(2). यांत्रिक गणक (Mechanical counters) : मध्यकालीन इतिहास में यूरोप में पुनर्जागरण का दौर आया. भाप के इंजन, छापेखाने जैसी कई नई तकनीक विकसित हुईं. अनेक नए यंत्रों का आविष्कार हुआ. गणित के क्षेत्र में भी इसका प्रभाव पड़ा. अबेकस से आगे बढ़ते हुए मानव ने गिनने के लिए यांत्रिक गणकों (mechanical counters) की खोज की. इस खोज का परिणाम यह हुआ कि संख्याओं के जोड़, घटाना, गुणा, भाग, वर्गमूल, घनमूल, आदि में गति आ गई.
जर्मनी के गोटफ्रिएड लीबनिट्ज़ ने सन 1670 में ऐसी मशीन बनाई जो गणित की मूलभूत चार क्रियाएं- जोड़, घटाना, गुणा व भाग कर सकती थी. संख्याएं मशीन का हैंडल घुमा कर फीड की जाती थीं. फिर जोड़ आदि का बटन घुमाया जाता था. डिस्प्ले पर परिणाम सामान्यत: लाखों तक की संख्याओं का हिसाब रखना संभव हो सका.
एक दूसरे इंजीनियर चार्ल्स वेबज का जिक्र यहां पर करना जरूरी है. उन्होने सन 1842 में 'डिफ्रेंस इंजन' नामकी एक ऐसी मशीन बनाई जो प्रोग्राम के आधार पर काम करती थी. दुनिया की पहली प्रोग्रामर मानी जाने वाली 'आदा लोवलक' नें इस मशीन पर एक छोटा सा प्रोग्राम लिख कर चलाया.
लेकिन मानव सभ्यता का विकास तो तब भी जारी था. संख्याएं करोड़ों अरबों तक पहुंच चुकी थीं, जिन्हें मशीनी कैलकुलेटरों से गिन पाना आसान न था. इसके अलावा कई बार प्राप्त परिणाम को अंकों के साथ शब्दों में भी लिखना पड़ता था. मान लीजिये- बारह महीनों में हर महीने का औसत ताप क्रम यदि इन मशीनों से जानना होता तो मशीनें औसत ताप तो बता देती थीं, लेकिन महीने का नाम नहीं बता पाती थीं. कारण यहाँ था कि इन मशीनों में आरंभिक दौर में सिर्फ अंक फीड करने की ही व्यवस्था थी, अक्षर फीड करने की नहीं.
तो शुरूआती यांत्रिक गणकों में मुख्य रूप से दो बड़ी कमियां थीं. पहली ये कि ये मशीनें बहुत बड़ी संख्याओं के लिए बेकार थीं. दूसरे इनमें शब्द संसाधन की व्यवस्था न थी.
(3). कंप्यूटर (Computer) : इन दोनों मुश्किलों को आसान कर दिया एक इलेक्ट्रॉनिक मशीन नें, जिसे बीसवीं शताब्दी के शुरू में बनाया गया था. इसे नाम दिया गया कंप्यूटर. कंप्यूटरों को मुख्य रूप से चार पीढ़ियों में बांट सकते हैं:


(क). एनिएक(ENIAC)- इलेक्ट्रॉनिक नुमेरिकल इंटीग्रेटर एंड कंप्यूटर.
(ख). एडवैक (EDVAC)- इलेक्ट्रॉनिक डिस्क्रीट वेरिएबल औटोमेटिक कंप्यूटर.
(ग). यूनीवैक(UNIVAC)- यूनीवर्सल औटोमेटिक कंप्यूटर.
(घ). आइबीएम 701- इंटरनेशनल बिजनेस मशीन 70.1
इन कंप्यूटरों का रखरखाव बहुत पेचीदा था. खराब होने पर इनकी त्रुटियां खोजने में महीनों लग जाते थे. 1945 में ग्रेस हूपर नाम के एक प्रोग्रामर ने देखा कि उसकी मशीन चलते चलते एकाएक रुक गई है. उसने कई महीने तक एक एक रिले, वाल्व व तार की जांच की. मालूम हुआ कि एक रिले के भीतर एक कीड़े(bug) ने घोंसला बना लिया था. घोंसले को हटाते ही, यानी डिबग्गिंग (Debaugging) करते ही कंप्यूटर काम करने लगा. तबसे डिबग्गिंग शब्द कंप्यूटर शब्दावली में स्थाई रूप से जुड़ गया. इसका अर्थ हो गया- कंप्यूटर में आई रुकावट हटाना.
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वॉन न्यूमैन (1903-1957) |
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वॉन न्यूमैन की परिकल्पना |
संक्षेप में पहली पीढ़ी के कंप्यूटरों की विशेषताएं व कमियांं इस प्रकार हैं:
1. इनमें निर्वात ट्यूबों का प्रयोग होता था.
2. ये आकार में काफी बड़े व क्लम्ज़ी होते थे.
3. इनमें बिजली की बहुत ज़्यादा खपत होती थी.
4. इनमें प्रोग्राम मशीन लैंग्वेज में लिखे जाते थे.
5. इन्हें ठंडा रखने के लिए बड़ी एअर कंडीशनिंग मशीनों की जरूरत पड़ती थी.
6. इनमे ढेरों विद्युत संबंधी खराबियां आती थीं.
दूसरी पीढ़ी के कंप्यूटर (1956 से 1963 ) : दूसरी पीढ़ी की शुरूआत हुई ट्रांजिस्टर की खोज से. पहली पीढ़ी में निर्वात ट्यूबों के गर्म होने की समस्या इनके प्रयोग से खत्म हो गई. एक और फायदा हुआ. पहली पीढ़ी के कंप्यूटरों में मशीन लैंग्वेज(machine language) का प्रयोग होता था, जबकि दूसरी पीढ़ी के कंप्यूटरों में
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ट्रांजिस्टर |
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दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटर |
असेंबली लैंग्वेज (assembly language) का प्रयोग होने लगा. जटिल होते हुए भी असेंबली लैंग्वेज बाइनरी कोड पर आधारित मशीन लैंग्वेज की अपेक्षा सरल थी. इस पीढ़ी के कंप्यूटरों में प्रिंटर, डिस्क स्टोरेज तथा ऑपरेटिंग सिस्टम्स जैसी अनेक सुविधाओं का प्रयोग भी संभव हो गया.
कंप्यूटर निर्देशों(प्रोग्रामों) को कंप्यूटर की मेमोरी में सुरक्षित रखना दूसरी पीढ़ी के कंप्यूटरों में संभव हो गया. इनमें उच्च स्तरीय भाषाएं (High level languages) जैसे COBOL(common Bussiness Oriented Language), तथा FORTRAN (Formula Translation) का भी प्रयोग होने लगा.
दूसरी पीढ़ी के कंप्यूटरों की संक्षेप में विशेषताएं
1. ट्रांजिस्टरों का प्रयोग शुरू हुआ
2. कोर मेमोरी का विकास हुआ.
3. ये कंप्यूटर पहली पीढ़ी के कंप्यूटरों से तेज़ थे
4. इसी पीढ़ी के कंप्यूटरों मे पहला ऑपरेटिंग सिस्टम विकसित व प्रयोग किया गया
5. इनमें जो प्रोग्रामिंग प्रयोग की गई, वह दोनो भाषाओं मशीन लैंग्वेज व असेंबली लैंग्वेज में थी
6. मैग्नेटिक टेप व डिस्कों का इस्तेमाल शुरू हुआ.
7. पहले से इन कंप्यूटरों का आकार काफी घट गया
8. इन कंप्यूटरों मे कम विद्युत खर्च होती थी. ये गर्म भी ज़्यादा नहीं होते थे.
तीसरी पीढ़ी के कंप्यूटर (1964 से 1971) (इंटीग्रेटेड चिप) : इस पीढ़ी के कंप्यूटरों की सबसे बड़ी विशेषता थी- इनमें इंटीग्रेटेड चिप्स (IC) का प्रयोग. इस चिप की खोज 1958 में जैक किल्बी ने की थी. पहली पीढ़ी की निर्वात ट्यूबों को दूसरी पीढ़ी के ट्रांजिस्टरों से बदलने पर कंप्यूटरों का आकार तो असाधारण रूप से घट गया, लेकिन ट्रांजिस्टरों में भी निर्वात ट्यूबों का एक दोष बाकी बचा रह गया. ये भी गर्म होकर खराब हो जाते थे. इसी समस्या का हल करने के लिए चिप्स का प्रयोग किया गया. चिप दरअसल क्वार्ट्ज़ से बनी एक छोटी सी सिलिकॉन डिस्क होती है, जिसमें पर ट्रांजिस्टर आदि छोटे छोटे इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट्स फिट किये होते हैं.
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तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटर |
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LSI/VLSI |
तीसरी पीढ़ी के कंप्यूटरों की संक्षेप में विशेषताएं :
1. इंटीग्रेटेड परिपथों का विकास हुआ.
2. विद्युत का खर्च बहुत कम हो गया.
3. एसएसआइ (स्माल स्केल इंटीग्रेशन व मीडियम स्केल इंटीग्रेशन तकनीक का इस्तेमाल हुआ
4. उच्च स्तर वाली कंप्यूटर भाषाओं का प्रयोग आरंभ हुआ.
चौथी पीढ़ी के कंप्यूटरों की संक्षेप में विशेषताएँ :
1. LSI (लार्ज स्केल इंटीग्रेशन) व VLSI (वेरी लार्ज स्केल इंटीग्रेशन) प्रौद्योगिकी का प्रयोग.
2. पोर्टेबल कंप्यूटरों (लैपटॉप आदि) का विकास हुआ।
4. इन कंप्यूटरों का प्रयोग वर्चुअल रिअलिटी व मल्टीमीडिया सिमुलेशन में होने लगा
5. इन कंप्यूटरों का प्रयोग आंकड़ों के संप्रेषण में भी होने लगा.
6. ऐसी मेमोरीज का इस्तेमाल होने लगा, जो न केवल तेज़ गति से प्रयोग की जा सकती थीं, बल्कि जिनकी भंडारण क्षमता बहुत अधिक थी.
1. इनका प्रयोग समांतर संसाधन (पैरेलल प्रॉसेसिंग) में होने लगा है.
2. इनमें अतिचालकों का उपयोग किया जाना है.
3. आवाज़ पहचान कर निर्देशों का पालन करने मे भी इन कंप्यूटरों का प्रयोग होने लगा है
4. बुद्धिमान रोबोटों मे भी इन कंप्यूटरों का प्रयोग होता है
5. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial intelligence) के लिए भी इस पीढ़ी के कंप्यूटर इस्तेमाल होने लगे हैं.
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