क्या आप जानते हैं - दून घाटीःखोई सभ्यता की तलाश


  भारत के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित देहरादून, उत्तराखण्ड का एक छोटा-सा जनपद है ।  समुद्र से लगभग तीन हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस क्षेत्र की भौगोलिक आकृति एक द्रोणिका (कटोरी) जैसी है।  शायद  इसी “द्रोणिका” से बिगड़ कर ‘दून’ बना हो । बाद मे उन सभी भूभागों  को ‘दून’ कहा जाने लगा, जो चारों   ओर  से ऊंचे-ऊंचे पर्वतों  से घिरे हों ।  देहरादून के उत्तर में  मंसूरी पर्वत माला अर्धवृत्ताकार घूम कर इसकी उत्तरी सीमा बनाती है.  दक्षिण मे शिवालिक पर्वत श्रेणियां इसके पूर्व से सुदूर पश्चिम तक फैली हैं. इसी तरह एक ओर गंगा नदी इसके पूर्वी छोर की सीमा रेखा बनाती हुई बहती है तो यमुना इसकी पश्चिमी सीमा को छूती चली गयी है।

भौगोलिक अनुमान के अनुसार पहले “यूरेशियन प्लेट”  तथा “अफ्रीका से टूट कर उत्तर की ओर बढ़ते विशाल भूखंड”  के बीच विशाल सागर था ।  तब तक विंध्य पर्वत माला से ऊपर का  भारत और  “विंध्य पर्वत से नीचे का भारत” – दोनो अलग थे ।  दोनों भूखंडों के बीच का वह सागर आज के भूमध्यसागर तक फैला हुआ था ।  लाखों वर्ष बाद विंध्य सहित दक्षिण का विशाल भूखंड (गोंडवाना प्लेट),  यूरेशियन प्लेट से आकर जुड़ गया ।   बीच का सागर लुप्त होने लगा ।  प्लेटों के लगातार दबाव से हिमालय श्रेणियां उभरने लगीं ।  अधिकतम दबाव वाले क्षेत्र में उच्च  हिमालय श्रेणियां , जैसे एवरेस्ट, नंदा देवी, चौखम्बा, बंदरपूंछ आदि बनीं तो कम दबाव वाले क्षेत्रों मे क्रमश: मध्य हिमालय के बर्फ विहीन, कम उंचाई वाले मसूरी, चंद्रबदनी, चकराता, कुंजापुरी, खैट आदि  शिखर बने. सबसे कम दबाव वाले क्षेत्रों  मे निम्न हिमालय वाली, तथा सबसे कम उंचाई वाली  शिवालिक  पर्वत श्रेणियों का विकास हुआ. मध्य तथा निम्न हिमालयी श्रेणियों के बीच का भूभाग गहरी खाई के रूप मे चारों ओर से पर्वतों से घिर गया ।

            हिमालय के गंगोत्री आदि ग्लेशियरों से पिघल कर बर्फ गंगा के रूप मे जब नीचे ढलान की ओर बही तो शिवालिक पर्वतमालाओं ने उसे आगे नही बढ़ने दिया । दून घाटी का संपूर्ण क्षेत्र एक बार फिर जलमग्न होने लगा, और अंत मे यह छोटे मोटे सागर मे बदल गया। कई इतिहासकारों तथा भूगर्भ वैज्ञानिकों ने इसे द्रोण सागर भी कहा है ।

       इधर पूर्वी भाग मे जल का दबाव बढ़ने से शिवालिक चोटियों के किसी कमजोर भाग मे भू-स्खलन होने लगा । चट्टानें कटने लगीं । शिवालिक के पूर्वी छोर को चीरकर गंगा की वेगवती धारा अंततः मुक्त हो गयी । यह वही हिस्सा है जहां से गंगा शिवालिक पर्वत मालाओं से बाहर निकल कर मैदानी भाग मे आई है ।  अर्थात हरिद्वार मे चंडी देवी और मनसा देवी पर्वत शिखरों के बीच का भाग ।

धीरे-धीरे द्रोण-सागर  का जलस्तर गिरता गया और एक समय वह भी आया कि द्रोणिका का अधिकांश भूभाग सूख गया। इस भू -भाग का पर्याप्त समतल होना, तथा सिंचाई की पर्याप्त सुविधाओ का होना इस बात का प्रमाण है कि किसी समय यहां कृषि  होती थी।  यहां की भूमि अन्य स्थानो की अपेक्षा खूब उपजाऊ थी।

पौराणिक साहित्य मे उल्लेख है कि उस काल मे यहां विशालकाय जीवों तथा अतिमानवों का निवास था- जिन्हे असुर कहा गया है ।  इन असुरों ने यहां आ कर बस रहे साधारण मानवों का जीना असंभव किया हुआ था । मधु कैटभ, शुंभ निशुंभ , महिषासुर, वातापि आदि उस काल के प्रमुख असुर शासक थे ।  कोलकाता संग्रहालय मे एक विशाल मानव तथा विशाल हाथी का भग्न कंकाल  आज भी मौजूद है जो यहां देहरादून क्षेत्र मे मिला था । 

हरिद्वार का कनखल ही वह क्षेत्र है जहां ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष  प्रजापति ने यज्ञ किया किंंतु अपने दामाद भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया ।  पार्वती उस आयोजन मे जाने का मोह न त्याग सकी और बगैर निमंत्रण के ही कनखल चली गई ।  वहां जब उसे तथा भगवान शिव को उचित मान सम्मान न मिला तो उसने यज्ञकुंड मे कूद कर अपने प्राण त्याग दे दिये । 

भगवान शिव के प्रमुख गणों जैसे वीरभद्र तथा नंदी आदि ने यज्ञ का विध्वंस कर दिया । पूषा देवता के दांत तोड़ दिये ।  दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया । भगवान शिव ने तो आकर तांडव ही मचा दिया ।  पार्वती के  आधे जले शरीर को लेकर अत्यंत क्रोध मे भरकर वह तीनो लोकों मे विचरण करने लगे ।   तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस शव के चौंसठ टुकड़े करके उन्हे अनेक स्थानों मे स्थापित कर दिया ।  उन्हीं मे से कामाख्या, हिंगलाज, चंद्रबदनी आदि अनेक शक्ति पीठ आज भी हमारी आस्था के केंद्र बने हुए हैं । 

     नव दुर्गाओं का इस क्षेत्र मे आज भी विशेष आदर है ।  शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री नव दुर्गाओं के जन्म स्थल इसी क्षेत्र मे विद्यमान हैं । 

      उत्तराखंड मे प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार कूष्मांडा देवी अगस्त्यमुनि स्थित अगस्त्य ऋषि तथा सिल्ला स्थित शाणेश्वर महाराज (शृंगी ऋषि ) की बहन थी.  इसी प्रकार अन्य सभी दुर्गाओं का भी उत्तराखंड की गाथाओं मे उल्लेख आता है । 

        प्रागैतिहासिक घटनाओं मे रामायण कालीन घटना भी देहरादून से जुड़ी है ।  यहां एक किंवदंती  प्रचलित है कि सूर्यवंशी राजाओं के कुल पुरोहित वशिष्ठ ऋषि ने श्री राम को ब्रह्महत्या (रावण ब्राह्मण था)  से मुक्त होने के लिए उत्तराखंड मे आकर तप करने की सलाह दी थी ।  श्री राम ने देव प्रयाग तथा ऋशिकेश मे, तथा क्षय रोग  से ग्रस्त लक्ष्मण जी ने तपोवन मे बारह वर्ष तक तपस्या की थी । 

       ज्ञातव्य है कि महर्षि  वशिष्ठ की तपस्थली वर्तमान  टिहरी जिले के हिंदाव पट्टी मे थी ।  यहीं से उन्हे राज्याभिषेक के लिए अयोध्या ले जाया जाता था ।    

ऋषिकेश के भरत मंदिर के रूप मे श्रीराम के छोटे भाई भरत की स्मृतियां भी देहरादून घाटी मे सुरक्षित हैं । हनुमान जी ने यहीं से दिव्य औषधियों वाला पर्वत उखाड़ा और लंका ले गए ।  यहीं चमोली जिले मे फूलों की घाटी के आस पास हनुमान जी ने भीम का गर्व चूर किया था ।  कुबेर की राजधानी अलकापुरी  यहीं थी ।  मणिभद्र नामक यक्ष उनके विश्वस्त सेना प्रमुख थे । उन्ही  का निवास मणिभद्रपुर था जो आज माणा गांव कहलाता है। 

बदरिकाश्रम से होकर ही वह महान नदी सरस्वती बहती  थी जिसके तटों पर सिंधु सरस्वती सभ्यता विकसित हुई थी । सरस्वती की एक सहायक नदी दृषद्वती (घग्गर नदी) आज भी मौजूद है ।  इसी सरस्वती के तट पर श्री गणेश जी की सहायता से व्यास जी ने एक लाख अस्सी हजार श्लोकों की रचना कर “ जय” नामक ग्रंथ की रचना की थी  बाद मे इसी जय को भारत तथा और बाद मे महाभारत कहा गया ।   

           महाभारत कालीन घटनाओं से तो उत्तराखंड का प्राग इतिहास भरा पड़ा है ।  पांडुकेश्वर (चमोली गढ़वाल )  मे पांडु का इलाज हुआ था तथा यहीं पांडवों का जन्म भी हुआ था ।  बारह वर्ष के वनवास का अधिकांश समय पांडवों ने देहरादून तथा उत्तराखंड के अन्य जिलों मे बिताया । द्रोणाचार्य का तपस्थल आधुनिक धोरण गांव सहस्र धारा के निकट था । “धोरण”  शब्द “द्रोण” का अपभ्रंश प्रतीत होता है ।  अश्वत्थामा का जन्म तमसा (टोंस) के तट पर स्थित गुफा (टपकेश्वर ) मे  हुआ। यहांं  द्रोणाचार्य अपनी पत्नी कृपी  तथा पुत्र अश्वत्त्थामा के साथ  रहते थे ।  यहीं भगवान शिव ने प्रकट होकर अश्वत्थामा के लिए दुग्ध धारा उत्पन्न की थी । अभी लगभग 1975 तक इस गुफा के भीतर स्थित शिवलिंग पर दूध की बूंदें टपकती हुई स्वयं इस लेखक ने देखी थीं । इस  स्थान को टपकेश्वर महादेव कहा जाता है  हर साल यहां मेला लगता है ।


   भले ही भूगर्भ वैज्ञानिकों की भाषा मे यह सफेद द्रव दूध नहीं बल्कि कैल्शियम का कोई यौगिक है ।  कैल्शियम की चट्टानों से जब जल संयोग करता है तो सफेद रंग का यह द्रव बनता है, जिसके गुण प्राकृतिक दूध से बहुत अधिक समानता रखते हैं । यहां तक कि इसे दूध के निरापद विकल्प के रूप मे बेफिक्र होकर प्रयोग किया जा सकता है । गुफा की छत से जल या दूध की धाराओं के साथ जो लम्बी लम्बी ठोस  डंडी  जैसी आकृतियां बनती हैं उन्हे स्टैलेक्टाइट तथा स्टैलैग्माइट कहा जाता है | 

इस स्पष्टीकरण का अभिप्राय यह है कि विज्ञान के कई तथ्यों से हमारे पूर्वज परिचित थे |  किंतु उन तथ्यों को धर्म और आस्था की आड़ मे इसलिए प्रस्तुत किया गया ताकि जन साधारण उन बातों को भय तथा संदेह से न देखे  और श्रद्धा पूर्वक उन्हे अपनाए ।

आज जहां भारतीय सैन्य अकादमी का मुख्य भवन है वहां पहले घना वन था जहां द्रोणाचार्य ने कौरव तथा पांडव राजकुमारों की परीक्षा ली थी । यहीं कहीं एकलव्य से द्रोण ने अंगूठा मांगा था ।  इसी प्रकार द्वैत वन शिवालिक पर्वत मालाओं से आच्छादित वन प्रदेश ही था जो आधुनिक हरियाणा, कुरुक्षेत्र, सहारनपुर (कुरु जांगल प्रदेश)  आदि से घिरा था ।  चकराता (एकचक्रा) मे ही राजा विराट का राज्य था जहां पांडवों ने एक वर्ष का अज्ञातवास किया था । वहीं एक स्थान है जहां भीम ने द्रौपदी का अपमान करने वाले द्रुपद के साले कीचक को मारा था  आज की संपूर्ण जौनसार घाटी महाभारत काल मे राजा विराट के राज्य का हिस्सा थी । विराट की पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था । शायद पांडवों की बहुविवाह प्रथा को उत्तरा के मायके मे एक यादगार के रूप मे अपना लिया गया ।  आज भी जौनसार क्षेत्र मे अनेक भाई एक स्त्री से विवाह करते  हैं ।

जनमेजय ने तक्षशिला मे जो सर्प यज्ञ किया था, उसमे अट्ठाइस ब्राह्मण क्रिया मे बैठे थे । उन्ही मे एक थे देवशर्मा | ये देवशर्मा नामक ब्राह्मण चकराता के आस पास के निवासी थे | आज भी चकराता का देववन उनकी स्मृति के रूप मे मौजूद है |

पांचाल नरेश के युवराज  द्रुपद तथा आचार्य द्रोण ने हरिद्वार मे ही गुरु से शस्त्र विद्या सीखी थी । हरिद्वार मे ही अर्जुन नागकन्या उलूपी पर मोहित हो गए थे तथा नागलोक जाकर उससे गंधर्व विवाह कर लिया था ।  नागलोक आज का चमोली जिले से लेकर पूरा भाभर प्रदेश था ।  इस नाग कन्या से अर्जुन का इरावान नामक पुत्र हुआ जिसने महाभारत युद्ध मे पांडवों की ओर से भाग लिया था ।

मनसा देवी का नाम वास्तव मे  जरत्कारु था ।  उनके पति ऋषि जरत्कारु थे । जरत्कारु ने पेड़ों पर उल्टे लटके हुए अपने पित्रों की मुक्ति के लिए विवाह करना स्वीकार कर लिया था किंतु शर्त यह रख दी थी कि जिस कन्या का नाम उनके जैसा अर्थात जरत्कारु होगा उसी से वह विवाह करेंगे । जरत्कारु दरअसल ऋषियों का एक संप्रदाय था जो किसी एक स्थान पर नही रहते थे ।

जरत्कारु तथा मनसा देवी का आस्तीक नामक पुत्र हुआ  जिसने जनमेजय के सर्पेष्ठि यज्ञ मे तक्षक नाग को बचाया था । तक्षक नाग ने ही परीक्षित अर्थात जनमेजय के पिता की हत्या की थी ।  मनसा देवी नाग राज वासुकि की बहन थी । जिसका निवास हरिद्वार के समीप  शिवालिक पर्वतावली के एक शिखर पर स्थित था।  वह स्थान आज भी आस्था का प्रमुख केंद्र है ।  
  
वनवास के दौरान उत्तराखंड  के देहरादून से ही अर्जुन भगवान शिव से पाशुपात दिव्यास्त्र की शिक्षा लेने गए थे। यहीं से इंद्र ने उन्हे अपने पास रहने के लिए स्वर्ग बुलाया था । ज्ञातव्य है कि अर्जुन इंद्र के  पुत्र थे  ।  

श्रीनगर गढ़वाल के महाभारतकालीन राजा सुबाहु ने महाभारत युद्ध मे पांडवों का साथ दिया था । बाद मे काफी समय तक सुबाहु के वंशज ही इस क्षेत्र मे पांडवों के अधीनस्थ राजा के रूप मे राज करते रहे ।
महाभारत युद्ध के बाद धृतराष्ट्र, गांधारी, विदुर तथा कुंती ने हरिद्वार(मायापुर) के समीपवर्ती शिवालिक वनों मे ही संन्यास के पश्चात निराहार रहते हुए देह त्याग किया था।  धृतराष्ट्र तथा गांधारी की मृत्यु तो वन मे  आग लगने के कारण हुई थी 

पांडवों ने भी महाभारत युद्ध के लगभग छत्तीस वर्ष बाद स्वर्गारोहण उत्तराखंड मे ही किया था । देहरादून क्षेत्र से होते हुए ही पांडव स्वर्गारोहिणी पहुंचे थे ।

  इस क्षेत्र मे ऐसी अनेक घटनाएं हैं जो महाभारत कालीन इतिहास से संबंध रखती है ।

इसके बाद लगभग एक हजार वर्ष तक का प्राग इतिहास शोध का विषय है । यह समय सोलह महाजनपदों तथा प्राचीनतम गणतंत्रों (लिच्छवि आदि) के लिए जाना जाता है । भले ही अभी तक इस काल खंड को भारत के इतिहास मे अंधकार युग (Dark period) कहा जाता है ।

       जब महापद्म नंद ने सूर्य तथा चंद्रवंशी राजाओं के तत्कालीन वंशजों का वध किया तो उस समय अर्थात ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पहले  कुरु वंश का तीसवीं पीढ़ी का शासक  क्षेमक था । सोलह महाजनपदोंं मे से एक जनपद कोसल कुरु वंश का प्रतिनिधि  था ।  
    युधिष्ठिर से क्षेमक तक का समय विद्वानो ने लगभग ग्यारह सौ वर्ष माना है । 

        कालसी मे अशोक का शिलालेख मिलना भी यही सिद्ध करता है कि ईसा से लगभग 250 वर्ष पहले यह क्षेत्र आबाद था । यहां के लोग शिक्षित थे । यहां पर्याप्त जनसंख्या मौजूद थी  । यह वैष्णव परंपरा का प्रसिद्ध केंद्र था ।  दूसरे शब्दों मे कहें तो कालसी का समीपवर्ती क्षेत्र उस समय अशोक के राज्य का एक महत्वर्पूण नगर था।  कालसी के समीप ही  सिल्क रूट  था जो मध्य एशिया मे अनेक यूरेशियन देशों से होता हुआ चीन तथा मंगोलिया  तक जाता था ।

कालसी के समीप बाड़वाला के जगत ग्राम मे यमुना तट के समीप गरुड़ाकार यज्ञवेदिका के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं । उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार यहां राजा शील वर्म्मन ने चार अश्वमेध यज्ञ  किए थे । उपलब्ध अवशेष उसी यज्ञ वेदिका के हैं ।  यहां मिली ईंटों का आकार 18” * 9” * 4.5” है । राजा शील वर्मन का समय दूसरी -तीसरी शताब्दी  आंका गया है ।  

            देहरादून के पश्चिम दक्षिण मे सहारनपुर जिले मे यमुना के पूर्वी किनारे पर खिज़्राबाद  नाम का छोटा बाजार हैै।  इसी के एक गांव टोपरा मे भी सम्राट अशोक ने  अपने सात स्तंंभ लेखों मे से एक स्तंभ लेख लगवाया था ।  यह स्थान शिवालिक पर्वत मालाओं के पास स्थित है । इस स्तंभ को फीरोज तुगलक उखड़वा कर दिल्ली ले गया था । पुरानी दिल्ली के फिरोजाबाद  क्षेत्र मे अब भी वह स्तंभ मौजूद है।

अशोक के सातों स्तंभ लेखों मे यह सबसे प्रसिद्ध है ।  बाकी छ स्तंभों मे छ लेख हैं, किंतु इसमें सात लेख हैं। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-सिराज  के उल्लेख से ही पता चला था कि यह स्तंभ उत्तर प्रदेश के सहारनपुर (खिज्राबाद) जिले में टोपरा नामक स्थान पर गङा था। कालांतर में फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.)द्वारा दिल्ली लाया गया था।
            इससे स्पष्ट हो जाता है कि सम्राट अशोक के काल में देहरादून का पश्चिमी तथा दक्षिणी क्षेत्र (यमुना बेसिन) खूब आबाद था. यहां कालशिला (कालसी), देववन (चकराता), हरिपुर (विष्णुतीर्थ), शाकेश्वरी (शाकुम्बरी), सरसावा,  देववृंद (देवबंद),  जड़ौदा (जलद),  तथा पांडा (पांडवस्थल)  आदि अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्र थे  । उधर द्रोण घाटी के पूरब मे गंगा नदी के किनारे भी मायापुर (हरिद्वार), कुब्जाम्रक तीर्थ (ऋषिकेश),   मतिपुर (मंडावर) जैसे महत्वपूर्ण नगर व धार्मिक केन्द्र थे। इन नगरो का महत्व उस समय कोशल, कपिल वस्तु, सांची, सारनाथ आदि के बराबर ही रहा होगा। तभी यहां स्तंभ और शिला लेख लगाने की आवश्यकता समझी गयी।

सातवीं शताब्दी मे चीनी यात्री ह्वेंसांग भारत आया था. बौद्ध कालीन अवशेषों को देखने वह कालसी भी गया जो उस समय सुघ नगर कहलाता था. प्राचीन साहित्य जैसे पाणिनि की अष्टाध्यायी (400 ईसा पूर्व) मे भी स्रुघ्न जनपद का उल्लेख मिलता है.  
            इसके बाद आठवीं शतब्दी के लगभग तक देहरादून की राजनैतिक गतिवधियों का स्पष्टोल्लेख नहीं मिलता केवल इतना मालूम हुआ है कि सातवीं-आठवीं शताब्दियों में यह क्षेत्र वर्मन नरेशों के अधिकार में रहा और एक तामपत्र के अनुसार उनकी राजधानी सेहुपुरम (कुछ इतिहासकारोंं के अनुसार वर्तमान सहसपुर)  थी। तत्पश्चात यह भू-भाग कन्नौज के गहड़वाल शासको के अधिकार में चला गया और लगभग बारहवीं शताब्दी तक रहा, फिर खिलजी और तुगलक वंशोंं  के अधिकार में रहकर पंद्रहवीं शताब्दी मे शेरशाह सूरी के अधिकार में गया।

          मुगल काल के आरंभ मे उत्तराखंड की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया. एक तो यह क्षेत्र दुर्गम था. दूसरे यहां से राजस्व भी बहुत कम मिल सकता था. किंतु औरंगजेब का ध्यान उत्तराखंड  की ओर इसलिए गया क्योंकि यहां के राजा .पृथ्वीपति शाह ने औरंगजेब के बड़े भाई दाराशिकोह तथा उसके पुत्र सुलेमान को शरण दी थी । विवश होकर राजा को दाराशिकोह की सुरक्षा वापस लेनी पड़ी । तबसे औरंजेब के दरबार मे पहाड़ के राजाओं को हाजिरी लगाना जरूरी हो गया ।   तबसे अठारहवीं शताब्दी तक यह मुगलो के अधिकार मे रहा। सन 1756 मे दून घाटी का अधिकांश भाग औरंगजेब ने जागीर के रूप मे गुरु रामराय जी को सौंप दिया था। उनका भव्य महल आज भी देहरादून मे स्थित है जहां हर साल मार्च  महीने मे झंडा चढ़ता है 

                        अपरोक्त विवेचन आर्यो के भारत में आने के बाद का हैं, तथा स्पष्टतः सम्राट अशोक के शासन काल २50 वर्ष ई. पू. से ही उपलब्ध है । परन्तु ऐसा  प्रतीत होता है कि ईसा से लगभग पांच-छह हजार साल पहले भी दून घाटी मे पूर्णतः विकसित नगर सभ्यता मौजूद थी। आर्यो की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में जिन्हे असुर, मायावी, कृष्ण और दुराचारी कहकर अपमानित किया गया है शायद वे ही दून घाटी के मूल निवासी थे । सुनीथा  का पुत्र राजा वेन संभवतः वह शासक था, जो आर्यो के आक्रमण से समय दून घाटी का शासक था।

ध्वंसावशेषों का रहस्य

आर्यों के घुड़सवारों के सामने वेन की एक न चली। वह पराजित हुआ, आर्यों ने उनके नगर को ध्वस्त कर डाला और अपने उपनिवेश स्थापित  किये । 
                उन्हीं ध्वस्त नगरों के अवशेष आज भी दून घाटी में मीलों तक फैले हैंं। हड़प्पा तथा मोहन जोदड़ो की भांति ये नगर भी टीलों की शक्ल में गर्त मे दबे हुए हैं । इन  टीलो में एक स्वर्णा नदी के किनारे-किनारे मंसूरी की तलहटी मे कालसी के समीप तक फैला है । एक स्थान पर वर्षा के कारण टीले का भाग कट गया है जिससे सभ्यता के अवशिष्ट चिन्ह कुछ अंकित शिलाखंड बाहर ढहकर ढेर शक्ल मे गिर पड़े है। उसी ढेर में लेखक को हल्के पत्थर के आयतोंं पर उत्कीर्ण नागो के फन, उगते हुए सूर्य तथा पशुओं व वनस्पतियों के सुन्दर किन्तु  धूमिल अवशेष प्राप्त हुए हैंं।  कुछ शिलाओं  पर प्रतीकात्मक चित्र भी हैं, जिनका भाव स्पष्ट नहीं हो पाया।

             ठीक इन्हीं नापों व इन्हीं पत्थरों पर बनी ऐसी ही मुद्राएं एक अन्य टीले से भी संयोगवश प्राप्त हुई हैंं । यह टीला भारतीय सैन्य अकादमी के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में स्थित डी. ए. वी. इण्टर कालेज, प्रेमनगर की सीमा मे है, तथा विद्यालय की ओर से इस पर खेती होती है । लगभग पांच वर्ष पहले इस टीले के एक भाग को तोड़ कर जब समतल किया जाने लगा तो कुछ ही नीचे ठीक उसी नाप  की प्रस्तर मुद्राएं तथा उत्कीर्ण आकृतियां प्राप्त हुई. विद्यालय द्वारा आगे खुदाई बन्द करके प्राप्त साम्रगी पुरातत्व विभाग को भेज दी गयी।

           जहां से आसन नदी निकलती है, उस चंद्रबनी नामक स्थान  के पास भी एक टीले से लेखक को 18” *9”* 4.5” आकार की एक ईंट मिली थी । पुरातत्वशास्त्रियों के अनुसार इस आकार की ईंटें पहली दूसरी शताब्दी ईसापूर्व के आस पास प्रयोग मे आती थीं ।  

                प्रश्न उठता है कि पत्थर की ये हल्की मुद्राएं व अन्य आकृतियों, नागों के फन, वनस्पति के कलापूर्ण कटाव, उगते हुए सूर्य तथा और भी अनेक रहस्यों को अपने  भीतर छिपाये ये टीले आखिर किस काल के, किस सभ्यता के हैं ? क्या इन टीलों में भी हडप्पा, मोहनजोदड़ों की सभ्यता का ही पूर्वी केन्द्र दबा  हुआ है ?

            यदि इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है तो हमें मानने पर विवश होना पड़ेगा कि सिंधुघाटी की सभ्यता का प्रसार अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा या गुजरात तक ही न था, बल्कि यह पूर्व में देहरादून तक भी फैली हुई थी।

            अन्यथा दूसरी संभावना यही हो सकती है कि आर्यों के आगमन से पहले  हड़प्पा सभ्यता से भिन्न प्रकार की अन्य सभ्यता भी दून घाटी मे विकसित हो रही थी। वे लोग सूर्य की उपासना करते थे, नागो तथा वनस्पतियों की पूजा करते थे । उनका प्रकृति से गहरा संपर्क था तथा शिल्पकला व सूक्ष्म पच्चीकारी में वे बहुत बड़े-चढे थे।

            किन्तु इन सभी संभावनाओं को उचित मान्यता तभी मिल सकती है, जब भारत सरकार का पुरातत्व विभाग अपने संरक्षण में ऐसे अनेक टीलों की खुदाई कराए । यदि ऐसा किया जाता है तो अंधकार के गर्त में दबी एक पूरी सभ्यता, एक संपूर्ण संस्कृति पुनः जीवित हो सकेगी और संभव है-आर्यों के  आगमन से पहले का इतिहास दुबारा लिखना पड़े।

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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