इस
इंद्रियगोचर जगत से हमारा संबंध हमारी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों के माध्यम
से है। विशेषकर ज्ञानेन्द्रियों की बात करें तो इंद्रियाँ शरीर में स्थित हैं जबकि
उनके विषय बाहरी जगत में । आँखें हमारे
शरीर मे हैं तो आँखों के विषय अर्थात
दर्शनीय वस्तुएं बाहरी जगत मे हैं । हमारे
पास नाक है तो बाहरी जगत में खूशबूदार फूल हैं । हमारे पास जीभ है तो जगत एक सी एक
स्वादिष्ट चीजों से भरा है । हमारे पास कान हैं तो बाहर बादलों की गड़गड़ाहट है, सितार का मधुर संगीत है, कोयल की मीठी कूक है ।
हमारे पास स्पर्श से चीजों को पहचानने वाला शरीर है तो बाहरी जगत में स्थूल वस्तुएं, जिन्हें
छूकर हम उनकी मौजूदगी जान लेते हैं।
कहने
का मतलब इतना ही है कि इस जगत से हम अपनी इन्द्रियों द्वारा ही जुड़े हैं। पर यह
जानना भी जरूरी है कि यह जुड़ाव किस सीमा तक है ? उत्तर
साफ है। यह जुड़ाव उतना ही होता है जितनी कि हमारी इन्द्रियों की क्षमता होती है ।
यदि हमारे कान बीस हर्ट्ज़ से लेकर बीस हज़ार हर्ट्ज़ तक की ध्वनि ही सुन पाते हैं तो
यह हमारे कानों की सीमित क्षमता की वजह से है, वरना ध्वनियाँ
तो बीस हर्ट्ज़ से नीचे भी हैं और बीस हजार हर्ट्ज़ से ऊपर भी । कुत्ते बिल्लियाँ
बीस से नीचे तथा बीस हजार हर्ट्ज़ से ऊपर की ध्वनियाँ भी सुन लेते हैं। कुत्तों की
सूँघने की क्षमता भी मनुष्य से कई गुना ज़्यादा है। चील या बाज काफी दूर से अपने
शिकार को देख लेते हैं। चिड़ियों व चींटियों को भूकंप आने की आहट पहले ही मिल जाती है ।
अर्थात
इस जगत का एक सीमित अंश ही हमारी इन्द्रियों के लिए खुला है, भले ही हमारी इन्द्रियों की सीमाओं के बाहर भी इस जगत का विस्तार
है । वह विस्तार कहाँ तक है, कहना मुश्किल है । मनुष्य ने हमेशा उस विस्तार की थाह पाने की कोशिश हर युग
में की है । इन्द्रियों की सीमाओं के बाहर फैले अनंत विस्तार वाले उस इंद्रियातीत
जगत मे उतरने की बहुत कोशिशें की हैं मनुष्य नें । आज भी कर रहा है। टेलेस्कोप बना
कर उसने आँखों की क्षमता बढ़ाई, संवेदनशील डायाफ्राम व
एम्प्लीफायर बनाकर कानों की सीमा बढ़ाई- दूर तक की भी सुनने लगा, अभी जीभ की क्षमता बढ़ाना बाकी है ताकि और अधिक स्वादों का आनंद ले सके ।
नाक की क्षमता बढ़ाना बाकी है ताकि और भी बहुत सी गंधों को अनुभव कर सके । ब्रह्मांड
में सुदूर अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए , दूर की वस्तुओं
को छूने के लिए वह तेज़ गति वाले विमान बनाता है । दूसरे शब्दों मे कहें तो देश (space
) और काल (Time) पर भी मनुष्य अपना नियंत्रण चाहता है । मनुष्य की
छटपटाहट समझ में आ सकती है । वह जान गया है कि जो जगत उसकी इन्द्रियों की सीमाओं के
बाहर है, वह इस इंद्रियानुभूत जगत से करोड़ों अरबों गुना या उससे
भी ज़्यादा विस्तृत है । सभ्यता के हर पड़ाव पर मानव ने उस विस्तार में उतरने की भरसक कोशिशें की हैं । वह उस अनंत असीम
जगत को मुट्ठी में कर लेना चाहता है ।
और मनुष्य की यह इच्छा, यह चाहना ही भौतिक अथवा आध्यात्मिक विकास की जननी है ।
लेकिन
इस इंद्रियगोचर जगत में जब अपनी इन्द्रियों के द्वारा वह जुड़ता है तो कई तरह की
चीजें सामने पाता है । उन सभी चीज़ों का वर्गीकरण अपनी बुद्धि व विवेक के द्वारा करते
हुए वह चीज़ों को दो वर्गों में बांटता है। एक वर्ग है – जड़, तथा दूसरा वर्ग
है चेतन ।
वे
सभी पदार्थ जो बढ़ते हैं, जिनमें गति है, जो साँस लेते हैं, भोजन पर निर्भर रहते हैं, उन्हें हम प्राय: चेतन वस्तुओं की श्रेणी में रखते हैं। दूसरी तरफ वे
पदार्थ, जिनमें न कोई गति दिखाई देती है, न जो भोजन पर निर्भर हैं, न बढ़ते हैं उन्हें हम जड़ पदार्थ कहते हैं । या कहते हैं कि उनमें
चेतना नहीं होती ।
किन्तु
इस मोटे विभाजन में भी यदि गौर से देखें तो जड़ता या चेतनता की मात्रा एक सी नहीं
होती । उदाहरण के तौर पर चेतन जगत की बात करते है । हमारे सामने कई तरह के चैतन्य
स्वरूप हैं । जमीन, जल और आकाश में रहने वाले चेतन
प्राणी । दिखाई देने वाले तथा दिखाई न देने वाले प्राणी । वानस्पतिक जगत के चेतन
प्राणी तथा जन्तु जगत के चेतन प्राणी । अत्यंत
सूक्ष्म जीवाणु जो हवा में या पूरे वायुमंडल में फैले हुए हैं जो आँखों से दिखाई
नहीं देते, जिनकी शारीरिक संरचना हमसे काफी अलग है, जैसे कि अमीबा नामका एक कोशीय सूक्ष्म जीवाणु । वह हमारी तरह नहीं मरता । बल्कि विभाजित हो
जाता है । इसी तरह समुद्र में पाए जाने वाले कुछ प्राणी, जो
वनस्पति तथा जंतुओं के बीच की अवस्था में हैं, उनमें से अनेक
में गति होती है तो कई एक ही जगह स्थिर रहते हैं । उनमे वनस्पतियों के गुण भी हैं तो जंतुओं के भी । वे
दोनों प्रकार के आहार ले सकते हैं। इसी तरह सामान्य
वनस्पति जगत है । वनस्पतियाँ भले ही जड़ों के कारण अपनी जगह पर ही स्थिर रहती हैं
(इसीलिए स्थावर कहलाती हैं ) किन्तु ऊपर
की दिशा में तो बढ़ती ही हैं । जमीन से जरूरी भोजन-पानी भी लेती ही हैं । और जब उन्हें
काटा जाता है तो वे चीखती चिल्लाती नहीं । काटे
जाने का विरोध किसी अन्य रूप में भी नहीं करतीं ।
जन्तु
जगत में स्थिति जरा अलग है । यहाँ प्राणी अपनी जगह से हिल डुल सकते हैं, उनमें इंद्रियाँ हैं, वे बोलते हैं, सुनते है, सूंघते हैं, देखते
हैं, स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं । वे काटे जाने का विरोध
चिल्ला कर, छटपटा कर, भाग कर, उड कर करते हैं । कुछ ऐसे भी जन्तु थे जो अपने काटे/मारे जाने का विरोध नहीं करते थे, जैसे डोडो पक्षी । इसीलिए वे इस दुनियाँ में अब नहीं रहे । ख़त्म हो गए ।
तो चेतन जगत में हम देखते हैं कि प्राणी
कहलाने वाले पदार्थों में चेतना की मात्रा अलग अलग है । यह चेतन तत्व ही जीवन का
आधार है । यही हमसे चेष्टा कराता है । तभी हम अपने भरण पोषण का प्रयास करते हैं ।
पशु की चेतना पेट भरने तक सीमित है । वह कल या परसों के लिए नहीं सोचता । जबकि मनुष्य
पेट भरने के बाद कल या परसों के बारे में भी सोचने लगता है । चेतना न होती तो हम पड़े रहते बरसों एक ही स्थिति
में । भूख मिटाने का प्रयास करते ही नहीं । शरीर पर यदि बाहर से कोई हमला होता तो उससे बचने
की कोशिश करते ही नहीं ।
कहने
का मतलब इतना ही है कि इस संसार में पदार्थों का विभाजन चेतना के स्तर के अनुसार
ही दृष्टिगोचर होता है । अत्यंत न्यून मात्रा में भी चेतना दिखाई पड़ती है तो
अत्यधिक मात्रा में भी चेतना के दर्शन होते हैं । मतलब कि चेतना न्यूनतम स्तर से
अधिकतम – सभी स्तरों पर मौजूद है । जब
चेतना बहुत कम होती है तो गतिविधियाँ भी बहुत
कम होती हैं। जिन्हें
हम कम चेतन जीव मानते हैं उनमें बाहरी जगत से जोड़ने वाली इंद्रियाँ या तो हमारे
जैसी होती ही नहीं, या फिर अनुभूति का कोई और
इंद्रियातीत माध्यम होता होगा । क्या हम
दावे के साथ कह सकते हैं कि अमीबा सोचता नहीं । या फिर अमीबा बाहरी जगत कोई संबंध
नहीं रखता ?
यह
बात हम दावे से इसलिए नहीं कह पा रहे कि इस विश्व के साथ जुड़ने की जैसी इन्द्रिय
युक्त प्रणाली मनुष्य शरीर में है वैसी जीवाणु जगत में नहीं है । जब अमीबा के पास
नाक ही नहीं है तो वह सूंघ कैसे सकता है ! बगैर कानों के शब्द को कैसे सुन सकता है
! बगैर जीभ के स्वाद का पता कैसे लगा सकता है। बगैर आँखों के देख कैसे सकता है !
बगैर शरीर के स्पर्श कैसे कर सकता है ! मतलब कि हमारी नजरों में अमीबा प्राणी जरूर
है किन्तु चेतना का स्तर उसमें मनुष्य की अपेक्षा बहुत कम है ।
लेकिन
एक दसवीं इंद्रिय भी मनुष्य में होती है- मन। यह सूक्ष्म इंद्रिय स्थूल तथा
सूक्ष्म जगत में समान रूप से व्याप्त हो सकती है । विश्व व्यापार से संपर्क के लिए
इसे किसी विषय की या किसी इंद्रिय की जरूरत नहीं होती । इसे न किसी भाषा की जरूरत
है, न अभिव्यक्ति के किसी अन्य स्वरूप की । मन के द्वारा सभी प्रकार के चेतन
पदार्थों से संयुक्त हुआ ज़ा सकता है चाहे ये चेतन पदार्थ दृश्य जगत में हों या
फिर अदृश्य जगत में । जी हाँ । यह मानने का हमारे पास कोई आधार नहीं है कि चेतन
पदार्थ केवल उसी विश्व में हैं जिसे हमारी इंद्रियाँ अनुभव करती हैं । हम मानते हैं
कि दृश्य प्रकृति में मनुष्य ही सबसे अधिक विकसित प्राणी है । अत: सबसे अधिक चैतन्य
भी वही हुआ । किन्तु यदि ऐसा है भी तब भी अदृश्य जगत में तो ऐसे चेतन जीवों का
अस्तित्व हो सकता है जो हमसे भी अधिक चैतन्य हों ।
प्रश्न
उठता है कि क्या सभी चेतन तत्वों में मन होता है ?
दर्शन
इस संबंध मे क्या कहते हैं, मैं नहीं जानता । पर यदि मुझे
अपनी अनुभूति या अपनी राय रखने की अनुमति मिल जाए तो मैं यही कहना चाहता हूँ कि
सभी चेतन प्राणियों में मन जैसा कोई सूक्ष्म संपर्क-सूत्र अवश्य होता है । यहाँ पर
मैं रूसी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक
प्रयोग का जिक्र करना चाहता हूँ । उन्होने
पानी के जहाज में एक मादा खरगोश को रखा । फिर एक पनडुब्बी में उसके बच्चों को लेकर
समुद्र की कई किलोमीटर गहरी सतह पर जाकर एक एक करके बच्चों को मारा । जितनी बार बच्चे
मारे गए ठीक उतनी बार बच्चों को मारे जाते वक्त मादा खरगोश के शरीर से जुड़े यंत्रों में भयानक
विक्षोभ देखा गया । जबकि पनडुब्बी तथा जहाज आपस में किसी भी माध्यम से जुड़े नहीं
थे।
क्या
यह प्रयोग इस बात का प्रमाण नहीं है कि कोई ऐसी संपर्क प्रणाली जरूर है, जिससे सभी चेतन
जीव आपस में जुड़े हुए हैं । हम किसी चिड़िया को पकड़ना चाहते हैं कि इसे मार कर खाएँगे, इसका मांस बड़ा स्वादिष्ट होता है । किन्तु वह चिड़िया हमें देखते ही उड़
जाती है । क्या वह चिड़िया हमारा संकल्प भाँप नहीं जाती ? जबकि
एक संत प्रकृति के व्यक्ति की गोद में चिड़िया खुद ही जाकर बैठ जाती है । क्या उसे
यह पता नहीं चल गया होता कि यह व्यक्ति मेरे प्रति अत्यंत प्रेम और करुणा तथा
समानता का भाव रखता है ? यह मुझे नहीं मारेगा ? कसाई जैसे ही
बकरे की ओर बढ़ता है, बकरा भयभीत होकर भागना चाहता है । क्या
वह जान नहीं चुका होता कि कसाई उसे मारने आ रहा है ?
गोश्त
की दुकानों के बाहर पिंजड़ों में बंद मुरगियाँ जब कसाई को अपनी ओर आते देखती हैं तो
फड़फड़ाने लगती हैं । पिंजरे में इधर से उधर भागने लगती हैं । और जब कसाई निर्ममता से
उन्हें पकड़ कर काटने की जगह ले जाने लगता है तो वे चीखने लगती हैं । क्या इससे पता
नहीं चलता कि वह जान चुकी होती हैं कि अब उन्हें काटा जाएगा ?
दरअसल मनुष्य शारीरिक
रूप से इस प्रकृति का सबसे अधिक सक्षम प्राणी है । इस नाते उसे इस दृश्य चेतन जगत
का सबसे बड़ा भाई माना जा सकता है । सबसे बड़े भाई का क्या कर्तव्य होता है, हम सभी जानते हैं । छोटों के साथ प्रेम का बर्ताव करना । उनके प्रति करुणा
का भाव रखना, उन्हें अपने शरीर का ही हिस्सा समझना, उनके दुख में दुखी तथा उनके सुख में सुखी होना । कोई ऐसा काम न करना
जिससे उन्हें परेशानी हो । पहले छोटों का ख्याल रखना, बाद में
अपनी चिंता करना । ऐसे ही कई फर्ज बड़े भाई होने के नाते हमारे होने चाहिएं । मुरगी मनुष्य के आगे शारीरिक रूप से बेबस है ।
वह उड़ेगी तो मनुष्य बंदूक से मार डालेगा । वह लाख बचना चाहे पर बच नहीं सकती ।
दुकानों में काटने के लिए लाए गए जानवर इंसान की ताकत के आगे कितने बेबस और लाचार
होते हैं – हम सब रोज अपनी आँखों से देखते हैं । सारे बाजार वह जानवर कट रहा है और
किसी में भी संवेदना पैदा नहीं होती कि वह उस जानवर को काटने से बचाए । पूरे मनुष्य
समाज ने जैसे यह मान लिया है कि मुरगियाँ, बकरे सुअर, गाय-बैल, भैंस कटने के लिए ही बने हैं ।
यही सोच चेतना का संकोच
है । हम सबके भीतर वह सूक्ष्म चेतना का स्पंदन होता जरूर है कि यह गलत हो रहा है, किन्तु विषय लोलुप इन्द्रियों की उद्दंडता के आगे हमारा चेतन तत्व पराजित
हो जाता है । जीभ का स्वाद उस क्षणिक स्पंदन से ज्यादा बलवान हो उठता है । हम मन ही
मन उस प्राणी को बचाने की जगह कोई तर्क खोजने लगते हैं, जैसे
कि इन्हें तो कटना ही है । इन्हें हम नहीं काटेंगे तो जंगल में जानवर खाएँगे, ये कटेंगे नहीं तो इनकी आबादी बहुत बढ़ जाएगी, वगैरह
वगैरह ।
हमारी चेतना को
हमारी इन्द्रियों के विषय फैलने से रोकते हैं । जीभ कहती है- कटने दो । थोड़ी देर ही
तो छटपटाएगा । फिर तो कवाब खाने को मिलेगा । वाह, क्या स्वाद है ? इसी
प्रकार अन्याय पूर्ण तरीके से अगर कहीं से धन मिल रहा हो तो एक बार जरूर महसूस
होगा कि यह धन नहीं लेना चाहिए । पर थोड़ी
देर बाद ही यह भाव आएगा कि इस पैसे से मैं एलसीडी टीवी क्यों न ले आऊँ । इससे प्लॉट
क्यों न खरीद लूँ । भविष्य को कुछ हद तक ही सही, पर सुरक्षित
क्यों न कर लूँ ।
हो गया न चेतना का
संकोच ! मैंने सिर्फ अपना फायदा देखा । उस आदमी का नुकसान नहीं देखा जो न जाने कहाँ
से उस पैसे को लाया होगा, जो न जाने कैसे उस उधार को
चुकाएगा । आपने यह जानने की कोई जरूरत नहीं समझी कि अपनी तमाम जरूरतों का गला घोंट
कर उस व्यक्ति ने कैसे वह तथाकथित सुविधाशुल्क जुटाया होगा ? ऐसी
परिस्थिति में वह आदमी खुशी से नहीं फंसा । उसे पता था कि बगैर वह धन लिए आप उसका
काम नहीं करेंगे ।
अगर मैं उस लाचार, बेबस आदमी के बारे में भी सोचता तो वह धन बिल्कुल न लेता । मेरी चेतना इन्द्रियों के विषयों के सामने बौनी हो गई । उसने आत्म समर्पण कर दिया । उसे हर
प्राणी के अंतस्तल तक विस्तारित होना था, पर वह देह में कैद
होकर रह गई । हर चेतन तत्व से आ रहे मानसिक संकेतों को सुनने की अपेक्षा मैंने अपना
रेडियो स्विच ऑफ कर दिया । जिस तरफ इंद्रियाँ ले गईं चेतना वहीं चल पड़ी ।अगर वह
चेतना आत्म तत्व से जुड़ती तो सारे ब्रह्मांड के चेतन जगत से उसका संबंध हो जाता ।
पर दुर्भाग्यवश वह इंद्रिर्यों के विषयों से जुड़ी तथा सीमित दायरे में कैद हो गई । आत्मवत
सर्व भूतेषु मेरा ध्येय होना चाहिए था, बड़ा भाई होने के नाते
। पर मैं तो छोटों को अपना गुलाम समझने लगा । यह मान बैठा कि ये सब छोटे मेरे उपभोग
के लिए बनाए गए हैं ।
कितनी तुच्छ सोच है ? कितनी व्यक्तिपरक सोच ! बड़ा भाई बनना था राम जैसा । बड़ा भाई बना बाली
जैसा । चेतना का प्रसार होना चाहिए था इस दृश्य और अदृश्य जगत के कण कण तक, पर वह चेतना तो कैद हो कर रह गई मांस के एक पिंजरे में । मेरे पास दोनों
विकल्प थे । मैं चाहता तो अनंत विस्तार दे सकता था चेतना को,
मैं चाहता तो कैद भी कर सकता था चेतना को पंचभौतिक शरीर में । संत कबीर दास की यह
उक्ति इस संदर्भ में कितनी सटीक बैठती है-
जल में कुंभ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी
।
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना बाहर भीतर पानी ॥
मैंने दूसरा रास्ता
अपनाया । अपने चेतन अस्तित्व के चारों तरफ आवृत चेतना के असीम, अनंत सागर को मैं अनुभव न कर सका ।
उस अनंत चेतना के बीच में रह कर भी मैं उससे असंपृक्त ही रहा । मेरे भीतर
जो चेतना थी वह भीतर ही रह गई । बाहर की विराट, अचिंत्य, अनंत, असीम चेतना से जुड़ ही नहीं पाई । कुएं के मेंढक की तरह अपनी
धारणाओं में, अपनी बनाई हुई मान्यताओं में कैद रहा ।
व्यक्तिपरक सोच में ही सारी उम्र जीता रहा । कभी पिंजरे का दरवाजा खुला भी रह गया
तो भी बाहर नहीं निकला । भीतर ही बैठा रहा । पिंजरे को ही घर समझने लगा । पर एक दिन
जब पिंजरा टूटा तो बेघर हो गया । मजबूरन उड़ने लगा मुक्त आकाश में । तब पता चला कि पिंजरे
के बाहर की दुनियाँ कितनी अच्छी , कितनी विशाल और कितनी
सुकून भरी है ! पाँच दुश्मनों ने मुझे कभी बाहर नहीं आने दिया । हमेशा पिजरे में
कैद रक्खा । ये पाँच दुश्मन थे काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार । इनके द्वारा रचे हुए झूठे
संसार में भ्रमण करते हुए कोल्हू के बैल की तरह एक छोटे से दायरे में घूमता रह
गया । मुट्ठी में बंद रेत की तरह सारा वक्त हाथ से फिसल गया । अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत !
बाहर आ कर पता चला कि
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं पिंजरे में हूँ या पिंजरे से बाहर हूँ । यह तो
मेरी अपनी बनाई हुई धारणा है। पिंजरे में
रहते हुए भी यदि मैं मानूँ कि मैं मुक्त हूँ तो वाकई मैं मुक्त हूँ । पाँच भूत
संघनित हुए । एक देह बनी और मुझे उसमें रहने के ;लिए भेज
दिया गया । उस देह में आ कर मैं तो भूल ही गया पिछली सभी बातें । उसी देह को सच मान
बैठा । उसे स्वस्थ, सुंदर, टिकाऊ बनाने
में ही सारा कीमती वक्त गँवा दिया । घड़े को लाख रंग रोगन से सजा दो, उसकी उम्र नहीं बढ़ सकती । उसकी नियति फूटना ही है । फिर क्यों सजाना ।
हाँ तो दो बातें है । या
पक्षी पिंजरे से निकलने का रास्ता खोज ले । वहाँ से बाहर निकल कर खुले आसमान में
खूब उड़े । फिर उसी रास्ते से वापस पिंजरे में आ जाए । या फिर पिंजरा टूटने का
इंतजार करे । यही दो रास्ते हैं पिंजरे से मुक्ति के । इन्हीं दो हालातों में पक्षी
आजाद हो सकता है ।
सांख्य दर्शन ने कहा कि
पाँच ज्ञानेन्द्रियों व पाँच कर्मेन्द्रियों का ताल्लुक बाहर के सीमित जगत से है ।
ये असीम जगत से जोड़ पाने में सक्षम नहीं हैं । अत: चेतना को इनसे जोड़ना बेकार है ।
बल्कि बेकार से भी आगे, नुकसानदायक है । इनसे जुड़ेगी
चेतना तो इनके विषयों से जुड़ेगी । इनके विषय हैं- रूप, रंग, रस गंध, स्पर्श । इन विषयों से संयोग होगा तो सुख
या दुख मिलेंगे । मिला तो सुख, न मिला तो दुख । न मिला तो पाने
की इच्छा होगी और यदि मिला तो और अधिक पाने की इच्छा होगी । फिर उन्हीं पाँच
दुश्मनों की बन आएगी जो भीतर ही छुपे हुए हैं- काम क्रोध लोभ मोह अहंकार । फिर ये
लपेट लेंगे ।
अत: चेतना को
इन्द्रियों के रास्ते विषयों के बियाबान जंगलों में नहीं जाने देना चाहिए । इन
इन्द्रियों का राजा है मन । मन के आगे है बुद्धि, बुद्धि
के आगे अहंकार और अहंकार के बाद है जीव या आत्म तत्व । तो चेतना को मन के सहारे
बुद्धि की तरफ ले जाओ । बुद्धि से सही मार्ग मिल जाएगा । उस मार्ग से मन के साथ चलो
तो अहंकार पर भी जीत हासिल हो जाएगी । अगर अहंकार को जीत लिया तो हो
गया काम ख़त्म । वही आत्म तत्व तो उस अनंत
असीम चेतन तत्व का प्रतिनिधि बन कर बैठा हुआ है चेतन देह में । उसी से भेंट हो गई
तो सारे संदेह, सारी दुविधाएँ दूर । एक ही क्षण में निकल आए
बाहर । जी भर कर उड़े उस अनत असीम आकाश में ।
फिर आ गए वापस पिंजरे में ।
सांख्य
दर्शन हमें सिद्धांत रूप में तो रास्ता बता देता है लेकिन तरीका नहीं बताता । कैसे
बाहर आना है, पहले क्या करें, फिर
क्या करें, और फिर आखिर में क्या करें- इन सवालों के जवाब तो
योगदर्शन ही दे पाता है । योगदर्शन कहता है- योगश्चित्त्वृत्ति निरोध: । चित्त की
वृत्तियों का निरोध ही योग है । प्रकृति के
साथ जब इन्द्रियों का संयोग होता है तो तीन प्रकार की वृत्तियाँ उत्पन्न हो सकती
हैं- सात्विक, राजसिक व तामसिक । इस त्रिगुणात्मक प्रकृति से इन्द्रियों का संयोग
द्वंद की स्थिति पैदा करता है । इस द्वंद से कैसे बचा जाए । कैसे चेतन तत्व(चित्त) मन से संयुक्त होकर बुद्धि की ओर बढ़े । फिर कैसे
बुद्धि और मन मिल कर अहंकार पर विजय प्राप्त करें । अहंकार को जीतता हुआ ज्यों ही
मन ऊपर उठता है, उसका संयोग जीवात्मा से हो जाता है । फिर मन, बुद्धि व अहंकार जीव के साथ मिल कर कैसे इस पंच भौतिक देह से बाहर निकल
जाते हैं । धारणा, ध्यान समाधि के अभ्यास से यह सूक्ष्म शरीर
(मन, बुद्धि अहंकार व जीवात्मा) पंचभौतिक देह से निकल कर अनंत
ब्रह्मांड में कैसे विचरने लगता है –इसका
तरीका पातंजल योगदर्शन में बताया गया है ।
सूक्ष्म
शरीर का अनंत ब्रह्मांड में विचरण वस्तुत: चेतना का ही विस्तार है । पंचभौतिक शरीर
में रहते हुए चेतना की जो सीमाएँ थीं, वे अब नहीं
रहीं । किन्तु गत अनेक जन्मों में जो कर्म किए गए थे, उनके
संस्कार अभी तक शेष हैं । वे संस्कार चेतना को पूरी तरह विराट रूप में नहीं आने देते । अत: चेतना के विराट ब्रह्म के साथ एकाकार हो
जाने के लिए यह जरूरी है कि गत जन्मों में किए गए कर्मों का पूरी तरह क्षय हो जाए ।
जब
ऐसी स्थिति आ जाती है तो चेतना प्रकृति के हर चेतन तत्व के साथ संयुक्त हो जाती
है । जब तक गुब्बारा फूटता नहीं तब तक उसकी गैस विशाल व विराट वायुमंडल से एकाकार
नहीं हो पाती । गुब्बारे के फूटते ही भीतर की हवा गुब्बारे से करोड़ों अरबों गुना
विस्तृत वातावरण में पूरी तरह मिल जाती है । चेतन तत्व का प्रसार तब जड़ तथा चेतन के कण कण मे हो जाता है । हर चेतन तत्व की अनुभूति उसे अपने भीतर होने
लगती है । हर प्राणी का सुख दुख उसे अपने भीतर अनुभव होने लगता है । तब न तो योनियों
की भिन्नता मायने रखती है और न भाषा की ही जरूरत रह जाती है । बगैर कहे ही विचारों
का आदान प्रदान होने लगता है । अर्थात न्यूरो कम्युनिकेशन । कहते हैं महावीर जैन
वनस्पतियों से बातें किया करते थे । देखा जाय तो प्रथम द्रष्ट्या यह बात बेतुकी लग
सकती है । वनस्पतियाँ हमारी तरह कैसे सोच सकती हैं, जब कि
उनके पास हमारे जैसा मुह नहीं है ।हमारी तरह सोचने को दिमाग नहीं है ।
किन्तु
गहराई में जा कर देखें तो यह बात सही लगती है । चेतना जब अत्यंत सूक्ष्म स्तर तक पहुँच जाती है तो समझना चाहिए कि सभी चेतन
तत्वों के साथ विचारों का आदान प्रदान किया जा सकता है । चाहे वह स्थावर (पेड़ पौधे
) हों या फिर जंगम । (क्रमश:
)
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