भूख लगने पर .....

             
बस यही अपराध मुझसे हो गया था ।
भूख लगने पर जरा मैं रो गया  था ॥

देखने में आप भी इंसान जैसे थे जनाब ।
जिंदगी भर इस भरम में जी गया था ॥

आपका हैवानियत से दूर तक रिश्ता न हो ।
 इसी उम्मीद  में बाकी सफर भी कट गया था ॥

सागरों का जल चुराए मेघ जाते हैं कहां ।
 देख कर यह लूट मैं घबरा गया  था ॥

जम गई है तो पिघल भी जाएगी ये झील ।
तभी इसके किनारे मैं जरा सा रुक गया था ॥

कभी तो चिलचिलाती  धूप से राहत मिलेगी ।
इसी उम्मीद में मैं धूप को भी सह गया था ॥

कांच की ये खिड़्कियां खुल जाएंगी आखिर ।
दबाए मुट्ठियों में पत्थरों को रह गया था  ॥

आपकी भी जुल्म करने की कोई सीमा न थी ।
जुल्म सहने की हदों के पार तो मैं भी गया था ॥

माफ करना चाहिये तुमको खताओं पर ।
मान  कर ऐसा खता करता गया था ॥

हमारे बीच में जब तक रहा इंसान था ।
जैसे  ही उठा ऊपर  मसीहा हो गया था ॥ 






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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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