पिछले दो-तीन बरसों से संवेदना जी की
हालत ज़्यादा बिगड़ गई थी। वजह थी- ज्यादा भाग-दौड़। एक ज़ान को हजार काम। कहीं
ख़ुदकुशी करते किसानों के यहां भागना, तो कभी
राजस्थान के अस्पतालों में भरती किसानों का हाल-चाल पूछना, उनकी
रो-रो कर कही आप बीती सुनना कि बिजली-पानी की मांग करने पर उन्हें पुलिस के हाथों
किस बेरहमी से पिटवाया गया। जब किसानों को जलियांवाला बाग की तरह घेर कर लाठियों
से पीटा जा रहा था, ठीक उसी वक़्त मुख्यमंत्री रैंप पर फ़ैशन
शो देख रही थीं। संवेदनाजी को रोते-बिलख़ते उन किसानों के यहां भी जाना पड़ रहा था,
जिनके उपजाऊ खेत स्पेशल इकनामिक जोनों की बलि चढ़ गए थे।
अभी रोते-बिलखते किसानों के आंसू
पोंछने से फुर्सत मिल भी न पाती कि आरक्षण का विरोध करते हड़ताली छात्रों पर
पुलिसिया कहर की ख़बर पहुंच जाती। सर फुड़ाये और हाथ-पैर तुड़ाये छात्रों के पास
संवेदनाजी फ़ौरन अस्पताल पहुंच जातीं। छात्र अपना दुखड़ा सुनाते कि संवेदनाजी ये
सनकी इस देश की शिक्षा का क्रियाकर्म करने पर उतारू हैं। इन पागलों से हमें बचाइए
प्लीज़।
उधर अपने अफ़सरों को मारकर ख़ुद को गोली
से उड़ा रहे फ़ौजियों की दर्दनाक दास्तान भी सुनाई देने लगी थी। कडे़ अनुशासन के नाम
पर फ़ौजियों के साथ किया जा रहा जुल्म तमाम बंदिशें तोड़कर मीडिया तक पहुंचने लगा।
मृतक फ़ौजियों की विधवाओं के आंसू पोंछने गांव-गांव,
शहर-शहर जाती संवेदना जी बहुत थक गयी थीं, और
आराम की उन्हें सख़्त ज़रूरत थी।

इस भागम-भाग में संवेदना जी थक कर चूर
हो गयी थीं। वह कुछ दिन किसी हिल स्टेशन पर अज्ञातवास करना चाहती थी। इसी ख़्याल से
वह उत्तराखंड के दुर्गम में जा पहुंची।
चीड़ के दरख़्तों के बीच बसा था वह छोटा
सा बाजार, जिसकी एक चोटी पर बने गेस्ट
हाउस में ठहरी थी संवेदना जी। रात बड़े सुख से कटी पर सुबह उठते ही उनके कानों से
नारों का शोर टकराया। खिड़की खोलकर देखा- एक अच्छा खासा जुलूस उन्हीं के पास आ रहा
था।

पहाड़ी लोगों की व्यथा-कथा सुनकर
संवेदना जी को गहरा सदमा पहुंचा । उन्होंने फ़ैसला किया कि जन-भावनाओं को विकास
पुरूष तक वे जरूर पहुंचाएंगी।
बेहद थकी हुई संवेदना जी जब विकास-पुरूष
के पास पहुंची तो लाल बत्ती का हेल्मेट पहने एक खूबसूरत लड़की उनके साथ झूले पर झूल
रही थी।
संवेदना जी ने लोगों की भावनाएं
प्रस्तुत कीं तो विकास पुरूष गंभीरता पूर्वक मुस्कराए और कहने लगे- आपने अमरप्रेम देखी थी संवेदना जी
?
उसमें हीरो एक गाना गाता है- कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। छोड़ो बेकार की बातों में, कहीं
बीत न जाए रैना....। आपको भी सलाह देता
हूं। भावनाओं, जज्बातों से ऊपर उठिए, चैरासी
लाख योनियों के बाद ये जो मनुष्य योनि मिली है, इसे यूं ही
वेस्ट मत कीजिए, इसका भरपूर आनंद उठाइए। जो सामने है सिर्फ़
वही सच है। बाक़ी ये स्वर्ग-नर्क की कल्पनाएं हमीं राजनीतिज्ञों ने बुद्धिजीवियों
से ठेके पर गढ़वाई हैं।
वे साधू-महात्मा पब्लिक को परलोक के
मायाजाल में फंसाते हैं। हम नेता उन महात्माओं की रोज़ी-रोटी का,
उनके ऐशो-आराम का ध्यान रखते हैं। और जहां तक सवाल है पक्षपात का,
तो पब्लिक को उलाझाकर रखने के लिए हमें कुछ न कुछ तो करना ही पडे़गा
न ? बांटो और राज्य करो की नीति अंग्रेज हमें जाते-जाते सिखा
ही गए थे। बस उसी का प्रयोग आज साठ-बरसों
से हम सफलता पूर्वक करते आ रहे हैं। आप भी ऐश करिए कहां इनके चक्करों में पड़ी हैं ? एक एनजी ओ खोलिए । ग्रांट हम देते है। बस सुख पूर्वक चैन की बंसी बजाइए ।
विकास पुरूष के मुंह से यह सुनकर
संवेदना जी अवाक रह गईं । सत्ता की चोटी पर बैठे लोग इतने निष्ठुर,
इतने स्वार्थी, इतने ग़ैर ज़िम्मेदार भी हो सकते
हैं-उन्हे पहली बार पता चला। फिर भी उन्होंने अपनी बात रखी- विकास पुरूष जी,
आप बड़े-बड़े पूंजीपतियों को लाकर यहां बसा रहे हैं- इससे सिर्फ़ इतना
फ़ायदा होगा कि यहां के कुछ लोग नौकर बन जाएंगे। मगर आप कोआपरेटिव बेसिस पर कोई
प्रोजेक्ट क्यों नहीं चलाते ताकि यहां के लोग सिर्फ़ नौकर ही न बने रहें, बल्कि वे मालिक बनें। अपना और अपने भाइयों का भाग्य ख़ुद तय करें । किसी
बाहरवाले के मोहताज़ न रहें।
इस पर विकास पुरूष उपेक्षा से हंसे। मानों कह
रहे हों- संवेदना जी पढ़े गुने जाट सोलह
दूनी आठ। इतना लंबा लेक्चर आपको पिलाया। सरकारी ग्रांट की ओपन आफ़र भी दी,
मगर आप तब भी उन दबे-कुचलों की गाथा गाती रहीं। आपकी क़िस्मत में
राजसुख नहीं है। आइ एम सॉरी संवेदना जी।

जिस वक्त संवेदना जी घर पहुंची,
बांध विस्थापित उनका इंतज़ार कर रहे थे। बिजली-पानी के बेतुके बिलों
से परेशान गृहणियां अलग जुलूस में आई थीं
और संवेदना जी से अपने साथ धरने पर बैठने
की मांग कर रही थी। उपज का समर्थन मूल्य बढ़वाने के लिए किसानों का जुलूस भी उनके
समर्थन की आस लगाए बैठा था। सरकारी कर्मचारी बेतहाशा बढ़ती महंगाई की एवज में
महंगाई भत्ते में भारी बढोत्तरी की उम्मीद से आए
थे।
सभी लोगों का साथ देने का वादा
करते-करते बेहद थकी हुई, बीमार, भूखी-प्यासी संवेदना जी घर के बाहर ही बेहोश होकर गिर पड़ीं। डाक्टरों ने
उन्हें मृत घोषित कर दिया।
उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने जो
लोग पहुंचे हैं-आप उन सभी को पहचानते हैं। बड़ी-बड़ी उपमाएं दी जा रही हैं। राष्ट्र
की अपूरणीय क्षति बताई जा रही है। उनके
व्यक्तित्व-कृतित्व पर प्रकाश डाला जा रहा है और मरणोपरांत उन्हें ‘भारत-रत्न’ कर
उपाधि दिलाने पर गंभीर विचार-विमर्श हो रहा है ।
(समाप्त)
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