पश्चिमी
इतिहासकारों व पुरातत्वशास्त्रियों का मानना है कि सिंधु घाटी मे रहने वाले लोग
वैदिक नही थे. उनकी त्वचा श्याम वर्ण की
थी. जबकि मध्य एशिया से आकर उन्हे हराने वाले आर्य गौर वर्ण के थे उनकी नाक लम्बी
व ऊंची थी. चेहरा अंडाकार था. उनका कद भी ऊंचा था.
लेकिन
हड़प्पा व मोहेंजोदारो आदि स्थलों की जलवायु ऐसी नहीं है कि वहां रहने वालों का रंग
काला हो जाय. यहां हिंदूकुश की पहाड़ियां हैं जो मध्य एशिया से आने वाली गर्म हवाओं
को रोक लेती हैं. दूसरे अरब सागर व कच्छ की खाड़ी से उठे मानसूनों से यहां मई -जून
मे प्री मानसूनी बारिश भी होती है. हिमालय से तथा उत्तरी भूभागों कजाकिस्तान
ताजिकिस्तान रूस आदि क्षेत्रों से आने वाली ठंडी खुश्क हवाएं भी यहां के मौसम का
मिजाज बिगड़ने नही देतीं. हजारों वर्षों से यहां रहने वाले लोगों का रंग फिर काला
नहीं होना चाहिए. हां वह सांवला या गेहुआं हो सकता है.
![]() |
नृत्यांगना की कांस्य प्रतिमा |
आचार्य
चतुरसेन के उपन्यास “वयं रक्षाम” को भले ही ऐतिहासिक ग्रंथ नही माना जा सकता किंतु
इस उपन्यास मे रामायण के कथानक को जिस ऐतिहासिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है
उसमे शत प्रतिशत सच्चाई न भी हो तो भी विषय वस्तु वास्तविकता के काफी करीब है. इस उपन्यास मे एक स्थान पर
कहा गया है कि उत्तर भारत को रक्ष संस्कृति के अंतर्गत लाने के लिए वह विजय अभियान
पर निकला था. संभवत: वह भारत के उत्तर- पश्चिमी भाग तक पहुंचा था जहां मोहेंजोदारो
तथा हडप्पा जैसी विकसित नगर सभ्यताएं फल फूल रही थीं. वहां के निवासी श्याम वर्ण
के थे तथा वैदिक परंपराओं को मानते थे.
उनके ईष्ट या तो पशुपति थे या फिर मातृ देवी. हर नगर एक स्वतंत्र राज्य था. सिंधु
सरस्वती नदियों के तटों पर ऐसे अनेक नगर राज्य थे.
रावण ने वहां कोई
सैन्य अभियान चलाया हो – इसका जिक्र आचार्य ने नही किया
है. इसका मतलब यह हो सकता है कि वहांं रहने
वाले लोगों का संबंध किसी न किसी रूप मे दक्षिण भारत से रहा होगा. रावण भी शिव
भक्त था. ये नगरवासी भी शिव उपासक थे
तो
क्या सिंधु सरस्वती सभ्यता के वे श्याम वर्णी लोग दक्षिण से आए थे ? या फिर किसी अन्य मार्ग से ?
अगर लुमेरिया नामक द्वीप मेडागास्कर से जुड़ा था तो निश्चय ही
अफ्रीका तक आना जाना भी लुमेरिया वासियों के लिए आसान रहा होगा. वैसे भी सारे
अफ्रीका महाद्वीप पर दैत्यों का राज्य था रावण के नाना सुमाली एक प्रसिद्ध दानव
सम्राट थे. दानवों का वर्ण दैत्यों की अपेक्षा कुछ कम श्याम या कह सकते हैं कि
गेहुआं था. दानवों के पूर्वज वानरों की उस प्रजाति से भिन्न थे जो आज हब्शी व
नीग्रो के रूप मे अफ्रीका महाद्वीप मे पाए जाते हैं. दानव पुत्री मंदोदरी को
रामायण मे गौरवर्णी व सुंदर बताया गया है. वह मय नामक असुर की पुत्री थी. मय दानवों का आदि निवास मायामी (अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत) मे माना जाता है. वे मायन सभ्यता के जनक तथा शिल्प शास्त्र मे पारंगत माने जाते थे. भरत खंड मे उनका उपनिवेश मेरठ था जो उस समय मय राष्ट्र कहलाता थ
प्रतीत होता है कि दानव धीरे धीरे आदित्यनगर
(अदन) होते हुए सारे अरब प्रदेश मे फैले वहीं उनके गुरु शुक्राचार्य ने शिव मंदिर
बनवाया था जहां वह स्वयं निवास करते थे . अरब से होते हुए
दानव पूरब की ओर बढ़े जहां हिंदूकुश पार करके वह सप्त सिंधु के उपजाऊ, शस्य श्यामल जल व वनस्पतियों से परिपूर्ण प्रदेश मे पहुंचे. फिर धीरे धीरे
वे वहां उपनिवेश बनाने लगे. नगर आधारित सिंधु
सभ्यता गणतांत्रिक प्रकृति की
प्रतीत होती है . यही कारण था कि दानवों के भारी संख्या मे वहां बस जाने पर भी कोई
रोक नही लगाई जा सकी. जब उनकी जन संख्या बढ़ने लगी तो मूल निवासियों के साथ उनके
सत्ता संघर्ष आरंभ हो गए जिन्हे देवासुर संग्राम के रूप मे हम ऋग्वेद मे पाते हैं.
सभी नगरों के शासकों तथा गण्यमान
व्यक्तियों द्वारा सभी नगर सभ्यताओं का एक शासक चुना जाता था जिसे वेदों मे इंद्र
कहा गया है. ऐसी लचीली प्रशासनिक व्यवस्था मे बाहर से आय लोग भारी संख्या मे
एक्रोपोलिस तथा मिडल टाउन के बाहर परकोटे विहीन विस्तृत भूभाग मे बसते चले गए. जब
उन प्रवासियों ने राज्य सत्ता हथियाने का
प्रयास किया तब जाकर देवों के कान खड़े हुए . फिर तो इंद्र के सेनापतित्व मे देवों
का उन दानवों से अनेक बार युद्ध हुआ . जैसा कि वेद बताते हैं हर बार युद्ध मे
दानवों की जीत होती थी . किंतु छल बल के लिए प्रसिद्ध इंद्र अंतत: खोया हुआ राज्य
पा जाते थे. भले ही उन्हे दुर्गों को तोड़ना पड़ा
हो.
![]() |
सिंधु सरस्वती सभ्यता के प्रमुख उत्खनन स्थल |
ऊपर
दिखाए गए चित्र मे श्रीलंका तथा भारत को एक बड़े महाद्वीप से जुड़ा दिखाया गया है.
यह द्वीप मेडागास्कर तथा आस्ट्रेलिया से जुड़ा था.
तमिल साहित्य मे इस द्वीप को कुमारी कंदम कहा गया है. तमिलनाडु के लोक गीतों व लोक कथाओं मे भी आज तक इसका उल्लेख आता है. कहा गया है कि यही महाद्वीप तमिल संस्कृति का जन्म स्थल था . यह संस्कृति भारत की संस्कृति से भी पुरानी थी.
![]() |
विभिन्न प्रजातियों के मूल निवस स्थान |
![]() |
कुमारी कंदम महाद्वीप |
तमिल साहित्य मे इस द्वीप को कुमारी कंदम कहा गया है. तमिलनाडु के लोक गीतों व लोक कथाओं मे भी आज तक इसका उल्लेख आता है. कहा गया है कि यही महाद्वीप तमिल संस्कृति का जन्म स्थल था . यह संस्कृति भारत की संस्कृति से भी पुरानी थी.
लगता
है कि दानव वस्तुत: कुमारी कंदम या लुमेरिया द्वीप के ही निवासी थे जो घूम कर पुन:
भारत के पश्चिमोत्तर तक जा पहुंचे थे.
भूगर्भ
शास्त्रियों ने भी इस बात को सही माना है कि हजारों वर्ष पहले हिंद महासागर मे एक
बड़ा भूभाग था जो जलमग्न हो गया था. वर्तमान तमिल संस्कृति उसी का अवशेष है.
सिंधु
घाटी का समूचा क्षेत्र 650 N
से 750 E
के बीच पड़ता है. यहां औसत तापक्रम 16 0 से 350
के बीच रहता है . भले ही अब ग्लोबल वार्मिंग की वजह से यह बढ़ गया है.
लेकिन दो तीन महीने बाद फिर तापक्रम गिर जाता है. इसीलिए त्वचा पर स्थाई प्रभाव
नही पड़ता.
निष्कर्ष
यह निकलता है कि इस प्रदेश मे जो लोग शुरू से रहते आ रहे थे वे गहरे श्याम न हो कर
गेहुएं रंग के थे.
अब
यहां पर विरोधाभास दिखाई पड़ता है. भारतीय परंपराके देवों व अवतारों के त्वचा के
रंग के बारे मे जानकारी मिलती है कि विष्णु का वर्ण श्याम था. जबकि ब्रह्मा तथा
शिव गौर वर्ण के थे . शिवजी का वर्ण कपूर के समान गौर बताया गया है (...कर्पूर
गौरं करुणावतारं संसार सारं भुजगेंद्रहारं..)
भगवान
राम भी विष्णु अवतार माने जाते है . उनका वर्ण भी नीला अर्थात श्याम था (,,नीलांबुज श्यामल कोमलांगं..) इसी
प्रकार कृष्ण जी भी विष्णु अवतार माने जाते हैं . उनका वर्ण भी श्याम था. उनका
तो नाम ही श्याम व कृष्ण पड़ गया था.
तो
क्या इन अवतारी पुरुषों का रक्त विदेशी था ? श्री
कृष्ण का जन्म ऐतिहासिक साक्ष्यों आधार पर लगभग 1555 ईसा पूर्व के आस पास बैठता है.
उनकी आयु 120 वर्ष बताई गई है. महाभारत
युद्ध के 36 वर्ष बाद उनकी मृत्यु हुई थी. अत: ईसापूर्व 1471 मे उनकी आयु 120-36 = 84
वर्ष थी . अत: उनका देहांत लगभग 1387 ईसापूर्व तथा जन्म लगभग 1555 ईसा पूर्व मे हुआ था.
सिंधु घाटी के लोग यदि सांवले थे तो भी वही लोग वैदिक
व उत्तर वैदिक सभ्यता के जनक सिद्ध होते हैं. महाभारत ग्रंथ के रचयिता कृष्ण
द्वैपायन व्यास के नाम मे ही उनके जन्म का पूरा संकेत छुपा है . यमुना के बीच एक
द्वाप पर जन्म होने से वह द्वैपायन तथा कृष्ण वर्ण होने के कारण कृष्ण कहलाए. वेदों का पुन: भाष्य
करने से वेदव्यास कहलाए. उनकी माता सत्यवती एक धीवर कन्या थी जिसके शरीर से मछली
की गंध आने से वह मत्स्यगंधा भी कहलाती थी. व्यास कृष्ण वर्ण के थे अत: या तो उनके
पिता महर्षि पराशर कृष्ण थे या फिर माता
सत्यवती.
प्रतीत
होता है कि कुछ महापुरुषों का वर्ण यदि
कृष्ण था तो वह अवैदिक सिद्ध नही किये जा सकते.
इसी
प्रकार गोरी चमड़ी वाले सभी लोग आर्य रहे हों यह भी जरूरी नहीं है. शक,
कुषाण, हूण, यवन आदि
अनेक विदेशी गोरे रंग के थे लेकिन इनके काले कारनामे इतिहास पढ़ने वाला हर व्यक्ति
जानता है. ये लोग अत्यंत बर्बर, अत्याचारी व क्रूर प्रकृति के
थे . इनका जीवन दर्शन नितांत भौतिकवादी था . ये अशिक्षित युद्ध प्रिय व कबीलाई
मानसिकता वाले थे. इसलिए चमड़ी के रंग के आधार पर किसी को श्रेष्ठ मान लेना भारी
भूल होगी.
चमड़ी
का रंग केवल निवासी के रहने की जगह के जलवायु को दर्शाता है. उत्तरी ध्रुव से नीचे
400 उत्तर मे तापक्रम 200
से -400 या उससे भी कम रहता है अत: धूप न होने से
उनकी त्वचा का रंग लाल या सफेद बना रहता है.
जलवायु का प्रभाव डील डौल कद काठी पर भी देखा जाता है. इन शीत इलाकों के
लोग प्राय: ऊंची कद काठी के तथा अच्छे डील डौल के होते हैं. सरदी से बचने के लिए
जीवन शैली मे अतिरिक्त सक्रियता की वजह से यह परिवर्तन आता है.
एक
तर्क यह भी दिया जाता है कि सूर्य वंशी व चंद्रवंशी राजा लोग बाहर से आए थे . इस
हिसाब से उनका रंग गोरा होना चाहिए. किंतु सूर्यवंशी राम तथा चंद्रवंशी कृष्ण
सांवले क्यों थे ?
प्राचीन
सुमेरियन साहित्य मे ‘मेलुहा’ शब्द आया है. मेलुहा सुमेरिया के दक्षिण पूर्व मे रहते थे . सुमेरिया से
उनका व्यापार विनिमय होता था. यह माना जा रहा है कि मेलुहा इराक- ईरानके आस पास
रहते थे . उनकी लिपि और सिंधु लिपि मे काफी समानता थी. मान्यता है कि ये मेलुहा
(इलामाइट) ही अपने इलाके से भगाए जाने पर सिंधु सभ्यता वाले क्षेत्रों मे आ बसे
होंगे. सुमेरियन ग्रंथों मे उल्लेख है कि मेलुहा काले थे.
ये
मेलुहा शायद अफ्रीका महाद्वीप के मूल निवासी रहे होंगे जो दानवों द्वारा भगाए जाने
पर दज़ला फरात नदियों के आस पास बसे होंगे. वहां से भी जब उन्हे भगाया गया तो वे
पूरब की ओर आए और अंतत: सिंधु सभ्यता वाले इलाके मे आ बसे.
लेकिन
यहां भी देवों से हार कर समुद्र मार्ग या स्थल मार्ग से दक्षिण मे जाकर बस गए
हों. मोहेंजोदारो मे पुजारी की जो
प्रतिमा मिली है उसके होंठ मोटे हैं. मूल प्रतिमा श्याम वर्ण की है. अफ्रीका के मूल निवासियों के होंठ भी मोटे होते हैं.
अत: निष्कर्ष यह निकलता
है कि कृष्ण वर्ण के लोगों ने कुछ काल के लिए सिंधु सभ्यता वाले क्षेत्र मे शासन किया अवश्य लेकिन वे वहां के मूल निवासी नहीं थे. मूल निवासी वही थे जो आज भी वहां
रहते हैं . (समाप्त)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें