पीठ
पर चिपके अवांछित
लोक
के वेताल को ढोता हुआ निरुपाय तंत्र हूं मैं ।
निष्प्रयोजित
लोक के इस भार को यूं लाद कर
और
कितनी दूर तक मैं जा सकूंगा-
कह
नहीं सकता ।
अनवरत
चलते विकास के यज्ञ में
दे
चुके हो लोक तुम पूर्णाहुति
हड्डियों
के एक ढांचे के सिवा
संपदा
के नाम पर
कुछ
भी नहीं बाकी तुम्हारे पास ।
लोक
अब तुम बोझ हो मुझ तंत्र पर
एक
पग भी चल नहीं पाता
तुम्हारे
भार को लेकर विकल हूं मुक्ति पाने को
तुम्हारे
अस्थिपंजर से ।
लोक
के कंकाल तुमसे प्रार्थना है-
ज़िंदगी के चंद लमहे और दे दो ।
छोड
दो मुझको मेरे ही हाल पर ।
तुम्हारे
बोझ से विचलित हुआ जाता -तुम्हारा मित्र
तंत्र
हूं मैं ।
•
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें