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वेबसाइटें खंगालते हुए हमें यह ब्लॉगर साइट मिली. इसमें दिसंबर 2008 के आखिरी हफ्ते की कुछ बातों का ज़िक्र है. इसका
कुछ हिस्सा अच्छा लगा. इसीलिए जैसे का तैसा यहां उतार लिया है. उम्मीद है,
आपको पसंद आएगा -----
न्यूयॉर्क,
दिसंबर 25, 2008
हाय,
मैं हूं निखिल. सॉफ्टवेयर इंजीनियर. बेसीकली फ्रॉम इंडिया. मैं
इंडिया के किसी भी एक्सवाइ ज़ेड के साथ चैट करना चाहता हूं. कल एक इंडियन न्यूज़
चैनल देख रहा था. तब से डिस्टर्ब हूं. बीएसपी पार्टी के एक एमएलए ने साथियों के साथ मिल कर एक मर्डर किया. यू नो
किसका मर्डर ? एक इंजीनियर का मर्डर. क्यों किया ? पचास लाख रुपए न देने की वज़ह से.
मर्डर
भी ब्रूटली किया. घर में घुसे. कॉलोनी में सिक्योरिटी गार्ड थे पर किसी ने रोका
नहीं. वाइफ को टॉयलेट में बन्द किया. फिर उसके हस्बैंड-इंजीनियर मनोज गुप्ता को
पीटने लगे. इंजीनियर ने दो बार पुलिस को फोन किया. कॉल अटेंड हुई,
पर पुलिस तब पहुंची जब हत्यारे अपना काम करके जा चुके थे. इंजीनियर
मनोज चीखता रहा- भाटिया, मुझे सस्पेंड कर दो, बरखास्त कर दो मुझे, पर मारो मत. किसी ने नहीं सुना. मारते रहे. जब वह बेहोश हो कर गिर गया तो
एक बोला- जो बाथरूम में छिपी है उसका क्या करें. जवाब मिला- छोड़ दो.
कॉलोनी
का कोई भी आदमी पूरी वारदात के दौरान
बचाने नहीं आया. भरी कॉलोनी में, एक आदमी
का कत्ल हो रहा है और कोई बचाने नहीं आता ?
इज़
इट दैट ग्रेट इंडिया ? इसी की तारीफ करते
तुम्हारी गालें नहीं थकतीं?
माइ
फ्रेंड ! लोग कहते हैं अपना देश अपना ही होता है. मगर मैं लात मारता हूं ऐसे देश
को. थूकता हूं ऐसे देश पर, जहां का आदमी इतना सेल्फिश, इतना इंडिवीजुअलिस्ट, इतना डरपोक है. ऐसे 'अपने देश' से तो पराए देश में रहना ज़्यादा अच्छा. जो
आपको टैक्स के बदले सिक्योरिटी तो दे ही सकता है. जहां गवर्नेंस का कुछ मतलब होता
है, जहां सेंस नामकी चिड़िया भी होती है.
बीएचयू
से मास्टर ऑफ इंजीनियरिंग था मनोज गुप्ता. एक मामूली से बैक ग्राउंड का आम लड़का,
मगर मेहनती. देशप्रेम का ज़ज़्बा रखने वाला. उसे भी मेरी तरह किसी मल्टीनेशनल में जॉब मिल सकता था. मगर नहीं गया. मारा गया देशभक्ति के चक्कर में. और दूसरी तरफ था वह एमएलए तिवारी, जिसने
दस पार्टियां बदलीं. खूंखार, खूनी गुंडा. क्रिमिनल बैकग्राउंड रखने वाला. जिन
भाड़े के हत्यारों के लिए पॉलीटिक्स देश सेवा नहीं बिज़नेस है. किसी तरह उल्टा सीधा
करके पावर कैप्चर करो. अफसरों व ठेकेदारों से मोटी रिश्वतें लो. खुद भी खाओ,
पार्टी को भी खिलाओ. ऐसे दुधारू जानवरों को कौन नहीं पालना चाहेगा ?
क्या ये जनता के सेवक हैं ? बास्टर्ड ! और वो
पॉलीटिकल पार्टियां ! जो ऐसे गुंडों को टिकट देती
हैं, क्या वे कॉमन मैन का भला कर सकती हैं कभी ?------------
26
दिसंबर 2008 औरैया,
इंडिया
हाय
निखिल, मैं हूं एक अनफॉर्चुनेट इंडियन . तुम मुझे दीपक कह कर
बुला सकते हो. तुम्हें पढ़ा. आइ एम रियली सॉरी, जो कुछ भी
हुआ. मगर यार इंग्लैंड को सीरीज़ से भी तो हमने ही हराया है. चन्द्रयान भी तो हमने
ही छोड़ा है. यू नो ! हम इंडियन क्रीम
हैं. हम जीनियस हैं. हमें नाज़ है अपने
मुल्क पर.

और
हां. कोई जॉब मेरे लायक हो तो बताना यार. यहां अनइंप्लायमेंट कुछा ज़्यादा ही है.
सरकारी जॉब्स पहले तो होते ही आटे में नमक के बराबर हैं. ऊपर से करीब 50% सीट
रिज़र्व होती हैं. जेनेरल कैंडीडेट का तो फ्यूचर यहां बिल्कुल डार्क है. मैं अपना
रेज़्यूम भेज रहा हूं. कुछ करना यार. कोई छोटी मोटी भी मिली तो कर लूंगा. मैरीज भी
कर दी घरवालों नें. तुम्हारा दोस्त --- दीपक.
27.12.08
न्यूयॉर्क. हाय दीपक.

ईमानदारी नाम की चिड़िया आप के इंडिया नाम के
बगीचे मे कहीं नज़र नहीं आती. कुछ नहीं हो सकता. दूर तक अंधेरा ही अंधेरा दीखता है.
मेरे डैड कहते हैं- वापस आ जा. यहीं रह कर अपना काम शुरू कर. मगर मैं क्या समझाऊं
उन्हें ? आज जो इंडिया का हाल है उसमें वापस आने की बात
सोचना भी बेकार है. कोई सिक्योरिटी नाम की
चीज़ है वहां? आप के इतने बड़े खिलाड़ी धोनी को 26 नवंबर के बाद
खुले आम धमकी मिलती है कि पचास लाख दे या फिर मरने को तैयार हो जा. फिर पापा कहते
हैं मैं इंडिया आ जाऊं ?
नो दीपक. तुम्हारा इंडिया तुम्हे ही मुबारक. हम यहीं अंग्रेज़ों की गुलामी में ठीक हैं.

दीपक
यार, मुझे ज़रा उन स्टेच्यूज़ के बारे मे बताना
जो आजकल मायावती लखनऊ में बनवा रही है. कांशी राम की, अपनी
या अंबेडकर की मूर्तियां बना कर, करोड़ों अरबों रुपए उनमें
झोंक कर वह किन का भला करने वाली हैं? इतने पैसे से तो यूपी
के सारे दलितों को रोज़गार दिया जा सकता था. ये ड्रामे क्या इंडिया के लोग समझते
नहीं? या फिर ये पॉलीटीशियन पब्लिक को अब भी बेवकूफ समझे बैठे हैं?
इलेक्शन रिज़ल्ट बताते हैं कि
इंडियन वोटर अब मैच्योर हो चुका है. ये चोंचले अब काम नहीं आने वाले.
फ्रैकली स्पीकिंग,
ये भी करप्शन का ज़रिया है. महान पुरुषों की मूर्तियां भी अब कमाई का औज़ार
बन गई हैं.

सोचता
हूं अब सो जाऊं. वरना दिमाग का दही हो जाएगा ज़्यादा सोच कर. एक्सप्लॉयटेशन के
खिलाफ कॉमन मैन को एकजुट करना बहुत मुश्किल काम है. मुश्किल इसलिये कि उस कॉमन मैन
को बांट दिया गया है. कहीं जातियों में कहीं मजहबों में,
कहीं अमीर गरीब में तो कहीं एजूकेटेड, अनएजूकेटेड
में, तो कहीं ईस्ट,वेस्ट, नॉर्थ, साउथ में.
बॉय
दीपक. सी यू अगेन. --------------
28-12-08,
नई दिल्ली, वैष्णवी.

थिंक
निखिल, इस मुल्क का ब्यूरोक्रेट व टेक्नोक्रेट
देश के बारे में क्या सोच रखता है, और ये ज़्यादातर बेशर्म,
निहायत घटिया, टुच्चे, क्रिमिनल पॉलीटीशियन देश के बारे मे क्या सोचते हैं.
जस्ट कंपेयर !------
ओके
निखिल --- हम ब्लॉग करते रहेंगे--- तब तक के लिए -बॉय ----वैष्णवी.
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