व्यंग्य- आबादी बढ़ने दो


        ‘वह दिन‘ -जब हमने सौ करोड़ का आंकड़ा पार किया- हमारे इतिहास का सुनहरा दिन था। कुछ विद्वानों की सलाह थी कि उस तारीख़ को ‘उत्पादकता दिवस’ के नाम से मनाया जाए । किसी का कहना था कि ‘उत्पादकता दिवस’ को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाए । किसी देश-प्रेमी का सुझाव था कि इस ‘उत्पादकता दिवस’ पर छुट्टी तो हो मगर झंडारोहण समारोह  के बाद। उस दिन हम सब शपथ लें कि ‘अपनी आबादी को इसी तरह दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ाने में कोई कोर-कसर न छोड़ेंगे।


            अगर ग़रीबी की वजह से हम बच्चों का इलाज़ न भी कर सकें या उन्हें तन ढकने को कपड़ा न भी दे सकें -तब भी आबादी बढ़ाने के राष्ट्रीय कार्यक्रम को हम सच्ची निष्ठा से आगे बढ़ाते रहेंगे। कई बार जब बच्चे भूखे पेट सोएंगे या बगैर पलक झपकाए बुखार में कांपते, बड़बड़ाते-सारी रात गुजार देंगे तब भी हमारा दिल नहीं पसीजेगा । हम अपने दिलों से यह बेहूदा ख़याल निकाल देंगे कि-‘परिवार छोटा रखना चाहिए ।’
            ऐसे-ऐसे कई सुझाव समय- समय  पर हमारे उन विद्वानों को मिले-जो जनसंख्या पर नीति बनाते हैं और खुशी की बात है कि हर एक सुझाव पर बाकायदा विचार किया जाता रहा।


            इन सुझावों के मद्देनजर आबादी को हमने ‘ऊपर वाले की मरजी’ पर छोड़ दिया है। क्योंकि होता वहीं है, जो मंजूरे खुदा होता है। उसकी मरजी के बगैर एक पत्ता तक नहीं हिलता। नीचे वालों की क्या बिसात कि ऊपर-वाले की मंशा के ख़िलाफ़ जुबान भी खोलें ? न फ़ौरन जीभ जल जाय, या मुंह में कीड़े पड़ जायें- तो कहना। हम तो सिर्फ़ ‘जरिया’ हैं, खेल उसी का है । और जब ऊपरवाले ने दर्जनभर बच्चे दिये हैं तो घबराने की कोई जरूरत नहीं, जिसने सर दिया है, सेर भी वही देगा। हमें तो आसमान के सितारों को तोड़-तोड़ कर धरती की गोद में भरते जाना है। इससे आगे सोचने की अपने को क्या पड़ी ? आगे सोचेगा ऊपरवाला, जिसकी रज़ा से रूहें धरती पर उतर रही हैं।

            वैसे जनसंख्या को लेकर कई बार बड़े-बड़े नेता भी धोखा खा जाते हैं जैसे कि नेहरूजी ने एक दफे कहा- ‘जितनी तरक्क़ी हम पंचवर्षीय योजना में करते हैं, उससे दुगनी हमारी आबादी बढ़ जाती है और तरक़्क़ी-पानी में तिनके की तरह बह जाती है।’


            अब इसमें भला क्या दोष अपना ? आनेवाले और जानेवाले को आज तक कौन रोक पाया ? फिर नेहरूजी किस खेत की मूली थे ?

            बताते हैं- चीन हमारी बढ़ती आबादी से बड़ा परेशान है। उसे हमारी आबादी से डर लगने लगा है। वह घटता जा रहा है, हम बढ़ते जा रहे हैं। खुदा रहम करे-सिर्फ़ चार-पांच बरस कोई जलजला न आ जाय, महामारी न फैले, सूखा न पड़े, बाढ़ न आये- तो पांच साल बाद आबादी के पायदान पर हम दुनिया मे सबसे ऊपर होंगे। चीन हमसे नीचे, दूसरे नंबर पर आ जायेगा। बड़ा ऐंठा फिरता है अपनी एक अरब तीस करोड़ की नफ़री पर। अबे एक अरब बीस करोड़ की हैसियत तो हो ही गयी अपनी भी ! अब पहला नंबर हासिल करने में कसर है ही कितनी ?

            एक ज़माना ऐसा भी था- जब हम आबादी की क़ीमत से वाकिफ़ न थे। हमारे सरफिरे नुमाइंदों ने कुदरत के इस खेल में रोडे़ अटकाने चाहे। कहने लगे थे- ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’, जब बात नहीं बनी तो कहने लगे- ‘बस दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे‘। सुना था-इसके बाद उनका नारा था- ‘बच्चा एक ही अच्छा’। और इस कड़ी का सबसे नया तोहफ़ा है डिंक यानी ‘डबल इनकम- नो किड’, दोनो मियां-बीवी कमायें- खायें। बच्चा एक भी न हो।


            मगर गनीमत है, हमारी समझदार पब्लिक इस झांसे में नहीं आयी, और तन-मन-धन से आबादी बढ़ाने मे लगी रही। किसी अन्य देश की जनता होती तो खा जाती गच्चा।

            चीन की ही तरह कुछ मुल्क और भी हैं- जिन्हें हमारी आबादी की बिलबिलाती फसल फूटी आंख नहीं सुहाती। इसकी वजह एक ही है- उन मुल्क़ों की आबादी घटती चली जा रही है ।  उन्हें टेंशन है कि आबादी बढ़ाई कैसे जाए ? हिन्दुस्तान की जनसंख्या को ओलंपिक में सोना जीतने से रोका कैसे जाए ? ऐसे मुल्क़ों को हम सुख का संदेश भेज सकते हैं कि आप लोग तनिक भी चिंता न करें। हम हैं न आपकी सेवा में हाजिर। आबादी बढ़ाने के मूल-मंत्र हम आपको ज़रूर सिखा देंगे, बशर्ते आप हमारी की बंपर फसल पर नज़र न लगाएं ।

            आबादी-विशेषज्ञों के प्रतिनिधिमंडल बना-बना कर हम ज़रूरतमंद देशों में भेज सकते हैं। ये विशेषज्ञ वहां जाकर जांच करें और पता चलाएं  कि वहां आबादी क्यों नहीं बढ़ती।

            सूना है- घटती आबादी के मारे एक देश ने हमारी झोपड़पट्टियों में घुसकर खोज की थी कि यहां की बढ़ती जनसंख्या का राज क्या है ? उस खोज से पता चला कि हिन्दुस्तान के आम आदमी के पास मनोरंजन के बहुत कम साधन होते हैं। कुदरत तो इंसाफ पंसद होती है न ! तुम्हें मनोरंजन के ढेरों साधन दिए तो औलादें कम दीं। हमें मनोरंजन के थोड़े से साधन दिए तो औलादें छप्पर फाड़ कर दे दीं ! हिसाब बराबर।

            जनसंख्या ज़्यादा होने के अनेक फायदे हैं। अरब शेखों के यहां नौकरानियां जरूरत के हिसाब से जितनी चाहो- भेजी जा सकती हैं। शारजाह में ऊंटों की रेस के लिए बच्चे सप्लाई किये जा सकते हैं। कनाडा को पंजाब में, मारीशस और मॉरीशस व  फिजी को बिहार में बदला जा सकता है। लंदन को लुधियाना और सूरीनाम को उत्तर-प्रदेश में तब्दील किया जा सकता है । यहां तक कि अमरीका की अर्थव्यवस्था में भी सेंध लगाई  जा सकती है।

            इतना ही नहीं, आबादी बढ़ती है तो सस्ते मज़दूर भी बढ़ते हैं। इस बहाने से विदेशी मुद्रा खूद चलकर आपके देश मे पहुंचती है। तमाम दुनिया का माल आपके यहां बिकने आता है। आप भले ही बना कुछ न सकें, बेच भी न सकें-मगर घर बैठे बिक तो जाते हैं न ! ये क्या कम बात है ?

            आबादी का ग़रीबी से पुराना रिश्ता है। जिस देश की आबादी ज़्यादा होगी- वह देश उतना ज़्यादा ग़रीब होगा और जो देश गरीब होगा वह अनपढ़, बीमार, भूखे और नंगे लोगों का देश होगा। ऊपर वाले से डरेगा। और जिस देश की जनता की ऐसी हालत होगी, उस देश का नेता सबसे ज़्यादा भाग्यशाली, सबसे अमीर और सबसे स्वस्थ होगा।

            अतः हम सभी देशवासियों का फ़र्ज बनता है कि अपने नेताओं के भाग्य, स्वास्थ्य और बैंक बैलेंस की बढ़ोतरी के लिए- आबादी बढ़ाने में जी-जान से जुट जाएं । 

देश के कोने-कोने को इंसानों से पाट दें। 

जूठन के ढेरों पर से कुत्तों, सुअरों का एकाधिकार हटाकर इंसान की औलादों का अधिकार स्थापित करें। 

बीमारों की तादाद बढ़ाए रखकर दवा बनानेवाली कंपनियों को स्वस्थ रखें। बाहर से गेहूं आने दें, गैस आने दें। 

यहां से गाढ़ी विदेशी मुद्रा बाहर जाने दें। जै हिंद।

(समाप्त)


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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