व्यंग्य- हमारा अतिथि प्रेम


      अंकल शांति का पैगाम लेकर ही आए  थे, किसी की सुपारी लेकर नहीं। और, अमन की बात तो आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है ही। अंकल के माथे पर चिंता की लकीरें गहरा रही थीं। आतंकवाद का खूनी खेल जारी था। हर कोई अंजा गंजा एटम बम पाना चाहता था। गोरे मुल्क़ों की देखा-देखी गेहुएं मुल्क़ भी बम की ज़िद करने लगे। ठीक उसी तरह, जैसे चांद देखकर किसन कन्हैया जसोदा मइया से बोल थे- ‘मइया मैं तो चंद खिलौना लैहौं।’

 ‘यूरोपीय नस्लवालों के पास अगर एटम बम हैं तो विवेक भी है। वे एटमी ताक़त का ग़लत इस्तेमाल कर ही नहीं सकते’ - ये बात अंकल के जेहन में बैठी हुई थी। जबकि काबुल में, एटम बम तो दूर की बात है, तालिबानों को एके-47 मिलीं तो उन्ही से उन्होंने दुनिया का जीना दुश्वार कर दिया। अंकल ने समझाया तो बंदूक़ों का मुहाना उन्हीं की तरफ़ मोड़ दिया। मज़बूर होकर यूएनओ वालों को शांति सेना भेजनी पड़ी। तब कहीं जाकर पठानी नासूर की शल्य-चिकित्सा हो पाई।


    सद्दाम भाई साब को भी कितना समझाया था अंकल ने ? कि भाई मेरे, कर लेने दो छानबीन। क्या मालूम किसी ने तुम्हारे यहां जैविक हथियार न छिपा रखे हों। मगर कानों पर जूं तक न रेंगी। मजबूरन वहां भी फ़ौजें भेजनी पड़ीं। और, जब फ़ौजी अमन क़ायम होता है तो घुनों के साथ एकाध गेहूं पिस ही जाता है। सुनते हैं अमन की चक्की में वहां घुनों के साथ गेंहुओं की पिसाई आज भी चल रही है।


    अभी इराक़ का चैप्टर क्लोज़ भी नहीं हुआ था कि ईरान और दक्षिणी कोरिया ने फन फैला लिए । अंकल परेशान ! एक मारें तब तक दस और निकल आते हैं बिलों से ! टेंशन हो गया। प्राब्लम कैसे हल करें ?

      तभी उन्हें याद आया कि इंडिया नाम का एक मुल्क़ ऐसा भी है, जो हर प्राब्लम को बगैर ख़ून ख़राबे के हल कर लेता है। और चांस की बात देखिए, अंकल की पालतू बिल्ली का नाम भी इंडिया था। 

       सो, अपनी प्यारी बिलौटी की भावनाओं  को समझते हुए अंकल शांति का पैगाम लेकर सबसे पहले इंडिया उतरे। अंकल मेहमान की हैसियत से आए थे। और आप तो जानते ही हैं कि ‘मेहमां जो हमारा होता है वो जान से प्यारा होता है’.... मेहमान हवाई अड्डे पर उतरता बाद में है और हमारा अतिथि प्रेम कुलांचे पहले भरने लगता है। बालीवुडी फ़िल्मों की हीरोइनें पिया मिलन को जैसे सारी लोकलाज लॉकर में डाल दौड़ पड़ती हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे मंत्री-संतरी भी प्रोटोकालों के झूठे बंधन तोड़ते हुए दौड़ पड़े थे हवाई अड्डे की तरफ। हवा में हिन्दी फ़िल्मों के गाने के बोल गूंजने लगे- बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी, मेरी ज़िन्दगी में हुजूर आप आए । क़दम चूम लूं या कि आंखे बिछा दूं, करूं क्या ये मेरी समझ में न आए ।


    हमारी महानता की एक और मिसाल देखिए - अंकल के साथ जो तीन सौ सुरक्षा गार्ड आए  थे- उन सबके चार पैर थे। जबकि होटल के वे कमरे दो पैरोंवालों के हिसाब से बने थे। एक होटल मैनेजर ने ग़लती से इतना ही कहा था कि सर, ये तो डॉग्स हैं। इस पर अंकल नाराज़ हो गए थे। मैनेजर को मेजर डगलस, कैप्टन शेफर्ड और सार्जेट लैब्राडौर से बाकायदा माफ़ी मांगनी पड़ी और पूरे सैनिक सम्मान के साथ वीवीआईपी क़मरों में ठहराना पड़ा। अगले दिन पता चला कि सुरक्षागार्डों को कुत्ता कहने पर मैनेजर सस्पेंड हो गया था। भला अतिथि-सत्कार की ऐसी मिसाल आपको कहीं और मिल सकती है ?


    अब अंकल के खाने पीने की तैयारियां भी सुन लीजिए । अंकल की पसंदीदा चीज़ों की लिस्ट एक महीना पहले ही मांग ली गई  थी-

       ‘लगान की बोटी’ यानी भेड़ के बच्चों की बोटियां, जो मसाले और तले प्याज में हल्की आंच पर पकाई गयी हों। इसके लिए चार सौ मेमने होटल में लाकर महीना भर पहले ही बांध दिये गए । उन्हें सूखे मेवे और भैंस का खालिस दूध दिया जा रहा था । मकसद था- बोटियों में जायका और भरना, ताकि अंकल अहिंसा के पुजारी इंडिया की खिलाई बोटियां कभी भूल न पायें। और वाकई अंकल को बोटियों पसंद आयीं। ‘मुर्ग सींख-पा’ यानी जवान मुर्ग के गोश्त से बने सींख कबाब जिन्हें पुदीने की चटनी और छेना पनीर के साथ परोसा गया था। इस मक़सद के लिए छोटे-छोटे हजार मुर्गों को छांटा गया। उन्हें भी काजू, बादाम, छुआरे, अखरोट के टुकड़ों पर महीने भर रखा गया, ताकि उनके गोश्त से बने कबाब खाकर अंकल इंडिया की नान-वायलेंस की पालिसी समझ सकें और वे समझे भी। ‘अंजीर दही की लौज’ यानी दही में डूबे अंजीर- ये आइटम भी अंकल की ख़िदमत में ख़ास तौर पर पेश की गई । इसके लिए चुने हुए मीठे अंजीर हवाई जहाज़ के जरिये कश्मीर से उसी रोज़ मंगाए  गए ।


       ‘जैक-इ-शाह’ वो गुलाब जामुन थे जिन्हें खसखस के बीजों का लिहाफ देकर चाशनी में गोता दिया गया था। अंकल को पसंद आए ।

       इस तरह अंकल के साथ-साथ बेहतरीन दावत का भरपूर मज़ा  अंकल के चार पैरोंवाले सुरक्षा गार्डों ने भी लूटा। हमने भी एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि बाहरी चोला- आदमी और कुत्ते का भले ही अलग हो, मगर आत्मा दोनों में एक ही है। अतः कुत्ते और आदमी में आत्मा के लेबल पर कोई फ़र्क है ही नहीं। सब एक ही नूर से उपजे हैं। सब एक ही मिट्टी के भांडे हैं। ‘साथ ही साथ अंकल को मैसेज भी दे दिया कि अगर हम आपसे मुहब्बत करते हैं तो आपके कुत्तों (सारी, सुरक्षा गार्डों) से भी करते हैं।

        भला कोई मेहमान इंडिया आये और राजघाट न जाए ? हो ही नहीं सकता। अंकल भी सवेरे राजघाट पहुंचे। उन सुरक्षाकर्मियों ने राजघाट का चप्पा-चप्पा सूंघ डाला। फिर वे बापू की समाधि पर भी चढ गए  और कोना-कोना सूंघा। उनसे क्लीन चिट मिलने के बाद ही अंकल ने समाधि पर फूल फेंके, और बापू पर अहसान किया।

     उसके बाद अंकल राष्ट्रपति से मिलने राष्ट्रपति भवन गए । सुरक्षागाडों ने राष्ट्रपति भवन का भी चप्पा-चप्पा सूंघ डाला। हमने अब भी बुरा नहीं माना।  वाह ! हमारे धैर्य का, हमारे संयम का बाँध कितना मजबूत है ? टूटता ही नहीं। वो कहते हैं न- जीते हों किसी ने देश तो क्या, हमने तो दिलों को जीता है.....’ हमने दिल ही क्या, लाज शरम भी जीत ली है।

     अंकल शांति का संदेश देकर जैसे ही उडे़ कि हमारे मंत्री-संत्री खीसें निपोरकर हंसने लगे। हंसते-हंसते ही बोले-

ये जिस्म थककर बोझ से दोहरा हुआ होगा।
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।

(समाप्त)


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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