन्थों के
गहरे अध्ययन में डूब गए। चार साल बाद एमबीबीएस की डिग्री तो जैसे-तैसे उन्होने ले ली,
क्लीनिक भी खोल दिया,
किन्तु उस काम को वह
बेमन से करते थे। थोड़ी देर क्लीनिक में
बैठते, पांच-दस मरीजों को देखते,
उसके बाद प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन में डूब जाते।
कई साल तक पुराने ग्रंथ पढ़ कर डाक्टर भारती की जानकारी काफी
बढ़ गई। उन्हें पता चला कि पारे को जड़ी-बूटियों से शुध्द करके सेवन करने से शरीर के
सारे रोग दूर हो जाते हैं। धुन सवार हुई तो उन्होने पारे से रसायन बनाने की ठान
ली। इस काम में आने वाली जड़ी बूटियों की खोज में वह हिमालय के घने जंगलोंं में भटके।
राजस्थान में शेखावटी की पहाड़ियां हों या जूनागढ़ के जंगल,
नीलगिरि की घाटियां
हों या असम के प्रागैतिहासिक प्रजातियों वाले वन-डाक्टर भारती सभी जगह गए। किन्तु
पुराने ग्रन्थों की कूट भाषा उनकी समझ में न आई। आधी अधूरी जानकारी से उन्होने पारे का रसायन बनाया जरूर, पर वह
जानलेवा साबित हुआ। उसे खाकर उनके सारे बदन पर घाव हो गए। हाथ-पैर व चेहरा सूज गए।
कई महीने अस्पताल में भर्ती रहे, तब कहीं चलने-फिरने लायक हुए।
इसी तरह एक बार किसी साधू ने उन्हें बताया कि पारे से सोना
बनता है। बस, फिर तो डाक्टर भारती ने उसे अपना गुरू बना लिया। नागार्जुन की
तरह डाक्टर भारती ने दुनिया से गरीबी खत्म करने का मन ही मन फैसला कर लिया । कई
साल तक साधू की सेवा करते रहे। खुद भूखे रह
जाते पर साधू को तीनों वक्त डट कर खाना
खिलाते, उसके खरल में पड़ी दवाइयां घोटते। बूटियों को कूट कर रस
निकालते, गुरू के लिए बाजार से पारा गंधक संखिया शिंगरफ हरताल वगैरह
खरीद कर लाते, गुरू का लंगोट धोते।
एक के बाद दूसरी असफलता मिलने पर भी प्राचीन ग्रन्थों से
श्रद्धा नहीं घटी। एक दिन राजा भोज की लिखी किताब ‘समरांगणसूत्रधार’ पढ़ते हुए एक
नया विचार डाक्टर भारती को सूझा-क्या पारे से उड़ने वाला विमान आज भी बन सकता है ?
उनके दिमाग में
रात-दिन वे श्लोक गूंजने लगे-
तत्रारूढः
पूरस्तस्य पक्षद्वंढूोच्चाल प्रोझितेनानिलेन।
सुप्रस्यान्तः पारदस्यास्य
शक्त्या चित्रं कुर्वन्नम्बरे याति दूरम।।
(समरांगण सूत्रधार – राजा भोज विरचित)
‘यानी लकड़ी का महापक्षी बना कर उसके पेट मे पारे का यन्त्र
रखे। नीचे आग हो। उस पर बैठ, दोनों पंख चलाने से पारे की शक्ति से आकाश में दूर तक जाता
है।’
इस प्रोजेक्ट का पक्षी वाला भाग तो जल्दी हो गया। बचा पारे
की शक्ति जगाने वाला भाग । उस पर डा0 भारती ने कई रसाचार्यों से संपर्क साधा। कई साधू-जोगियों
से मिले। कई एमेच्योर रसशास्त्रियों का सहयोग लिया। आखिर वह ऐसा पारद बनाने में
सफल हुए, जो छूते ही लोहे को राख कर देता था। उन्हें लगा कि मंजिल आ गई। लकड़ी के पक्षी को लेकर छत पर गए ।
स्टोव के ऊपर पारे की कुठाली रखी। पंख हिलाए। अचानक लकड़ी का पक्षी खिसका और डाक्टर
भारती को लेकर जमीन पर जा गिरा। सर पर चार टांके आए,
टांग की हड्डी टूटी,
व पीठ की गुम चोट तो
ठीक ही न हुई।
काफी समय तक बिस्तर पर आराम करने के बाद डाक्टर भारती फिर
तरोताजा हो गए। लेकिन तब भी पारद-विज्ञान में अटूट आस्था थी। नाकामयाबी की वजह थी
गुरू का न मिलना। इसलिए इस विषय को गुरू मिलने तक उन्होंने ठंडे बस्ते में डाल
दिया।

एक दिन सचमुच वह समाधि में पहुंच गए। लोगों ने देखा-डाक्टर
भारती का पद्मासन लगा शरीर हवा मे तीन चार फिट उठा हुआ था। लेकिन तभी धड़ाम से वह
नीचे गिरे। सारा बदन पसीने से नहाया हुआ था। होश मे आने पर उन्होने बताया कि उनका सू़क्ष्म-शरीर स्थूल शरीर
से बाहर तो निकल गया किन्तु वापस नहीं आ पाता था। यह संयोग से ही वापस आ सका।
अन्यथा मृत्यु निश्चित थी।
लेकिन उसके बाद भी डाक्टर भारती का अतीत-प्रेम जरा भी नहीं
घटा। उनके पड़ोसी बताते हैं कि पिछले काफी समय से डाक्टर भारती ‘खेचरी गुटिका’ पर काम कर रहे हैं । वे नागार्जुन रचित रसरत्नाकर के रसायन खंड के
आधार पर पारे से ऐसी गुटिका बना रहे हैं जिसे मुंह में रखते ही आदमी अदृश्य हो जाता है... खंडयित्वा काल
दंडं ब्रह्मांडे विरचंति ते .....
ताज़ातरीन अफवाह यह है कि काफी दिनों से डाक्टर भारती
गायब हैं । बताते हैं कि उन्होने खेचरी गुटिका बना ली है और अब भूख प्यास
से मुक्त हो कर वह ब्रह्मांड मे विचरण कर रहे हैं ।
(समाप्त)
Gyanwardhak avam rochak vyangy.
जवाब देंहटाएंNisha
लेखक स्वयं ही मुख्य पात्र लग रहे है
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