लोक हूं मैं

 

   

पाश से बांधे गए पशु की तरह

तंत्र से बांधा गया अभिशप्त

चक्रव्यूहों में फंसा महारथियों के अधर्मी आक्रमण सहता निहत्था

लोक हूं मैं ।

तंत्र को मरने न देने के लिए

बर्बर और निर्मम मौत मरता बलि- पशु

लोक हूं मैं ।

लौह सी भारी सलीबें पीठ पर लादे

कांटों का मुकुट पहने

वध- स्थल की दिशा में अग्रसर

प्यार का संदेश देने की सजा पाता मसीहा

लोक हूं मैं ।

गर्मियों की चिलचिलाती  धूप में या   

सरहदों की चौकसी करता अंधेरी रात में

दुश्मनों की गोलियां खाता

लाश में तब्दील होता

लोक हूं मैं ।

पैडलों पर जिस्म की ताकत  निचोड़

कई मासूम जिस्मों को बचाने के लिए

सायकिल रिक्शा चलाता

पराई ज़िंदगी ढोता, भूखा और प्यासा एक ज़िंदा लाश

लोक हूं मैं ।

बम धमाकों मे उड़े जो चीथड़े

वो मेरे जिस्म के ही थे ।

याद में जिसकी सिसकते थे

मां-पिता भाई-बहन पत्नी व बच्चे –

गुजर कर भी रुलाता, याद आता ब्रह्म-राक्षस

लोक हूं मैं ।

          

Share on Google Plus

डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें