भारतेंदु
काल हिन्दी साहित्य के इतिहास में विशेष स्थान रखता है । इस काल –खंड में
रचनाकारों ने समाज में घट रही अच्छी –बुरी घटनाओं के साथ लोक- साहित्य का वह
सामंजस्य प्रस्तुत किया है, जो पूर्ववर्ती
साहित्य में नहीं मिलता ।
यद्यपि
भारतेंदुकालीन लोक साहित्य में राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों की विशद
विवेचना हुई है, किन्तु जहाँ तक सामाजिक सरोकारों का प्रश्न
है, भारतेंदु कालीन साहित्यकार इस विषय में अधिक निर्भय, अधिक जिम्मेदार, अधिक स्पष्ट व अधिक मुखर हुआ है ।
विशेषकर नारी की सामाजिक स्थिति पर इस काल-खंड में बहुत कुछ लीक से हट कर लिखा गया
है । नारी संबंधी अनेक संवेदनशील पहलुओं को मानवीय धरातल पर पहली बार इसी समय
उतारा गया है ।
विवेचनाधीन
काल खंड में समाज में सामाजिक पाखंड और आडंबर चरम सीमा पर थे। ये पाखंड और आडंबर भारतीय
समाज में अनेक बुराइयों को जन्म दे रहे थे । बड़ी बुराई थी- नारी की सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट।जिस नारी के बारे
में कहा जाता था कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं-यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता, वही नारी अब राजप्रासादों में उपभोग की वस्तु
होकर रह गई थी। सामन्ती वर्ग में ही नहीं
माध्यम तथा निम्न वर्ग में भी नारी की स्थिति कुछ अच्छी न थी। शिक्षा हो या अन्य रीति रिवाज, पहले जहाँ पुरुष के साथ उसका बराबरी की सहभागिता थी, अब वह पुरुष की दया व इच्छा पर निर्भर रहने वाली निरीह प्राणी हो गई थी। बाल
विवाह, बाला- वृद्ध विवाह, बहु विवाह, सती प्रथा, परदा प्रथा, दहेज प्रथा,
अशिक्षा आदि जितनी भी सामाजिक बुराइयाँ थीं, नारी उन सभी का
केंद्र बिन्दु थी।
कहना न होगा
कि सत्ता जागीरदारों या सामंतों के हाथ में आ जाने से निरंकुशता का वातावरण बन गया
था। ‘जिहि की बिटिया सुंदर
देखी, तिहि पर जाय धरी तलवार’जैसे वातावरण में बिटिया को बचाने का एक ही तरीका था- बाल
विवाह। इन्हीं बाल विवाहों के कारण स्त्रियाँ छोटी उम्र में ही विधवा होने लगीं।
जब विधवा के पुन: विवाह करने पर धर्म ने रोक लगाई तो समाज में व्याभिचार फैलने
लगा। वेश्यावृत्ति बढ़ने लगी। भारतेन्दु जी
की पंक्तियां द्रष्टव्य हैं:
करि
कुलान के बहुत ब्याह बल-बीरज मार्यो ।
विधवा-ब्याह
निषेध कियो विभिचार प्रचार्यों ।1
नारी का व्याभिचारी स्वरूप : रीतिकालीन परिवेश में हम नारी के भोग्या स्वरूप का ही
दिग्दर्शन पाते हैं। इस युग के पश्चात आरंभ हुए भारतेंदु युग में भी नारी की
स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। वेश्यावृत्ति चरम सीमा पर थी। मान-मर्यादा, कुलीनता, सतीत्व जैसे शब्द शब्दकोशों में सिमट गए थे। भारतेंदु
लिखते हैं: स्त्री और बिजली जिससे छू गई, वह गया।
गया भी ऐसा कि फिर न उभरेगा॥2
विवाहिता होते हुए भी सुंदर स्त्रियाँ अपनी सुंदरता , चंचलता व मोहक हाव भावों से पुरुषों को अपनी
ओर आकर्षित करती थी। इनके रूपजाल से निकल पाना पुरुषों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता था।
वेश्या
: अशिक्षा, बाल विवाह, वैधव्य
वृद्ध विवाह आदि कई कारणों से स्त्री का
सामाजिक पतन बहुत तेजी से होता जा रहा था। इस पतन की अंतिम परिणति थी
वेश्यावृत्ति।स्त्री के वेश्या स्वरूप को लेकर शासक, शासित, छोटे-बड़े, ऊँचे –नीचे, किसी को
भी कोई आपत्ति न थी। इन सामाजिक बुराइयों पर भारतेन्दु जी सटीक व्यंग्य करते हैं :
“नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥
कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग लुगाई॥
जात पाँत पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥
वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना”॥ 3
कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग लुगाई॥
जात पाँत पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥
वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना”॥ 3
भारतेंदुकालीन समाज में वेश्यावृत्ति चरम सीमा पर थी । समाज
में वेश्याओं का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि लोग अपनी विवाहिता स्त्री तथा बच्चों की
तरफ ध्यान न देकर वेश्याओं की पूजा करते थे। भारतेन्दु जी अपने नाटक ‘प्रेम योगिनी’ में लिखते हैं :
“आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी।
आधी कासी रंडी मुंडी राँड़ खानगी खासी “।।
आधी कासी रंडी मुंडी राँड़ खानगी खासी “।।
तथा
“घर
की जोरू लड़के भूखे बने दास औ दासी।
दाल की मंडी रंडी पूजै मानो इनकी मासी” ।।4
दाल की मंडी रंडी पूजै मानो इनकी मासी” ।।4
समाज के शासक वर्ग, माध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग- तीनों ही वर्गों में विलासिता चरम सीमा पर
थी । शासक वर्ग में यह शासकों की कुत्सित व कामुक प्रवृत्ति से फल फूल रही थी ।
माध्यम वर्ग में उच्च वर्ग के अंधानुकरण के कारण इसका प्रसार था तो निम्न सामाजिक
वर्गों में यह मजबूरी तथा जरूरत के कारण
फैल रही थी। एक ओर हिन्दू धर्म के
ठेकेदारों ने विधवा विवाह निषेध कर दिया था । दूसरी ओर अंग्रेज सरकार की लूट खसोट
की प्रवृत्ति के कारण समाज में गरीबी बढ़ती
ही जा रही थी । अत: वेश्यावृत्ति के अनेक रूप विकसित होने लगे । बाल विधवाएं सन्यासिनों के वेश में भी
प्रकारांतर से धार्मिक वेश्यावृत्ति ही कर रही थीं । बाजार के बीच में बैठ कर अपनी
अस्मिता का सौदा करने वाली वेश्याएँ भी पेट की आग के सामने बेबस हो कर न चाहते हुए भी उस घृणित कार्य को करने के लिए
अभिशप्त थीं ।
तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति के अनेक उदाहरण भारतेंदुकालीन
साहित्यकारों की रचनाओं में मिलते हैं । स्वयं भारतेंदु जी के नाटकों में ऐसे अनेक
उदाहरण मिलते हैं, जिनसे तत्कालीन समाज
में फैली वेश्यावृत्ति का सहज ही अनुमान हो जाता है । ऐसा ही एक उदाहरण उनके नाटक
प्रेम जोगिनी से प्रस्तुत है :
........जहाँ अनेक रंगों के कपड़े पहने सोरहो सिंगार बत्तीसो
अभरन सजे पान खाए मिस्सी की धड़ी जमाए जोबन मदमाती झलझमाती हुई बारबिलासिनी
देवदर्शन वैद्य ज्योतिषी गुणी-गृहगमन जार मिलन गानश्रावण उपवनभ्रमण इत्यादि अनेक
बहानों से राजपथ में इधर-उधर झूमती घूमती नैनों के पटे फेरती बिचारे दीन पुरुषों
को ठगती फिरती हैं और कहाँ तक कहैं काशी काशी ही है। काशी सी नगरी त्रौलोक्य में
दूसरी नहीं है। आप देखिएगा तभी जानिएगा बहुत कहना व्यर्थ है.5 .........
विधवाओं की स्थिति : अनमेल विवाहों के कारण भारतेंदु युग में स्त्रियाँ बड़ी संख्या
मे विधवा हो जाती थी। भारतेंदु स्वयं स्त्रियों के असमय वैधव्य से आहत तथा दुखी
थे। अपने
प्रहसन व व्यंग्य प्रधान नाटक ‘ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ में भारतेंदु जी ने एक
बंगाली पात्र के माध्यम से अपना मत व्यक्त किया है। नाटक का संदर्भित अंश प्रस्तुत
है :
“पतीहीना तु या नारी पत्नीहीनस्तु नः पुमान्।
उभाभ्यां षण्डरण्डाभ्यान्न दोषो मनुरब्रबीत ।।
(सब चकित होकर), ऐसा मालूम होता है कि कोई पुनर्विवाह का स्थापन करने वाला बंगाली आता है। बड़ी धोती पहिने बंगाली आता है,
बंगाली : अक्षर जिसके सब बे मेल, शब्द सब बे अर्थ न छंद वृत्ति, न कुछ, ऐसे भी मंत्र जिसके मुँह से निकलने से सब काय्र्यों के सिद्ध करने वाले हैं ऐसी भवानी और उनके उपदेष्टा शिवजी इस स्वतंत्र राजा का कल्याण करैं। राजा को दण्डवत् करके बैठता है,
(सब चकित होकर), ऐसा मालूम होता है कि कोई पुनर्विवाह का स्थापन करने वाला बंगाली आता है। बड़ी धोती पहिने बंगाली आता है,
बंगाली : अक्षर जिसके सब बे मेल, शब्द सब बे अर्थ न छंद वृत्ति, न कुछ, ऐसे भी मंत्र जिसके मुँह से निकलने से सब काय्र्यों के सिद्ध करने वाले हैं ऐसी भवानी और उनके उपदेष्टा शिवजी इस स्वतंत्र राजा का कल्याण करैं। राजा को दण्डवत् करके बैठता है,
राजा : क्यों जी भट्टाचार्य जी पुनर्विवाह करना या नहीं।
बंगाली : पुनर्विवाह का करना क्या! पुनर्विवाह अवश्य करना। सब शास्त्र को यही आज्ञा है, और पुनर्विवाह के न होने से बड़ा लोकसान होता है, धर्म का नाश होता है, ललनागन पुंश्चली हो जाती है जो विचार कर देखिए तो विधवागन का विवाह कर देना उनको नरक से निकाल लेना है और शास्त्र की भी आज्ञा है।
”नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।।
ब्राह्मणों ब्राह्मणों गच्छेद्यती गच्छेत्तपस्विनी।अस्त्री को विधवां, गच्छेन्न दोषो मनुरब्रवीत्”।6
बंगाली : पुनर्विवाह का करना क्या! पुनर्विवाह अवश्य करना। सब शास्त्र को यही आज्ञा है, और पुनर्विवाह के न होने से बड़ा लोकसान होता है, धर्म का नाश होता है, ललनागन पुंश्चली हो जाती है जो विचार कर देखिए तो विधवागन का विवाह कर देना उनको नरक से निकाल लेना है और शास्त्र की भी आज्ञा है।
”नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ।।
ब्राह्मणों ब्राह्मणों गच्छेद्यती गच्छेत्तपस्विनी।अस्त्री को विधवां, गच्छेन्न दोषो मनुरब्रवीत्”।6
भारतेंदु
काल में कवियों ने नारी को भोग की वस्तु न
मान कर समाज का एक महत्वपूर्ण अंग माना। उसकी समस्याओं को न केवल वाणी दी, बल्कि उन्हें सर्वांग हल करने के तमाम उपाय
भी सुझाए। पंडित प्रताप नारायण मिश्र के शब्दों में यह वेदना इस प्रकार प्रस्फुटित
हुई है :
“कौन
करेजो नहिं कसकत सुनि बिपत बाल-बिधवन की है
।
ताते
बढि कै, क्रंदना कान्यकुब्ज
कन्यन की है ॥
बैर
परे पितु-मात बनाई युवती बाल वृद्धन की है।
पशु
सम समझी, जाति नहीं बनिता ऋषि
वंशज की है॥
काहे
न कलपै जियत खसम पर हा जेहि भसम रमाई है “॥ 7
अनमेल
विवाह से प्रभावित नारी : संस्कृत
में एक उक्ति है- आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति। अभिप्राय है कि जब विपत्ति आती है तो
उस समय मर्यादा का अनुपालन करना गैरजरूरी होजाता है।भारतेंदु युग ऐसा समय था, जब भारत की अधिकांश जनताभयंकर गरीबी, बेकारी,-
लाचारी और
विदेशी शासकों के अपमानजनक व्यवहार से जूझ रही थी। अस्तित्व का संकट मुँह बाए खड़ा
था। नैतिक मूल्य गौण हो गए थे। ऐसे
परिदृश्य में सम्पन्न वर्गों के अधेड़ और बूढ़े
निर्धन घरों से अल्पवयस्क कन्याओं के माता-पिता को धन देकर विवाह कर लेते
थे। तत्कालीन कवियों नें इस अत्याचार को देखा। और न केवल देखा, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से इस कुप्रथा
का विरोध भी किया। भारतेंदु युग के
साहित्यकार बदरी नारायण चौधरी ’प्रेमघन’ ने बाल विवाह की भुक्तभोगया बाला को अपनी सशक्त वाणी देकर तत्कालीन
सामाजिक बुराई के प्रति आक्रोश प्रकट किया है । अपनी तद्विषयक रचनाओं में बाला को
वाणी देकर प्रेमघन जी ने समाज की अंतर्धारा में सक्रिय तमाम स्वार्थों, लिप्साओं व षड्यंत्रों को बेनकाब करने का सफल प्रयास किया है :
चल: हट: जीनि झांसा पट्टी हमसे बहुत बघार: रामा ।
हरि हरि फुसलाव: जिनि दै दै बुल्ला बाला रे हरी ॥
लालिच काउ दिखाव: हम ना परिहब झुलनी झूमक रामा ।
हरि हरि चंपाकली टीक, ना बुंदा बाला रे हरी ॥
आगि लगै तोहरी जरतारी- सारी, लहंगा, चोली रामा।
हरि हरि तूहऊँ कं धरि खाय नाग कहुं काला के हरी ॥
हम ना चाही राजपाट धन धाम तोहार गुलामी रामा।
हरि हरि नाव और के लिख: मकान कबाला के हरी ॥
असी बरस कै भय: बूढ़ तूँ, जेस हमार परपाजा रामा॥
हरि हरि हम बारहै बरिस कै अबही बाला रे हरी ॥
जब लगे जवानी हम पर तब तक तूँ मरि जाय: रामा॥
हरि हरि तब हमार फिर होय: कवन हवाला रे हरी॥8
बाल विवाह : आलोच्य
कालावधि में जिन सामाजिक विकृतियों के
प्रति साहित्यकारों का आक्रोश व्यक्त हुआ है- उनमें बाल विवाह की प्रवृत्ति प्रमुख
है. उस काल के प्राय: सभी प्रमुख लेखकों ने इस कुरीति का घोर विरोध किया है.
प्रेमघन कहते हैं : “ ऐसी अवस्था में ऐसी निर्दयता,कठोरता और अन्याय के साथ जो विवाह प्राय:
बाल्यावस्था में ही किया जाता है, यद्यपि उससे जो जो
आपत्तियाँ आती हैं उनका वर्णन असंभव है, पर तो भी यह
प्रसिद्ध है कि ऐसे ब्याह से आपस की प्रीति और मेल कैसे उत्पन्न होने की संभावना
हो सकती है। अन्याय प्रकृति का प्रतिकूल
होना हरअवस्था मे दुख का विषय है किन्तु इस स्थान पर धर्माधर्म तथा शास्त्राज्ञा
का कुछ भी विचार नहीं करते”9 ।
बाल विवाह पर तीखा व्यंग्य करते हुए पंडित बाल कृष्ण भट्ट ने
लिखा है : “ दुहिता के जन्म दिवस के पाँचवें दिन विवाह कर कर दिया करो। ऐसा न हो कि कन्या कहीं
रजस्वला हो जाय नहीं तो धर्म ही भ्रष्ट हो जाएगा और इक्कीस पुरखा नरक मे पड़े पड़े
चिल्लाया करेंगे ।
महाकृपणता से कौड़ी –कौड़ी माया जोड़ो पर लड़कों के ब्याह मे
गँजिया की गँजिया लुढ़का दिया करो ।......... काल अब बड़ा कराल आया है। कहीं ऐसा न
हो कि तुम्हारी दुर्बुद्धि का शोधन हो जाय तो फिर दुर्व्यसन, खुदगर्जी, फिजूलखर्ची, बाल्यविवाह, बैर फूट आदि बेचारे किसके सहारे
रहेंगे”10 ।
अशिक्षा : नारी
शिक्षा के प्रति माता पिता की उदासीनता के कारण स्त्री प्राय: अशिक्षित ही रह जाती
थी। यदि कोई लड़की पढ़ भी जाती थी तो उसके विवाह में बहुत परेशानियाँ आती थी। यही
कारण था कि माता-पिता लड़की को पढ़ाते लिखाते ही नहीं थे। परिणाम स्वरूप उसका मानसिक
व बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता था। परिवार तथा समाज में सम्मानजनक
स्थिति न होने के
कारण भारतेन्दु काल में नारीविभिन्न
सामाजिक अवसरों एवंउपलब्धियों से
वंचित रही। यहाँ तक
कि परिवार उसे शिक्षा देना भी जरूरी नहीं समझता था। तर्क यह दिया जाता था कि यदि
स्त्री लिख पढ़ गई तो उसे ‘योग्य’ वर नहीं मिल सकेगा। शायद तभी भारतेंदु जी ने स्त्री शिक्षा को ध्यान में
रखते हुए स्त्रियों के लिए ‘बालबोधिनी’
नाम की पत्रिका का 1874 में प्रकाशन आरंभ किया।
इस युग में प्रकाशित होने वाली प्रमुख पत्रिकाएं थीं :
1
|
1867
|
कविवचन
सुधा
|
भारतेंदु
हरिश्चंद्र
|
काशी
|
2
|
1868
|
वृत्तांत
दर्पण
|
पं
सदासुख लाल नियाज़
|
काशी
|
3
|
1874
|
हरिश्चंद्र
मैगजीन
|
भारतेंदु
हरिश्चंद्र
|
काशी
|
4
|
1874
|
श्री
हरिश्चंद्र चन्द्रिका
|
भारतेंदु
हरिश्चंद्र
|
काशी
|
5
|
1874
|
बाल
बोधिनी
|
भारतेंदु
हरिश्चंद्र
|
काशी
|
6
|
1874
|
स्त्रीजन
की प्यारी
|
भारतेंदु
हरिश्चंद्र
|
काशी
|
7
|
1877
|
हिन्दी
प्रदीप
|
बालकृष्ण
भट्ट
|
प्रयाग
|
इनमें ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’,’ बाल बोधिनी’ तथा ‘स्त्रीजन की प्यारी’
पत्रिकाएँ नारी के सामाजिक परिवेश से जुड़ी
थीं।
निष्कर्ष
: भारतेंदु युग के लोक साहित्य में नारी संबंधी सामाजिक बोध पूरी ईमानदारी से
व्यक्त हुआ है। नारी जीवन से जुड़ी अनेक विसंगतियों को लोक शैली के माध्यम से इस
काल खंड के साहित्यकारों ने उभारा। बाल विवाह, विधवा विवाह, बाला-वृद्ध विवाह, नारी के वेश्या स्वरूप पर तीखे कटाक्ष इस युग के साहित्य में दिखाई पड़ते
हैं।
इसके पूर्व रीतिकालीन साहित्य में नारी जहाँ मात्र उपभोग की
वस्तु समझी जाती थी, भारतेंदु युग में
उसे पुरुषों के बराबर प्रतिष्ठा देने का आग्रह झलकता है।
नारी संबंधी यही सामाजिक बोध परवर्ती साहित्य में अनेक कवियों
का प्रेरणा स्रोत बना। महाकवि जयशंकर प्रसाद को भी कहना पड़ा-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पल तल में ।
पीयूष स्रोत सी बहा करो,जीवन के सुंदर समतल में ।
संदर्भ ग्रंथ :
1. भारतेंदु
समग्र : भारत दुर्दशा : पृष्ठ 462
2. भारतेंदु
समग्र : भारत दुर्दशा : पृष्ठ 419
3.भारतेंदु
समग्र : अंधेर नगरी : पृष्ठ534
4. भारतेंदु समग्र : प्रेम जोगिनी : पृष्ठ 411
5.भारतेंदु
समग्र : प्रेमजोगिनी : पृष्ठ 412
6. भारतेंदु समग्र : वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति :
पृष्ठ 311
7. प्र.मि.
रचनावली-1 : पृष्ठ: 105-106
8. प्रेमघन
सर्वस्व :प्रथम: पृष्ठ 535-536
9. प्रेमघन सर्वस्व : द्वितीय: पृष्ठ 187
10. हिन्दी प्रदीप : बालकृष्ण भट्ट : मई 1878 : पृष्ठ 4-6
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