मेरी नदी


 दूर तक फैले हुए बेजान पत्थर ।
किसी का चेहरा है या वही मेरी नदी  ॥

 ताज़गी और स्वच्छता जिसकी कभी पहचान थी ।
आज नाला गंदगी का बन गई मेरी नदी  ॥  

सब्ज़पन और ताज़गी अब स्वप्न की बातें हुईं ।
आज है बेजान और सूखी हुई मेरी नदी ॥

कभी सिहरन यहां ठंडी हवाओं में हुआ करती ।
अलावों सी दहकती आज है मेरी नदी ॥

भले ही गरमियों में सूख जाती थी कभी ।
किनारों से कभी ऊंची बही मेरी नदी ॥

बुझाती आ रही थी मुद्दतों से प्यास जो ।
सुना है प्यास से बेहाल है मेरी नदी ॥

कभी इसका सगा संबंध खेतों से रहा ।
अभी तो सिर्फ खातों से जुड़ी  मेरी नदी ॥

नहाने  लोग इस पर  खूब आते थे कभी ।
मगर बेआबरू है आज वह मेरी नदी ॥

बहुत से लोग इस पर हाथ धो कर भी गए ।
गरीबों की बड़ी उम्मीद थी मेरी नदी ॥

कल तलक भूगोल में मौजूद थी जो ।
बन गई इतिहास वह मेरी नदी ॥


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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