होना आत्मज्ञान का झाड़ के नीचे


                                                 

आत्मज्ञान का फंडा देखा जाय तो है एकदम आसान. दरअसल अपने लोगों के भीतर एक यूनीक सी आइटम छिपी होती है. ठीक उसी तरह, जैसे दूध में ईज़ी लिक्विड सोप, काली मिर्चों में पपीते के बीज, हल्दी में ईंट का चूरा, देसी घी में जानवरों की चर्बी  या फिर धनिये में पपीते के बीज छिपे होते हैंं. तो होता क्या है कि बंदे को कई बार वह छिपी हुई आइटम नज़र आने लगती है. बस ! वही टर्निंग प्वाइंट होता है ! खोपड़ी में मुद्दतों से चुभते आ रहे ऊल-जलूल सवालों के जवाब खुद ब खुद जाने कहां से आ जाते हैं? ऐसे सवालों में कुछ तो बड़े कॉमन होते हैं, जैसे कि- पइचान,तू है कौन?, तू आया कहां से?, तुझे जाना कहां है ? ब्ला, ब्ला.


खामोश ! आत्मज्ञान जारी है ! 
            ये सवाल आत्मज्ञान की तरफ बढ़ रहे प्राणी के शुरुआती लक्षण हैं. जैसे ही बंदे को इन सवालों के जवाब आटोमेटीकली मिलने लगें, समझ लो उसे आत्मज्ञान हो गया है. 

मगर बात दुर्भाग्य से यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि यहां से शुरू होती है. आत्मज्ञानी के खुद के कंफ्यूजन जब जड़ से उखड़ जाते हैं तो उसके बाद कायदे से उसे शांत बैठ जाना चाहिये. पर नहीं ! वह चुप नहीं बैठता. निकल पड़ता है दूसरों के कंफ्यूजन  उखाड़ने के लिये. उखाड़ने की यह क्रिया आध्यात्म की भाषा में उपदेश कहलाती है. यह आत्मज्ञान से अगला स्टेशन है.

उपदेश देना अपने यहां आजकल सबसे चोखा धंधा है. 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' तो आपने सुना ही होगा. उपदेशकों की बढ़ती तादाद आप इसी से भांप सकते हैं. उपदेश के गोरखधंधे की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें इनवेस्टमेंट एक दम ज़ीरो है.  बस, जितनी ताकत उपदेश देने में लगती होगी वही टोटल खरचा है. और इनकम ? पूछो भी मत. बेहिसाब ! तभी तो इस एरिये में थोक के भाव बाबे, साध्वियां, ब्रह्मकुमारियां उतर गए हैं. और उतर धंधे में क्या गए हैं, उतर दौलत के दरिया में गए हैं. समझ नहीं पाते बेचारे कि दौलत की बाढ़ को थामें कैसे ? खतम ही नहीं होती ! ऊपर वाला छप्पर फाड़ कर दे रहा है. नीचे वाले के घड़े पतीले, बंटे, टंकियां सब फुल हो गए हैं, मगर अगले को फिर टेंशन ! कोस रहा है खुद को- हाय ! मेरे बरतनों में छेद क्यों न हुए ? न वे कभी भरते, न मुझे ये टेंशन होता कि बाकी कहां भरूं ?

तो संतों भाई, आत्मज्ञान मिलने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि अगले मालिक की खिड़कियां खुल जाती हैं. पता चल जाता है कि ये सब मां-बाप, भाई-भतीजे, चाचे-ताए, मामे-भांजे, साली-साले- सब मिथ्या हैं. सत्य हैं तो सिर्फ वे हरे करारे नोट हैं, जिन पर छपे बापू हर वक्त मुस्कराते रहते हैं. भले ही भूकंप आ जाय, गांव के गांव बाढ़ में बह जाएं, बस्तियां आग में हवन हो जाएं, गूजर सब्बलों-गैंतियों से भारतीय रेल की पटरियों  का बैंड बजा दें, तेल और गैस की कीमतें आसमान छूने लगें, रसोइयों से आटा, चावल, दाल, तेल- गायब हो जाएं- पर बापू की सदाबहार मुस्कान फीकी नहीं पडती. बापू छाप नोटों का सत्य हृदय में प्रकट होते ही यह जगत मिथ्या लगने लगता है. आत्मज्ञानी कह उठता है- नोट सत्यं जगत मिथ्या.
वैसे भी देखिये, इस भागम भाग,इस आपाधापी, इस बदहवासी के लिये ये  बापू छाप कागज़ के टुकड़े जिम्मेदार नहीं तो कौन है ? मैं ऑफिस क्यों जाता हूं ? बाबा बस क्यों चलाता है ? मास्टर स्कूल में पढ़ाने की जगह ट्यूशन क्यों पढ़ाते हैं? वकील गुनाहगार को बाइज़्ज़त बरी क्यों कराते हैं ? लाखों करोड़ों खर्च करके नेता चुनाव क्यों लड़ते हैं? कॉरपोरेट घराने राजनीतिक पार्टियों को करोड़ों का चंदा क्यों देते हैं?अमरीका इराक पर खूनी पंजे क्यों गड़ाता है?

सारी मारामारी की जड़ हैं ये बापू छाप हरे, गुलाबी नोट, जिन पर लिखा होता है-सत्यमेव जयते.
ऑफिस जाने के लिये नौ बजे से बस की इंतज़ार में  खड़ा हूं. मोबाइल पर टाइम देखता हूं. दस बजा चाहते हैं. बस का दूर-दूर तक अता-पता नहीं है. बारिष की बौछार आती है. पीछे हट कर झाड़ की  आड़ लेता हूं. वाह! क्या खूबसूरत झाड़ है ? ऊपर से नीचे तक फूलों से लदा-फदा गुलमोहर ! इसके नीचे आते ही अपुन को कुछ कुछ होने लगा ! कहीं आत्मज्ञान का प्रॉसेस तो शुरू नहीं हो गया ?

वैसे झाड़ और आत्मज्ञान का चोली-दामन का साथ है. बुद्ध जी भगवान कहां बने ? पीपल के झाड़ के नीचे. महावीर जी जिन कहां बने ? झाड़ के नीचे. नानक जी के भीतर एक नूर का कंसेप्ट कहां आया ? झाड़ के नीचे. कहां तक बताएं- पुराने जमाने में तो हर साधू महात्मा अपने झोंपड़े डालते ही झाड़ तले थे. वे सोते भी झाड़ तले थे, खाते-पीते, उठते-बैठते भी  झाड़ तले ही थे. पढ़ते-पढ़ाते तो खैर झाड़ तले वे थे ही. सच पूछिये तो उनका संपूर्ण जीवन ही झाड़मय हो चला था. सुनहु झाड़मय यह जग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी. झाड़ उनके मानस-पटल पर हर समय उगा ही रहता था.

इस बात पर शायद आपने गौर किया हो या नहीं ? नहीं किया तो अब कर लीजिये. बात ये है कि जब कभी बड़ा लोग को आत्मज्ञान  जैसा फीलिंग हुआ, तो वो लोग सीधा झाड़ों की तरफ दौड़ा. सही सा झाड़ छांटा और फिर बैठ गए मजे से उसके नीचे. तब तक इत्मीनान से बैठे रहे जब तक कि सारा आत्मज्ञान नहीं हो गया.

झाड़ और आत्मज्ञान में एक और अजीब सा रिश्ता है. झाड़ जितना मोटा, घना छायादार होता है, आत्मज्ञान भी उतना ही दमदार मिलता है. सॉलिड झाड़, सॉलिड आत्मज्ञान. दुबले, मरगिल्ले, सूखे, मुरझाए, बेपत्ते, बेफूल, बेफल, बेगंध झाड़ तले क्या खाक आत्मज्ञान मिलेगा? बल्कि आत्मज्ञान मिलना शुरू हुआ भी हो तो रुक जाएगा जहां का तहां. चढ़  जाएगा वापस ऊपर. थोड़ा बहुत आत्मज्ञान ऐसे झाड़ तले अगर हासिल हुआ भी तो इस महंगाई में किस काम का ?

समझदार लोग बताते हैं कि जैसे ही भीतर से आत्मज्ञान होने की फीलिंग होने लगे, फौरन अच्छा सा झाड़ तलाशने का. कोई जंगी, हरा-भरा, फला-फूला खुशबूदार झाड़. पिद्दी जैसा झाड़ नहीं मांगता.

आप खुद ही सोचिये, मामूली झाड़ तले का ज्ञान भी मामूली नहीं तो क्या जास्ती होगा ? झाड़ का सेलेक्शन तो प्योरली  अपने ऊपर है ! अब बंदा अगर बैठता ही चने के झाड़ पर है तो झाड़ का क्या दोष ? ऊपरवाला भी क्या आत्मज्ञान दे दे उसे ? दिगंबर बेचारा क्या तो नहा ले, क्या निचोड़ ले ?

कमोबेश यही हाल उस शख्श का भी होगा जो मिरची के झाड़ पर चढ़ने का दुस्साहस करेगा. एक तो पहले ही पिद्दी सा झाड़, ऊपर से हरी, लाल मिरचों से ऊपर तक लदा हुआ. तौबा ऐसे आत्मज्ञान से ! ऐसा तीखा ज्ञान अगर रिसीव करना ही पड़े तो करे हमारा दुश्मन. याद तो करेगा.

इसलिये सबसे पहले यही देखने का कि बेस्ट आत्मज्ञान किस झाड़ के नीचे मिलेगा ?
कुछ लोगों का खयाल है कि खालिस आत्मज्ञान जंगल के झाड़ों तले ही मिल सकता है. सिटी के हांफते, गरदन लटकाए, बीमारू झाड़ों तले क्या खाक आत्मज्ञान मिलेगा ? गरमियां आते ही बेचारे बलि के बकरों से थरथराने लगते हैं. जाने कब बीएमसी वाले आ जाएं ? क्या पता, कब उनकी जड़ों में पक्की नालियां सींच दें? और पहली बरसात आते ही मरे जानवर की तरह पता चला कि झाड़ की जड़ें आसमान में, और टहनियां, जमीन पर.  उखाड़ना भी नहीं पड़ा. खुद ही उखड़ गया स्साला.

ये तो हम भी मानते हैं कि जंगली झाड़ से मिला आत्मज्ञान एक दम मस्त, बिंदास होता होगा, मगर सोचने वाली बात तो ये है कि अगला मालिक जंगल जाएगा कब ? मान लो चला भी गया तो शाम तक  लौटेगा कैसे ?और नहीं लौटा तो ऑफिस तो रुकेगा नहीं उसके लिए. वह तो बंद हो जाएगा. ऑफिस बंद तो 'पे' बंद. 'पे' बंद तो राशन-पानी, दूध, सब्जी सब बंद. बिजली-पानी बंद. बच्चों का स्कूल बंद. यहां तक कि किराए की खोली का दरवाज़ा भी बंद. खुला रह जाएगा सिर्फ मुंह. ये मुंह मांगे मोर. मगर कहां से ? सब कुछ तो जंगल के झाड़ ने बंद कर दिया.
मगर गुलमोहर तले अगर आप आत्मज्ञान पाने की सोच रहे हों तो जरूर सोचिये. अच्छा झाड़ है. फूल भी खूब सुर्ख आते हैं इस पर. हरा-भरा छतरी नुमा भी ये होता ही है. इसे देख कर मन बाग- बाग भी हो ही जाता है. मगर इतना सब होते हुए भी एक ड्रॉबैक इसमें बच ही जाती है.

ड्रॉबैक ये कि जिस वक्त इस झाड़ तले आप आत्म ज्ञान रिसीव करने मे मगन हों , ठीक उसी वक्त ऊपर से चिड़ियां भी अपनी दीर्घ व लघु शंकाओं का निवारण करने में तल्लीन हों तो क्या होगा ? 
ये सिचुएशन वाकई गंभीर होती है. अगर आपका ध्यान भंग होता है तो कपड़े सही-सलामत रहते हैं. और कपड़े खराब होते हैं तो ध्यान लगा रह जाता है. ऐसी क्रिटिकल पोजीशन में अपना हाथ ही जगन्नाथ होता है. सभी  शंका -समाधानों से अपने कपड़े, अपना बदन खुद बचाने पड़ते हैं. मुंह खुला नहीं, एक दम बंद रखने का. कुछ गिर गिरा गया तो चिड़ियों को दोष नहीं देने का.
 
शिट् ! इधर अभी आत्मज्ञान चालू हुआ ही था कि दूर से बस आती दिखाई दे रही है. दिमाग का दही कर दिया इस बस की बच्ची ने. जब लेट हो ही गई तो थोड़ी और हो जाती ! क्या बिगड़ जाता इसका ? जब आना था तब आई नहीं, जब नहीं आना था तब आकर मेरे आगे भैंस की तरह खड़ी हो गई. ओके गुलमोहर, बाय. बाकी आत्मज्ञान कल के लिये ड्यू रहा. क्योंकि मुझे पक्का यकीन है कि ये बस कल भी लेट होने वाली है, आज से भी ज्यादा.


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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