ये घुटने--




कभी बैठें न अबसे आप भी घुटनों के बल ।
ये घुटने टेकने के काम भी आने लगे हैं  ॥

हमें आज़ाद होने की जरूरत ही नहीं थी  ।
गुलामी के वो मंज़र आज फिर भाने लगे हैं ॥

आप उनके साथ हैं या फिर हमारे ।
बता ही दीजिये अब क्यों छिपाने में लगे हैं ॥

कभी फुर्सत मिले तो देख लेना एक पल ।
हमारे जख्म क्यों नासूर अब बनने लगे हैं ॥

ये कैसी रात है जो खत्म होने पर नहीं आती ।
उजाले बंद दरवाज़ों से टकराने लगे हैं ॥

जहां हम हार बैठे जिंदगी के दांव सारे ।
वो मैखाने हमें फिर याद क्यों आने लगे हैं ॥




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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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