लोक भाषा का भाषिक विवेचन (भाग-2)



  
            भारतेंदु युग के लेखकों ने सामान्य निरक्षर व प्रताड़ित जनता के लिए न केवल लिखा, बल्कि उनके सुख दुख में वे स्वयं भी उनके साथ खड़े दिखाई देते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र के बहु आयामी व्यक्तित्व में एक तरफ जहाँ राजसी ठाट-बाट था, तो दूसरी तरफ  दीन दुखियों के लिए अत्यधिक संवेदना भी थी। हेमंत शर्मा लिखते हैं : “एक ऐसा व्यक्ति, जो परंपरा से चली आती हुई सामन्ती मर्यादाओं को तोड़ कर कजली और लावनीबाजों के बीच बैठ कर कजली भी गाता हो, जिसके दोस्तों में काशी नरेश से लेकर गली का आदमी तक हो । जो सबसे मिलता जुलता हो, सबके सुख-दुख में शरीक होता हो,जिसके परायी पीर की दाह सड़क के किनारे सर्दी से ठिठुरते भिखमंगे पर अपना काश्मीरी दुशाला डाल देती हो, क्या वह दरबारी प्रवृत्ति का हो सकता है” 1 ? 

            भारतेंदु युग की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी जीवंतता है। यह जिंदादिली केवल साहित्य में नहीं बल्कि उनके जीवन में भी थी। निरंकुश ब्रिटिश राज में, जहाँ जरा जरा सी बात पर हिंदुस्तानियों को कोई अंग्रेज गोली से उड़ा देता था, या बूट की ठोकरों से उसे लहू लुहान कर देता था, ऐसे समय में, देशभक्ति तथा जन चेतना जगाने वाला साहित्य लिखना बहुत हिम्मत का काम था।

          लोकवर्ग का जीवन प्राय: अभावों, विवशताओं , अशिक्षा व दरिद्रता से भरा होता है। इस वर्ग के पास मनोरंजन के साधनों के रूप में परंपरा से चले आ रहे त्यौहार उत्सव व पर्व होते हैं।  इन उत्सवों त्यौहारों को ये लोग बड़े धूमधाम से मनाते हैं। भारतेंदु युगीन लेखकों ने भी इन लोक उत्सवों में शामिल होकर उनका भरपूर आनंद उठाया है।  होली के अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत में तत्कालीन समाज की दरिद्रता का विद्रूप होली की स्वच्छंदता बनाए रखते हुए अत्यंत कौशल के साथ प्रस्तुत किया गया है :

जुरि आए फांकेमस्त होली होय रही।
घर में भूँजी भांग नहीं है तो भी न हिम्मत पस्त ।
होली होय रही ।
महंगी परी न पानी बरसा बजरौ नाहीं सस्त । 
धन सब गवा अकिल नहिं आई तो भी मंगल कस्त ।
होली होय रही।
 परबस कायर कूर आलसी अंधे पेट परस्त ।
 सूझत कुछ न बसंत माहि ये भए खराब औ खस्त ।
होली होय रही 1     
 ( 1.  हेमंत शर्मा : भारतेंदु समग्र : भूमिका- पृ. 29)  
           
            लोकगीतों  का प्रयोग केवल तत्कालीन दुरावस्था की अभिव्यक्ति के लिए करने से उन गीतों  की कोमलता, शृंगारिकता, उनका सौंदर्यबोध, उस अवसर की अल्हड़ता व मस्ती अभिव्यक्त न हो पाती इसीलिए कुछ होलीगीत तत्कालीन प्रचलित रागों, जैसे राग विहाग, धनाश्री, इकताला, काफी, रागदेश, राग होरी, आदि मे भी पूर्णत: मस्ती व उल्लास के रंग मे लिखे गए हैं :  

पिय मन मोहन के संग राधा खेलत फाग ।
दोउ दिसि उड़त गुलाल अरगजा दोउन उर अनुराग ।
रंग रेलनि झोरी झेलनि में होत दृगन की लाग ।
हरीचंद लखि सों मुख शोभा – अयन सराहत भाग 2   
(  भारतेंदु समग्र  : पृ 114, 120 )


 होली पर फाग गाने की परंपरा भारतेंदु काल में भी लोकप्रिय थी। प्रेमघन ने फाग गीत के माध्यम से होली के उल्लास को इस प्रकार व्यक्त किया है :

बिनती सुन लीजिए मोहन मीत सुजान, हहा ! हरि होरी मैं ।
रसिक रसीले प्रान पिय जानि गुनिये आन, हहा ! हरि होरी मैं ।
चल दल लसित दुमावली लतिका, कुसुमित कुंज हहा ! हरि होरी मैं ।
मदन महीपति सैन सम अलि अवलिन को गुंज हहा ! हरि होरी मैं ।
बरस दिनन पर पाइयत भागिन, यह त्योहार,  हहा ! हरि होरी मैं ।
मदमाते युव युवति जन करत केलि त्योहार हहा ! हरि होरी मैं ।
भरि उछाह तासों अति प्यारे श्री ब्रजराज,  हहा ! हरि होरी मैं  
ह्वै जुवती जुवतीन संग फाग खेलिए आय, हहा ! हरि होरी मैं ।
कसक मिटावहु खोलि हिय खेलहु अब हरसाय हहा ! हरि होरी मैं  
फेकहु कुमकुम कुचन पर गाल गुलाल मालाय, हहा ! हरि होरी मैं ।
यों कहि बरसावन लगीं  सब  हरि ऊपर रंग,  हहा ! हरि होरी मैं ।
 कविवर बद्री नाथ जू गावत पीए भंग , हहा ! हरि होरी मैं ।1 
 तथा
ये अलियां चलि आज – अरी दिन होरी मैं ।
बलि मिलिये ब्रजराज – अरी दिन होरी मैं ।
लै डफ बीन सुचंग– अरी दिन होरी मैं ।
बाजत ढोल मृदंग – अरी दिन होरी मैं ।
लै लै कर करताल – अरी दिन होरी मैं ।
गावहु फाग रसाल – अरी दिन होरी मैं 1  
( प्रेमघन सर्वस्व : पृष्ठ : 611-612 )  

            होली के गीत सामूहिक रूप में गाए जाते हैं। इसमें गाने वालों के दो समूह होते हैं। होली गायन में दो शैलियाँ अधिक प्रचलित हैं। पहली शैली में एक समूह गीत की पंक्ति गाता है और दूसरा समूह टेक दोहराता है :

सखि फाग के दिन आए रे ! बन उपवन सुमन सुहाए ॥ टेक॥
बौरे रसाल रसीले ! फूले पलास सजीले ।
गहि अब गुलाब रँगीले ! चित चंचरीक ललचाए ।
 सखि फाग के दिन आए रे !
कल कोकिल कूक सुनाई ! जनु बजत  मनोज बधाई ।
 मिलि पौन पराग सुहाई, विरही बनिता बिलखाए ।
 सखि फाग के दिन आए रे2    !

            दूसरी शैली में भी दो समूह मिल कर गाते हैं। एक समूह गीत की एक पंक्ति गाता है तो दूसरा समूह दूसरी पंक्ति :

इन गलियन क्यों आवत हो जू, लाज शंक नहिं आवत हो जू।
लै लै नाम हमारो गाली बंसी बीच बजावत  हो जू ।
छैल अनोखे आप जानि जिय, जापै ज़ोर जनावत  हो जू ।
 लाल ग्वालन बाल लिए, लखि, अलिन नवेलिन धावत हो जू ।
बालन के भालन गालन में, लाल, गुलाल लगावत हो जू।
पिचकारी छतिमन तकि मारत, चोरी चोर भिजावत  हो जू ।
गाय कबीर अहारन के संग, निज कुल नाम नसावत हो जू ।
 पी पी भंग रंग से रंग तन, डफ करताल बजावत हो जू1   ।

( प्रेमघन सर्वस्व : पृ 612 , 628)   

            तत्कालीन कवियों ने लोक गीतों में कला की  अपेक्षा भाव पक्ष पर अधिक ध्यान दिया । लोकप्रचलित धुनों  पर होली की स्वच्छंदता, शृंगारिकता व उन्मुक्तता व्यक्त हुई है  :

बरस दिना को दिन है प्रियतम ! यह शुभ घरी अमोली है ।
चूक छमौ औ निज दिश देखौ, मिल जाओ अब होली है ।
आज लाज को काज कहा है, फाग मची चहुँ ओरी है ।  
भेंटो मोहि निसंक अंक भरि कहू, काहू की चोरी है।
छुवन देहु ससि मुख गुलाल मिस, यहै साध बस मोरी है।
गारी गाओ, रंग बरसाओ, मौज  मचाओ होरी है।
हम तुम एक होंहि तन मन सों, यह आनंद अंतोली है। 
या में कोऊ कहै कहू तो समझे सहज मखोली है।
प्रेमदास अति आस सहित यह मांगत ओड़े ओली है।
पूजो इते मनोरथ प्यारे आज बड़ो दिन होली है 2       

होली के उत्सव को कवि ने एक ओर आनंद से व दूसरी ओर  सम सामयिक परिस्थितियों से जोड़ दिया। शिष्ट भाषा का आभिजात्य मिल जाने से लोकभाषा की अभिव्यंजना  समृद्ध हुई :

 ‘‘महँगी और टिकस के मारे, सगरी वस्तु अमोली है।
कौन भाँति त्योहार मनैये, कैसे कहिये होली है।।
भूखों मरत किसान तहूँ पर, कर-हित डपट न थोरी है।
गारी देत दुष्ट चपरासी, तकति बिचारी छोरी है।।’’
‘‘पर्यो झोपड़ी माहिं छुधित नित, रोवत छोरा-छोरी है।
ज्यों-ज्यों करि काटत दुख जीवन, सूझति तोरि होरी है।।’’1 
1   प्रेमघन सर्वस्व : पृष्ठ 617  2.  प्र. मिश्र रचनावली भाग-1  पृ 115

            इसी प्रकार कबीर जैसे अत्यंत निम्न समाज में गाये जाने वाले अशिष्ट व अश्लील गीतों की भी भारतेंदुकालीन कवियों ने रचना की थी। लोक जीवन का एक पक्ष वह भी था :


मनुष लपेटी योगिनी, नित उठ करे  सिंगार ।
योगी के मन तबौं न न भावै देखि डरे संसार ।
हाय नहिं कतों मरन  है दुनियाँ में ॥
 सतवंतिन का सत्त छूटिगा कसबिन होई गई रांड ।
काम काज में सुस्ती फैले सजे सजीले सांड ।
सखी अब साज सजावट  काहे की`2

होली में स्वयं शामिल होकर, होली के फाग स्वयं भी गाकर, अबीर गुलाल आदि का स्वाभाविक चित्रण करके भारतेंदुकालीन कवियों नें होली जैसे लोक उत्सव के प्रति न केवल अपने प्रेम व लगाव का प्रदर्शन किया है, बल्कि इसके लोक महत्व को पुन: स्थापित भी किया है।

 शृंगार : जीवन का एक अति सामान्य व लोकप्रिय पक्ष शृंगार भी है। लोक जीवन इससे सर्वाधिक प्रभावित रहा है। भारतेंदुकालीन कवियों में  शृंगार का भाव काफी गहराई तकसमाया हुआ था। चाहे राधा-कृष्ण का संयोग वियोग हो या फिर ऋतुओं के माध्यम से उद्दीपन भाव हों – सभी रूपों में श्र्ंगारी भावों का सूक्ष्म वर्णन भारतेंदु युगीन काव्य में मिलता है :

हरि हरि धीर समीरे विहरति राधा कालिंदी तीरे ।
कूजति कल कलख के कावलि कल-कलख कीरे।
वर्षति चपला चारु चमत्कृत सघन सहन नभ नीरे।
गायति निज पद पद्म रेणु रत हरिश्चंद्र कवि धीरे 1    
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  1. प्रतापनारायण मिश्र रचनावली, भाग-1, पृ 114.
  2. भारतेन्दु युगीन हिन्दी काव्य मे लोकतत्व : पृ 69

            इसी प्रकार यमुना तट पर श्रीकृष्ण तथा सहेलियों सहित राधा के होली खेलने का सजीव शब्द चित्र प्रस्तुत किया गया है :

रंगीली मचि रही दुहूँ दिसि होरी, इत हरि उत वृषभानु किसोरी।
चलत कुमकुमा रंग पिचकारी, अरुन  अबीर की झोरी ॥
इत जमुना निरमल जल लहरति तरल तरंगिनि राजै ।
इत गिरिराज फलित चिंतित फल चिंतामनि भय भाजै ॥
ता मधि विपुल विमल वृंदाबन जुगल केलि थल सोहै ।
षट ऋतु रहत जहाँ कर जोरे वैकुंठहुं  को मोहै 2  

            इस युग के प्रतिनिधि कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र के बारे मे ठीक ही कहा गया है : “रसिकों के वह सबरस थे और प्रेमियों के दास तथा कृष्ण के सखा और राधारानी  के गुलाम 3  ” ।

प्रेमघन ने राधा-कृष्ण के स्थान पर सामान्य वर्ग की नारी के सौंदर्य चित्रण को वरीयता दी है :

कुन्दन सी दमकें दुति देह , सुनीलम सी अलकावलि जो है।
लाल से लाल भरे अधरामृत , दन्त सु हीरन सजि सो है ॥ 
रत्न मई रमनी लखि कै, घन प्रेम न जो परगते अस को है।
बाल प्रवालन सी अंगुरी, तीन मैं नख मोतिन से मन मोहें 1  
1.  भारतेंदु ग्रंथावली -2, पृ 492 ,407  2.  भारतेंदु हरिश्चंद्र-प्रकाशन विभाग –पृ 63
    
            ब्रज भाषा में भक्ति और शृंगार की जो परंपरा पहले से चली आ रही थी, भारतेंदु कालीन कवियों ने बहुत ज्यादा परिवर्तन न करते हुए उसे जारी रखा। कारण यह भी हो सकता है कि यह काव्य परंपरा पहले ही लोक जीवन के बहुत समीप थी। प्रेमघन के काव्य में आलंबन और आश्रय के पारस्परिक प्रभाव स्वरूप शारीरिक व मानसिक दशाओं का सूक्ष्म चित्रण हुआ है :

लखतै वह रूप अनूप अहो , अंखियाँ ललचाय लुभाय गईं ।
मन तो बिल बिक्यो घन प्रेम, प्रभावित बुद्धि बिलाय गई ॥
अब चैन परे नहिं वाके बिना, पढ़ि कौन सी मूठ चलाय गई ।
वह चंदकला सी अचानक आय, सुहाय हिये में समाय गई 2    
           
            समाज में जिन लोक तत्वों के दर्शन वसंत, वर्षा, उत्सव व संस्कारों के माध्यम से होते हैं, उन्हें लोक शैली में शिष्ट रूप में परोसने की आकांक्षा भी इस काल के साहित्यकारों में  है। शृंगार वर्णन में अपने से पहले चली आ रही भाषा व परंपरा को इन्होने बहुत अधिक नहीं छेड़ा है। इससे भारतेंदुकालीन कवियों के स्वच्छंद, जिंदादिल, व रसिक होने का आभास मिलता है।
( क्रमश: )

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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