सूचना प्रौद्योगिकी के ज़रिये आज सूचनाओं का संकलन,
प्रेषण,व प्रसारण बहुत आसान हो गया है. भारत के पहले, व सफल चन्द्रयान मिशन
का-प्रक्षेपण स्थल से सीधा प्रसारण इसका प्रमाण है कि अब सूचनाओं के संकलन, प्रेषण
व प्रसारण में समय नहीं लगता.वे 'लाइव'
प्रसारित होती हैं. हिन्दी मीडिया पर भी यह बात ठीक उसी तरह लागू होती है, जैसी
अन्य भाषाओं पर. हिन्दी भारत के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा तो है
ही, साथ ही यह भारतीय गणतंत्र की राजभाषा भी है. केन्द्र सरकार के सारे कामकाज
इसमें ही होते हैं.
सूचना
(information) क्या है :- किसी भी भौतिक राशि
को उसके परिमाण (magnitude) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है.यह परिमाण अंकों
द्वारा ही व्यक्त हो सकता है. इन अंकों को ही आँकड़े(डाटा) कहा जाता है। आंकड़ों के
प्रसंस्करण से हमें जो जानकारी मिलती है, उसे हम सूचना कहते हैं.
और इन सूचनाओं से मानव मस्तिष्क जो निष्कर्ष निकालता है, उसे ज्ञान कहते हैं।
उदाहरण के लिए यदि हम किसी दिन का तापक्रम नोट
करें तो यह अंक आंकड़ा(Data) कहलाएगा । साल भर तक
हर दिन का तापक्रम नोट करते जाएं तो हमें
यह जानकारी मिलती है कि मई-जून में दिन का
तापमान सबसे अधिक तथा नवंबर-दिसंबर में सबसे कम होता है. इस जानकारी को सूचना(Information) कहेंगे। और इस सूचना से मानव मस्तिष्क यह
निष्कर्ष निकालता है कि जिन महीनों मे ये आंकड़े ज्यादा हों, तब गरम कपड़े नहीं पहनने चाहिए। यह निष्कर्ष
ज्ञान (knowledge) कहलाता है।
सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology) :- मशीन की सहायता से आँकड़ों का प्रसंस्करण करके जब
मानव कुछ सूचनाएँ प्राप्त करता है तो वह इन सूचनाओं को अन्य जरूरत मंदों तक भी
पहुँचाना चाहता है। सूचनाओं को एक जगह से दूसरी जगह तक मशीनों की सहायता से
पहुँचाने के लिए आज मानव ने एक अभियांत्रिकी की शाखा विकसित कर ली है। सूचनाओं (informations) के प्रसंस्करण(processing), भंडारण(storage) व संप्रेषण(communication) में प्रयोग होने वाली तकनीक को सूचना प्रौद्योगिकी कहा जाता है। सूचना प्रौद्योगिकी के मुख्यत: दो भाग हैं :
कंप्यूटर( computer) तथा संचार तंत्र ( communication system)।
कंप्यूटर : जब से मानव जाति ने बस्तियां बसा कर रहना शुरू
किया, तभी से उसे विचारों के आदान प्रदान के लिए एक माध्यम की जरूरत महसूस होने लगी. ये माध्यम
शुरू में संकेतात्मक थे, फिर चित्रात्मक हुए, और अंत में पुन: ऐसे संकेत-समूहों
में तब्दील हो गए, जिनकी एक निश्चित ध्वनि थी. इन्हीं ध्वन्यात्मक संकेत समूहों को
हम किसी भाषा की वर्णमाला कहते हैं.
भाषा के विकसित हो जाने से मानव जाति की विकास प्रक्रिया एकाएक बहुत तेज़ हो
गई. अभिव्यक्ति-न केवल आसान हुई, बल्कि
सुव्यवस्थित भी हो गई. अभिव्यक्ति की इसी सरलता से बाजार की अवधारणा विकसित हुई. बाज़ार- अर्थात वह
जगह जहां मानव समूह अपनी जरूरतों के अनुसार वस्तुओं का विनिमय कर पाता था. शुरू में विनिमय वस्तुओं तक ही सीमित था, और
बाज़ार मे वस्तु के बदले वस्तु के लेन
देन वाले इस बंदोबस्त को बार्टर
सिस्टम कहा जाता था। किंतु इस प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह था कि जिसके पास कोई
वस्तु नहीं थी, वह बाजार से अपनी जरूरत की वस्तु नहीं ले पाता था. तभी संभवत: मानव
को मुद्रा(करेंसी) जैसे माध्यम की जरूरत
पड़ी।
मुद्रा के साथ हिसाब-किताब भी जुड़ा था. इसके लिए अंकों
तथा गणितीय प्रक्रियाओं- जैसे जोड़, घटाव, गुणा, भाग का विकास हुआ. विकास के आरंभिक
दौर में हिसाब किताब के लिए जिस उपकरण का विकास हुआ, उसे अबेकस कहा जाता है. ईसा से भी पहले के अनेक अबेकस विश्व की प्राय:
सभी विकसित सभ्यताओं में पाए गए हैं.
इसके बाद लगभग अठारहवीं शताब्दी मे यूरोप में यांत्रिक गणकों
(मेकनिकल काउंटर्स) का आविष्कार हुआ. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब
इलेक्ट्रॉनिक्स का विकास होने लगा तो हिसाब किताब की जरूरत उस मशीन से पूरी होने
लगी, जिसे हम आधुनिक कंप्यूटर का पूर्वज कह सकते हैं. अत: वह इलेक्ट्रॉनिक
मशीन, जिसके
द्वारा शब्दों व अंकों का संसाधन किया जा
सके- मोटे तौर पर कंप्यूटर कहलाती है.
इस प्रकार आज का कंप्यूटर मानव सभ्यता के एक दीर्घकालीन परिश्रम का परिणाम
है. बीसवीं शताब्दी में कंप्यूटर
प्रौद्योगिकी में बहुत तेज़ी से विकास हुआ. इस विकास गाथा का सूक्ष्म अवलोकन किये बगैर हम वर्तमान कंप्यूटर के
स्वरूप को नहीं समझ सकते. विकास की दृष्टि
से कंप्यूटरों को मुख्य रूप से हम
चार पीढ़ियों
में बांट सकते हैं:
पहली पीढ़ी के कंप्यूटर ( 1940 से 1956) : पहली पीढ़ी के कंप्यूटर डायोड,
ट्रायोड, पेंटोड आदि वाल्वों की मदद से बनाए गए थे. इन
कंप्यूटरों का आकार काफी बड़ा होता था. इनमें विद्युत ऊर्जा की भी बहुत खपत होती थी.
इनमें मशीन लैंग्वेज में ही प्रोग्रामिंग हो सकती थी. इन्हें ठंडा रखने के लिए बड़े
बड़े एअर कंडीशनरों की जरूरत पड़ती थी. इनमें बिजली की खराबियां भी ज़्यादा होती थीं.
इनमें दूसरी दिक्कत ये थी कि ये इलेक्ट्रॉनिक वाल्व बहुत गरम हो जाते थे. गर्मी की
निकासी का उचित प्रबंध न होने से ये जल्दी खराब हो जाते थे. इस पीढ़ी के प्रमुख
कंप्यूटर थे- (क). एनिएक(ENIAC)- इलेक्ट्रॉनिक नुमेरिकल इंटीग्रेटर एंड कंप्यूटर,(ख). एडवैक (EDVAC)-
इलेक्ट्रॉनिक डिस्क्रीट वेरिएबल औटोमेटिक कंप्यूटर,(ग). यूनीवैक(UNIVAC)-
यूनीवर्सल औटोमेटिक कंप्यूटर,(घ). आइबीएम 701- इंटरनेशनल बिजनेस मशीन 701. इन कंप्यूटरों का रखरखाव बहुत
पेचीदा था. खराब होने पर इनकी त्रुटियां खोजने में महीनों लग जाते थे. 1945 में
ग्रेस हूपर नाम के एक प्रोग्रामर ने देखा कि उसकी मशीन चलते चलते एकाएक रुक गई है.
उसने कई महीने तक एक एक रिले, वाल्व व तार की जांच की. मालूम हुआ कि एक रिले के
भीतर एक कीड़े(bug) ने घोंसला बना लिया था. घोंसले को हटाते ही, यानी डिबग्गिंग
(Debugging) करते ही कंप्यूटर काम करने लगा. तबसे डिबग्गिंग शब्द
कंप्यूटर शब्दावली में स्थाई रूप से जुड़ गया. इसका अर्थ हो गया- कंप्यूटर में आई
रुकावट हटाना. पहली पीढ़ी का सबसे चर्चित व सफलतम कंप्यूटर था-आइबीएम 701.
दूसरी पीढ़ी के कंप्यूटर (1956 से
1963 ) :
दूसरी पीढ़ी की शुरूआत हुई ट्रांजिस्टर
की खोज से. पहली पीढ़ी में निर्वात ट्यूबों के गर्म होने की समस्या इनके प्रयोग से
खत्म हो गई. एक और फायदा हुआ. पहली पीढ़ी के कंप्यूटरों में मशीन लैंग्वेज(machine language) का प्रयोग होता था,
जबकि दूसरी पीढ़ी के कंप्यूटरों में असेंबली लैंग्वेज (assembly language) का प्रयोग
होने लगा. जटिल होते हुए भी असेंबली लैंग्वेज बाइनरी कोड पर आधारित मशीन लैंग्वेज की अपेक्षा सरल
थी. इस पीढ़ी के कंप्यूटरों में प्रिंटर,
डिस्क स्टोरेज तथा ऑपरेटिंग सिस्टम्स जैसी अनेक
सुविधाओं का प्रयोग भी संभव हो गया. कंप्यूटर निर्देशों(प्रोग्रामों) को कंप्यूटर
की कोर मेमोरी में सुरक्षित रखना दूसरी पीढ़ी के कंप्यूटरों में संभव
हो गया. इनमें उच्च स्तरीय भाषाएं (High
level languages) जैसे COBOL(common
Bussiness Oriented Language), तथा
FORTRAN (Formula
Translation) का भी प्रयोग होने लगा.
तीसरी पीढ़ी
के कंप्यूटर (1964 से 1971) :
इस पीढ़ी के कंप्यूटरों की सबसे बड़ी विशेषता थी- इनमें इंटीग्रेटेड
चिप्स (IC) का प्रयोग.
इस चिप की खोज 1958 में जैक किल्बी ने की थी. पहली पीढ़ी की निर्वात ट्यूबों को
दूसरी पीढ़ी के ट्रांजिस्टरों से बदलने पर कंप्यूटरों का आकार तो काफी घटा,
लेकिन ट्रांजिस्टरों में भी निर्वात
ट्यूबों का एक दोष बाकी बचा रह गया. ये भी गर्म होकर खराब हो जाते थे. इसी समस्या
का हल करने के लिए चिप्स का प्रयोग किया
गया. चिप दरअसल क्वार्ट्ज़ से बनी एक छोटी सी सिलिकॉन डिस्क होती है, जिसमें पर
ट्रांजिस्टर आदि छोटे छोटे इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट्स फिट किये होते हैं. तीसरी पीढ़ी
के कंप्यूटरों में ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर का प्रयोग भी संभव हुआ, जिससे
कंप्यूटर पर एक साथ कई गतिविधियां चलाना संभव हो गया.इनमे पावर की खपत बहुत कम थी. इनमे एसएसआइ(SSI)व एमएसआइ(MSI) तकनीक का प्रयोग हुआ. उच्चस्तरीय कंप्यूटर भाषाएं भी
इसी पीढ़ी मे प्रयोग होने लगीं ।
चौथी
पीढ़ी के कंप्यूटर ( 1971 से अब तक ) :
इस पीढ़ी के कंप्यूटरों मे लार्ज स्केल
इंटीग्रेशन(LSI) व वेरी लार्ज
इंटीग्रेशन(VLSI)तकनीक का इस्तेमाल किया गया. पोर्टेबल
कंप्यूटरों(लैपटॉप) का विकास हुआ. डेटा भंडारण के लिए RAID तकनीक का भी विकास हुआ. ये
कंप्यूटर वर्चुअल रिअलिटी, मल्टीमीडिया व सिमुलेशन में भी प्रयोग
हुए. डेटा संचार के लिए भी इन कंप्यूटरों का प्रयोग शुरू हुआ. इन कंप्यूटरों में अलग अलग तरह की मेमोरीज़
का प्रयोग भी हुआ, जिन्हें जिन्हें बहुत तेज़ गति पर भी इस्तेमाल
किया जा सकता था. इनकी स्टोरेज क्षमता भी बहुत ज़्यादा थी.
पांचवीं
पीढ़ी के कंप्यूटर ( वर्तमान और उससे आगे) ( कृत्रिम बुद्धिमत्ता) : इस पीढ़ी के कंप्यूटरों मे समांतर संसाधन( parallel processing) संभव हुआ। इनमें अतिचालकों(superconductors) का प्रयोग भी किया जाने लगा है.
इनका प्रयोग ध्वनि पहचानने(voice recognition, बुद्धिमान रोबोट(intelligent
Robot) बनाने तथा कृत्रिम
बुद्धिमत्ता(Artificial Intelligence) में भी इनका प्रयोग
किया जा रहा है.
सूचना का आंकड़ों मे कैसे बदलती है : सबसे पहले कोई सूचना
इलेक्ट्रॉनिक संकेत में बदली जाती है.इसे एनालॉग सिग्नल कहते हैं. यह सिग्नल
इन्पुट के रूप में कंप्यूटर को दिया जाता है . ‘एनॉलॉग टु डिजिटल कनवर्टर’ (ADC), नामक माइक्रोप्रोसेसर की मदद से
यह डिजिटल सिग्नल मे बदल दिया जाता है. डिजिटल सिग्नल मे केवल दो स्थितियां होती
हैं- या तो आंकड़ों का मान शून्य होता है, या फिर अधिकतम होता है. इसमे बीच का कोई
मान नहीं होता. इन दो अवस्थाओं को ‘शून्य’ (0) तथा ‘एक”(1) से व्यक्त किया जाता है. द्विपदी बीजगणित ( Binary algebra) की सहायता से अब
डिजिटल संख्याओं का परिमाण दशमलव संख्याओं(Decimal Numbers) में बदल दिया जाता
है. इस प्रकार कंप्यूटर किसी भी एनॉलॉग विद्युतीय संकेत को संख्या के रूप मे हमारे
सामने प्रस्तुत कर देता है.
सूचना संचार( Information Communication) : - इस प्रकार मिली सूचनाओं को अब एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर
तक पहुंचाना ही सूचना संचार है. दूसरे
शब्दों में कह सकते हैं कि सुदूर स्थानों पर स्थित दो सूचना केन्द्रों (
कंप्यूटरों) में सूचनाओं का जो आदान प्रदान विभिन्न संचार माध्यमों से होता है, उस
पूरी प्राविधि को सूचना संचार कहते हैं.
सूचना संचार के लिए आइएसओ
(इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ स्टैंडर्डाइजेशन) ने एक मॉडल तैयार किया है, जिसे ओएसआइ
मॉडल कहते हैं.इसका अर्थ है- ओपन सिस्टम इंटरकनेक्शन.
ओएसआइ मॉडल का संक्षिप्त इतिहास: 1978 में आइएसओ
(इंटरनेशनल ऑरगनाइजेशन ऑफ स्टैंडर्डाइजेशन) द्वारा सेवन लेयर्ड नेटवर्क आर्कीटेकचर
ओएसआइ पर काम शुरू हुआ. सात परत वाले इस मॉडल का विचार हनीवेल कंप्यूटर के चार्ल्स
बैकमैन ने दिया. आर्पानेट(एडवांस रिसर्च प्रॉजेक्ट एजेंसी नेटवर्क) पर काम करते हुए जो अनुभव वैज्ञानिकों को हुए वे
इस मॉडल को विकसित करने मे बहुत काम आए. इस
मॉडल में नेटवर्किंग सिस्टम को परतों में विभाजित किया गया है. हर परत में एक या
अधिक क्रियाएं होती रहती हैं. हर क्रिया अपने से नीचे वाली परत के साथ सीधे सीधे
अंत:क्रियाशील रहती है. साथ ही अपने से ऊपर की परत को सभी जरूरी सुविधाएं प्रदान
करती है.
ओएसआइ मॉडल
|
||||
हॉस्ट लेयर
|
डेटा यूनिट
|
लेयर संख्या
|
लेयरका नाम
|
फंक्शन
|
डेटा
|
7
|
अप्लीकेशन
|
अप्लीकेशन के
लिए नेट्वर्क प्रॉसेस
|
|
6
|
प्रेज़ेंटेशन
|
डॆटा का
प्रेज़ेंटेशन, एंक्रिप्शन, डीक्रिप्शन
|
||
5
|
सेशन
|
इंटरहॉस्ट
कम्म्युनिकेशन
|
||
सेगमेंट
|
4
|
ट्रांसपोर्ट
|
एंड टु एंड
कनेक्शन व विश्वसनीयता, बहाव पर नियंत्रण
|
|
मीडिया लेयर
|
पैकेट
|
3
|
नेटवर्क
|
डेटापथ का
निश्चयन, तथा तार्किक एड्रेसिंग
|
फ्रेम
|
2
|
डेटा लिंक
|
भौतिक
एड्रेसिंग
|
|
बिट
|
1
|
भौतिक
|
मीडिया,
सिग्नल तथा बाइनरी संप्रेषण
|
अब
हम प्रत्येक परत के बारे में संक्षेप में जानकारी देना चाहेंगे.
परत
1. भौतिक परत (Physical Layer)-
इस परत में सूचना संचार में काम आने
वाले उपकरणों के भौतिक स्पेसिफिकेशनों की व्याख्या की जाती है. डिवाइस तथा भौतिक
माध्यम के अंतर्संबंध भी इस परत में आते हैं. जैसे कि इस्तेमाल होने वाली पिनों का
लेआउट, वोल्टेज, केबल के स्पेसिफिकेशन, हब, नेटवर्क अडाप्टर, हॉस्ट बस अडाप्टर,
आदि. भौतिक परत के प्रमुख काम तथा सेवाएं हैं : संचार माध्यम के साथ कंप्यूटर आदि डिवाइस का कनेक्शन,डेटा के बहाव
का नियंत्रण,मॉड्यूलेशन अथवा प्रयोक्ता के उपकरण से संचार चैनल पर डिजिटल
डेटा का रूपांतरण. ये संकेत या तो तांबे तार या फिर ऑप्टिकल फाइबर केबल या फिर
रेडियो लिंक द्वारा संचरित होते हैं.
दर
असल भौतिक परत ही सूचना बिटों को एक स्रोत से दूसरे स्रोत तक पहुंचाने वाले
उपस्करों का संयोजन सुनिश्चित करती है. चाहे तरीका यूटीपी केबल हो, चाहे फाइबर
ऑप्टिक केबल हो या फिर रेडियो लिंक हो, या कोई अन्य तरीका.
परत
2. डेटालिंक परत (Data Link Layer) : डेटालिंक परत हमें उपलब्ध कराती है- वे तरीके जिनसे हम डेटा
को विभिन्न उपकरणों के बीच नेटवर्क से भेजते हैं. शुरू में यह परत पीपीपी(प्वाइंट
टु प्वाइंट प्रोटोकॉल) के लिए इस्तेमाल मे लाई गई थी. डेटा लिंक परत ही सूचना फ्रेमों को एक केन्द्र से दूसरे
केन्द्र तक पहुंचाती है. यहां पर बताना जरूरी होगा कि नेटवर्क परत से प्राप्त सूचना बिट्स की अविरल धारा को डेटा लिंक परत
छोटी छोटी , मैनेज की जा सकने वाली
सूचनाइकाइयों मे बांट देती है. इन इकाइयों को ही फ्रेम कहते हैं.
परत
3. नेटवर्क परत(
Network Layer)
: यह
परत मूलत: नेटवर्क की रूटिंग से संबंधित कार्यों का निष्पादन करती है. यह कई बार
डेटा को व्यवस्थित करने की साथ साथ डिलीवरी की त्रुटियों की रिपोर्टिंग भी करती
है. राउटर इसी परत में काम करते हैं. ज़्यादातर प्रोटोकॉल्स भी इसी परत में
क्रियाशील होते हैं. कहने का मतलब यही है कि नेटवर्क परत ही एक सूचना पैकेट को
सूचना स्रोत से प्राप्त करके, ग्रहण करने वाले स्रोत तक पहुंचाती है. नेटवर्क परत
का ही दूसरा नाम इंटरनेटवर्किंग परत भी है. टीसीपी आइपी प्रोटोकॉल इसी वर्ग में
आते हैं.
परत
4. परिवहन परत(
Transport Layer): यह परत, जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है,
उपभोक्ताओं के बीच डेटा के पारदर्शी स्थानांतरण का महत्वपूर्ण कार्य संपादित करती
है. परत बहाव नियंत्रण, सेगमेंटेशनडिसेगमेंटेशन, त्रुटिनियंत्रण आदि द्वारा डेटा
संचार हेतु स्थापित लिंक की विश्वसनीयता का निर्धारण भी करती है. टीसीपी(ट्रांसमिशन कंट्रोल प्रोटोक़ोल) तथा
यूडीपी(यूज़र डेटाग्राम प्रोटोक़ोल) इसी परत में काम करते हैं. जिस तरह डाकघर में चिठ्ठियों व पार्सलों
को अलग अलग करके भेजा जाता है, ठीक उसी तरह परिवहन परत में भी विभिन्न प्रकार के
सूचना पैकेटों की छंटनी होकर उनके गंतव्य तक भेजा जाना सुनिश्चित किया जाता है.
संक्षेप मे कहें तो एक प्रक्रिया से दूसरी
प्रक्रिया तक सूचना भेजे जाने के लिए परिवहन परत ही उत्तरदायी है.
परत
5. सेशन परत( Session Layer): यह परत कंप्यूटरों के बीच
कनेक्शनों को नियंत्रित करती है. यह परत कनेक्शनों को स्थापित करती है, उन
कनेक्शनों का प्रबंधन करती है, व उन कनेक्शनों को रद्द भी करती है. ओएसआइ ने इस
परत को सेशनों को बन्द करने के लिए भी उत्तरदायी माना है. संक्षेप में कहें तो
सेशन परत अन्य परतों के साथ संवाद स्थापित करने, सूचना संप्रेषण के दौरान चल रही
क्रियाओं का नियंत्रण करने, व विभिन्न इकाइयों के बीच तालमेल बिठाने के लिए भी
उत्तरदायी है.
परत
6. प्रेज़ेंटेशन परत(Presentation
Layer): यह परत एप्लीकेशन परत
की विभिन्न इकाइयों के साथ संदर्भ स्थापित करती है. यह परत विभिन्न प्रकार के डेटा
प्रस्तुतीकरण से स्वतंत्रता प्रदान करती है. यह परत डेटा को इस प्रकार परिवर्तित
करती है ताकि एप्लीकेशन परत इसे स्वीकार कर सके. यह परत भेजे जाने वाले डेटा को
एंक्रिप्ट भी करती है ताकि भेजे जाने के दौरान कंपैटिबिलिटी जैसी समस्याएं न आएं.
तात्पर्य यह है कि
प्रेज़ेंटेशन परत : प्रेषक के डेटा फॉरमेट
के अनुरूप सूचना प्राप्त करने वाली मशीन के डेटा फॉरमेट को परिवर्तित कर देती
है. प्रेज़ेंटेशन परत सुरक्षा की दृष्टि से
भेजी जाने वाली सूचना को एन्क्रिप्ट करती
है, तथा सूचना प्राप्त करने वाली मशीन पर यह सूचना डिक्रिप्ट कर देती है. प्रेज़ेंटेशन
परत सूचना को संघनित रूप मे बदल देती है, जिससे सूचना का आकार बहुत छोटा हो जाता
है. मूल रूप से मल्टीमीडिया, ऑडियो व वीडियो किस्म की सूचनाओं के लिए यह कंप्रेशन
लाभदायक होता है.
परत
7.एप्लीकेशन परत(
Application Layer):
यह परत अंतिम उपभोक्ता के सबसे करीब
होती है. इसका मतलब यह है कि यह परत तथा उपभोक्ता- दोनो ही सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन के
साथ इंटरएक्ट करते हैं. हाइपर टेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकॉल(HTTP), फाइल ट्रांसफर प्रोटोकॉल(FTP)व सिंपल मेल
ट्रांसफर प्रोटोकॉल(SMTP) इसी परत में सक्रिय होते हैं.
एक
ही वाक्य में कहें तो- एप्लीकेशन परत ही उपभोक्ता को सूचना सेवाएं भौतिक रूप
से प्रदान करने के लिए उत्तरदायी है.
नेटवर्किंग ( Networking) :- सूचना युक्त कंप्यूटरों को आपस मे जोड़ना ही नेटवर्किंग है. यह नेटवर्किंग यूटीपी केबल(अनट्विस्टेड पेयर) तार, फाइबर ऑप्टिक केबल, रेडियो लिंक तथा उपग्रह – इतने तरीकों से हो सकती है. सुविधा के लिए नेटवर्किंग को निम्नलिखित वर्गों में बांटा गया है :
- लोकल
एरिया नेटवर्किंग( LAN)
- मेट्रोपोलिटन
एरिया नेट्वर्क(MAN)
- वाइड
एरिया नेटवर्क(WAN)
लोकल एरिया नेटवर्क (LAN) : यह नेटवर्क किसी एक भवन के भीतर किसी
ऑरगनाइजेशन की सीमित जरूरतों के हिसाब से बनाया जाता है. इसमे कंप्यूटर एक ही स्थान पर लगभग एक सौ या कुछ अधिक
मीटर की दूरी पर स्थित होते हैं. क्योंकि यह नेटवर्क एक स्थान मे सीमित होता है,
अत: इसे लोकल एरिया नेटवर्क कहा जाता है. कंप्यूटरों को लैन द्वारा जोड़ने का काम
यूटीपी केबल द्वारा किया जाता है. काफी कम दूरी होने के कारण इस नेटवर्किंग
में सिग्नल की क्षति (signal loss) बहुत कम होती है,
अत: किसी सिग्नल प्रवर्धक(Repeater) की जरूरत नहीं पड़ती.
मेट्रो एरिया नेटवर्क (MAN) : जब कंप्यूटर नेटवर्क
किसी महानगर के भीतर ही सीमित हो तो उसे मेट्रो एरिया नेटवर्क के अंतर्गत रखा जाता
है. यह नेटवर्क भी फाइबर ऑप्टिक केबल द्वारा स्थापित किया जाता है. इसकी जरूरत तब
पड़ती है जब उपभोक्ता हाइस्पीड पर
कनेक्टिविटी चाहता हो. इसके उदाहरण हैं
केबल इंटरनेट, तथा डीएसएल टेलीफोन.
वाइड एरिया नेटवर्क(WAN) : जब किसी संदेश ,चित्र या ध्वनि को काफी दूरी तक भेजना
होता है तो वाइड एरिया नेटवर्क का प्रयोग किया जाता है. भले ही वैन केबल द्वारा भी
सिग्नल का संप्रेषण कर सकता है, लेकिन इस विधि से सिग्नल की बहुत क्षति होती है.
कुछ निश्चित दूरियों के बाद रिपीटर लगाने पड़ते हैं.
- लाइन टोपोलोजी में कंप्यूटरों को केबल द्वारा एक के बाद
दूसरे के क्रम मे जोड़ा जाता है. इसीलिये इसे प्वाइंट टु प्वाइंट कनेक्शन भी
कहा जाता है. बस टोपोलोजी मे मुख्य केबल में ट्रैप दिये जाते
हैं, जिनसे कंप्यूटरों को ड्रॉप लाइन के द्वारा जोड़ा जाता है. इसमे सबसे बड़ी
कमी यह है कि जैसे जैसे कनेक्शन बढ़ते हैं, सिग्नल कमजोर होता जाता है. लेकिन
अच्छाई यह है कि कनेक्शन करना आसान होता है. ट्री टोपोलोजी मे कंप्यूटर
किसी पेड़ की शाखाओं की तरह आपस मे जुड़े रहते हैं। किन्तु सभी कंप्यूटरों का
संबंधा अंतत: एक मूल कंप्यूटर से भी रहता है। रिंग टोपोलोजी
में हर डिवाइस अपने निकटतम कंप्यूटर से जुड़ी होती है. इस टोपोलोजी मे हर
कंप्यूटर के बाद रिपीटर जरूर होता है, जो सिग्नल की शक्ति को बढ़ा देता है. मेश
टोपोलोजी मे एक कंप्यूटर का सिग्नल प्रवाह दूसरे कंप्यूटर तक सीधे
सीधे होता है. ठीक उसी समय उसी
कंप्यूटर का संबंध दूसरे कंप्यूटर से भी हो सकता है. इस प्रकार एक मेश जैसी
संरचना बन जाती है. स्टार टोपोलोजी मे प्रत्येक डिवाइस का सीधा
सीधा कनेक्शन एक केन्द्रीय हब से होता है. इस टोपोलोजी मे डिवाइसें एक दूसरे
से सीधी जुड़ी नहीं होतीं. फुली कनेक्टेड टोपोलोजी में सभी
डिवाइसें एक से अधिक तरीके से एक दूसरे से जुड़ी होती हैं.
सूचनाओं को भेजने के
तरीके अर्थात प्रोटोकॉल(Protocol) :- सूचना संचार हमे सूचनाओं को एक कंप्यूटर
से दूसरे कंप्यूटर तक पहुँचाने मे मदद करता है। लेकिन ये सूचनाएँ आती जाती किस
प्रकार हैं। यह काम होता है प्रोटोकॉल की मदद से।
प्रोटोकॉल एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है.
इसका अर्थ है- सूचना भेजने के तौर तरीके. यहां ओएसआइ मॉडल के हिसाब से कुछ
प्रोटोकॉल्स के बारे मे चर्चा की जाएगी.
(क) एप्लीकेशन परत में आते हैं- सिंपल मेल ट्रांसफर प्रोटोकॉल(SMTP), फाइल ट्रांसफर प्रोटोकॉल(FTP), हाइपर टेक्स्ट
ट्रांसफर प्रोटोकॉल(HTTP), डोमेन नेम सिस्टम प्रोटोकॉल(DNS), सिंपल नेटवर्क मैनेजमेंट प्रोटोकॉल
(SNMP), टेलीफोन नेटवर्क
प्रोटोकॉल (Telnet)
(ख) परिवहन परत में आते हैं : स्ट्रीम कंट्रोल ट्रांसफर प्रोटोकॉल(SCTP), ट्रांसफर कंट्रोल प्रोटोकॉल(TCP), तथा यूज़र डेटाग्राम
प्रोटोकॉल (UDP)।
(ग) नेटवर्क परत में आते हैं: इंटरनेट
कंट्रोल मेसेज प्रोटोकॉल(ICMP),इंटरनेट ग्रुप मेसेज प्रोटोकॉल(IGMP),रिवर्स एड्रेस
रेसॉल्यूशन प्रोटोकॉल (RARP) तथा एड्रेस
रेसॉल्यूशन प्रोटोकॉल(ARP)।
सूचनाओं के पते
(एड्रेसिंग़) : जब हम
इंटरनेट के द्वारा सूचना भेजते हैं तो भेजने वाले और पाने वाले का पता जरूरी होता
है, वरना सूचना हमारी इच्छानुसार नहीं पहुंच पाएगी. इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों द्वारा
उत्पन्न यह पते संख्याओं के रूप में होते हैं. ब्लॉक डायग्राम द्वारा इस बात को हम ऐसे समझा सकते हैं:
भौतिक पता(physical address)
|
आइ पी एड्रेस (IP address)
|
पोर्ट का पता(port address)
|
1 भौतिक पता(physical address) : यह लिंक एड्रेस भी कहलाता है. यह एड्रेस वास्तव में मशीन के एनआइसी
(Network Interface Card) का नंबर होता है. इसका साइज़ 48 बिट होता है. अर्थात 6 बाइट
का नंबर होता है, जो हर बाइट के बाद सेमी कोलोन द्वारा पृथक किया होता है. उदाहरण
के लिए : 04:03:09:01:2B:5C.
2 आइपी एड्रेस (IP address) : भौतिक पता वास्तव में हार्डवेयर के एक
कार्ड का नंबर है. जब हम विश्व व्यापी
स्तर पर सूचनाओं का आदान प्रदान करते हैं तो पाते हैं कि अलग अलग नेटवर्कों में
अलग अलग किस्म के भौतिक पते हैं. जाहिर है कि ऐसी स्थिति में भौतिक पता हमें बहुत
ज़्यादा मदद नहीं पहुंचा सकता. हमें तो ऐसे पते की जरूरत है कि जो हमारे द्वारा
चाहे गए कंप्यूटर से हमें जोड़ दे, चाहे उसका नेटवर्क किसी भी तरह का क्यों न हो. आइपी
पते की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि किन्ही भी दो कंप्यूटरों के आइ पी एड्रेस एक
से नही हो सकते. 32 बिट वाला यह एड्रेस सभी कंप्यूटरों के लिए अलग होता है. सूचना पैकेट का भौतिक पता
तो नेटवर्क बदलने के साथ बदल जाता है किंतु आइपी एड्रेस नही बदलता. वह शुरू से अंत
तक एक सा ही रहता है.
यह पता ही वास्तव में कंप्यूटर को
नेटवर्क में अलग पहचान देता है. इसका एक उदाहरण इस प्रकार है : 132.24.75.9
3
पोर्ट एड्रेस (Port address): इंटरनेट का एकमात्र
उद्देश्य केवल डेटा को पहुंचाना ही नहीं
है. आजकल कंप्यूटर एक ही समय में एक से अधिक काम करते हैं. जैसे कि एक ही कंप्यूटर
कहीं तो फाइल ट्रांसफर कर रहा है, तो कहीं आवाज के रूप मे सूचना किसी दूसरे
कंप्यूटर को भेज रहा है. ऐसी स्थिति में हमें एक और पते की जरूरत पड़ेगी, जो यह बता
सके कि कंप्यूटर पर एक साथ दो अलग अलग काम हो रहे हैं. अर्थात दोनो कामों के पते
अलग अलग होने चाहिएं. इस के लिए TCP/IP आर्कीटेक्चर की जरूरत पड़ती है. अत: हम कह
सकते हैं कि सूचना पैकेटों के साथ भेजा
गया TCP/IP लेबल ही पोर्ट एड्रेस कहलाता है.
यह पोर्ट एड्रेस 16 बिट का होता
है, तथा अकेली संख्या (753 आदि ) से व्यक्त किया जाता है.
आज हम देखते हैं कि किस तरह
इंटरनेट सूचना व ज्ञान का विराट कोष बन
गया है. लेकिन हम यह भी देखते हैं कि इंटरनेट के ज्ञान कोष पर अंग्रेज़ी भाषा का
वर्चस्व है. इस ज्ञान का लाभ वही वर्ग उठा रहा है जिसे अंग्रेज़ी आती है. और इस वर्ग में भारतीय नागरिकों की संख्या 10-15% से
ज़्यादा नहीं हैं.
भविष्य की हिन्दी : हिन्दी के सामने आज कई चुनौतियाँ
हैं। जिस तेजी से आज विश्व की भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं या लुप्त हो चुकी हैं, उससे तो
लगता है कि हिन्दी का वर्तमान स्वरूप बचाए रखने के लिए बहुत प्रयास
करने होंगे। अन्यथा ऐसा भी हो सकता है कि देवनागरी मे लिखे गए शिलालेख पढ़ने के लिए
भावी पीढ़ियों को किसी रोसेटा स्टोन की जरूरत पड़े।
तो सबसे बड़ा ख़तरा है देवनागरी लिपि के विलुप्त होने
का। आज की तारीख मे हमारे कंप्यूटरों के
सभी ‘की बोर्ड’ रोमन लिपि
मे हैं। हम हिन्दी मे जो कुछ भी कंप्यूटर द्वारा लिखते हैं वह रोमन मे लिखना पड़ता
है। होना यह चाहिए था कि ‘भारत’ लिखने के
लिए देवनागरी के कीबोर्ड पर पहले भ, फिर आ की
मात्रा, फिर र, फिर त
लिखना चाहिए था। लेकिन होता यह है कि हम
रोमन मे पहले Bhaa, फिर ra, फिर ta लिखते
हैं।
तो आज कंप्यूटरों पर देवनागरी कीबोर्ड न होना भविष्य मे
हिन्दी के अस्तित्व के लिए बहुत खतरनाक हो सकता है।
दूसरी चुनौती व्याकरण की है। हिन्दी के
मानकीकरण के प्रयास मे हमने पहले ही अनेक स्वर और व्यंजन अस्वीकार कर दिये थे।
जैसे ‘झ’ पहले दूसरे
रूप मे भी उपलब्ध था, ‘ण’ के भी दो
रूप थे। वे छोड़ दिये गए। ताकि अनेकरूपता ख़त्म हो सके। इसके बाद हमने जोड़ा अक्षरों के
स्वरूप को भी बदलना शुरू कर दिया है, जैसे कि द
और य का द्य रूप प्रचलित था किन्तु अब उसे दय लिखने की
वकालत की जाने लगी है । ये सारे
प्रयास पहले तो लिपि के मौलिक तत्वों को
नष्ट करेंगे, उसके बाद कहा जाएगा कि दय
लिखने से तो अच्छा है कि हम अंग्रेजी मे dya लिखें।
इस प्रकार संकट पहले लिपि पर तथा बाद मे भाषा पर भी आएगा
।
तीसरा संकट है व्याकरण का। अभी तक
अनेक शब्दों के लिंग निर्धारण नहीं हुए हैं। यदि हुए भी हैं तो उनके पीछे कोई ठोस तर्क
दिखाई नहीं पड़ता। संस्कृत मे तो उभय लिंग
की व्यवस्था थी। ऐसा संकट पैदा ही नहीं हुआ। लेकिन हिन्दी मे हमे सभी शब्दों को
केवल पुल्लिंग व स्त्रीलिंग मे ही रखना है। अब एक अकेला ‘पत्ता’ तो
पुल्लिंग है जबकि अनेक पत्तों को धारण करने वाली ‘टहनी’ स्त्रीलिंग
। एक मामूली सा ‘पेंच’ पुल्लिंग
है तो विशालकाय रेल ‘स्त्रीलिंग’। क्या तर्क है इसके पीछे –समझ नहीं आता। ‘पानी’ पुल्लिंग
है तो ‘बर्फ’
स्त्रीलिंग। आखिर क्यों। इस विसंगति के
कारण हिन्दी भाषा भी पूर्ण वैज्ञानिक भाषा नही कही जा सकती। यही कारण है कि
हिंदीतर भाषी लोग हिन्दी मे लिंगों की त्रुटि अक्सर करते हैं।
इस मामले मे अंग्रेजी हिन्दी से आगे है। वहाँ कोमन
जेण्डर है। जिस शब्द का लिंग पता न चला
रहा हो उसे कोमन जेण्डर के खाते मे डाल दो। हिन्दी की इन्ही कमियों को आधार बना
कर भविष्य मे यह माँग उठ सकती है कि
हिन्दी भाषा की लिपि रोमन होनी चाहिए।
इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी भाषा व लिपि
कंप्यूटर के लिहाज़ से एक सरल व सहज भाषा है. इंटरनेट पर विभिन्न रूपों में इसका
प्रयोग दिन प्रतिदिन तेज़ी से बढ़ता ही जा रहा है.
हमें आशा ही नहीं, दृढ़ विश्वास भी है कि अपनी सरलता व
सहजता के कारण हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा बनेगी. साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ में भी अनेक विश्व भाषाओं
के साथ बराबर की जगह पा सकेगी.
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