इस शहर में ....




जिस तरफ भी देखिये बीमार पीले चेहरे ।
इस शहर में पेय जल सुविधा नहीं है ॥

जहां भी देखिये केवल मुखौटे दीखते हैं ।
यहां हर शख्श असली चेहरा ढांपे हुए है ॥ 

पराया मुंह लगा कर बोलते पाया उसे 
वो दुनियां भी पराई आंख से ही देखता है ॥

कयामत भी अगर आ जाए तो शरमाएगी ।
ये कैसे दौर से हमको गुजरना पड़ रहा है ॥

पुलों  को तोडना फिर जोड़ना है शौक उनका ।
हमारी जान  का यह शौक दुश्मन हो गया है ॥

तोड़ने और जोड़ने के इस सियासी खेल में 
शहर में जलजले का खौफ पैदा हो गया है ॥    

क्या कोई बीमा करेगा उस फसल का ।
जिसे खूंखार सांड़ों का बड़ा गुट चर रहा है ॥

बताते हैं यहां कल तक इबादत भी हुई थी
मगर अब ये लुटेरों का ठिकाना हो गया है ॥

सड़क पर दूर तक फैला हुआ ताजा लहू ।
भरोसे के तड़पते जिस्म से निकला हुआ है ॥


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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