व्यंग्य -- डीलों से होते हुए


   जिस पार्टी को पिछले चार साल से गुरु पानी पी पी कर कोस रहे थे, आज उसी के गीत गा गा कर नहीं अघा रहे !

    गीतमाला में थोड़ा खलल ये पत्रकार नाम के कॉकरोच जरूर डाल देते हैं. जब देखो चले आते हैं मुंह उठाए ! तीन बुलाओ तेरह आ धमकते हैं ! चलो आ गए तो मेहमान की तरह आओ, बैठो, खाओ-पीओ, जाओ. मगर कभी कभी आ जाते हैं नौसिखुवे पत्रकार. पूछने लगते हैं उल्टे सीधे सवाल. ऐसे में पड़ जाते हैं गुरु की चांद पर बल. उसे खुजाते हुए मुस्कराने लगते हैं तो कभी मुस्कराते हुए खुजाने लगते हैं. कभी देखते हैं-तरस खाती नज़रों से उस नादान पत्रकार को, कभी दंतुरित मुस्कान बिखेरते हुए निहारते हैं वीडियो कैमरे को. सोचते हैं- क्या जवाब दूं इस अनाड़ी आशिक को ?

     नादान पत्रकार पूछ बैठा था- आप लोगों का हृदय-परिवर्तन रातों रात हुआ. दुश्मनों में देवता दिखने लगे. शत्रुओं में मित्र के दर्शन हुए. बिछ बिछ गए ज़मीन पर ! लिट-लिट कर दिया समर्थन ! ऐसा क्या चमत्कार हुआ एक रात में ?

    गुरु नें दो जवाब दिये पत्रकार को-एक मुंह की आवाज़ से, तो दूसरा दिल की आवाज़ से.
मुंह की अवाज़ वाला जवाब था- इसे हिरदय परिवर्तन कहना गलत है. यह नरणय राष्ट्र-हित में लेना पड़ा.
यह कहते हुए पीड़ा उभर आई है चेहरे पर. सिद्धांतों की बलि जो देनी पड़ी राष्ट्र की बेदी पर. उफ्फ ! कितना पीड़ादायक प्रोसेस है ? एक ओर हैं आपके सिद्धांत, कि गरीबों को भिखमंगा बनाने वालों के हाथ मजबूत नहीं करेंगे. साथ देंगे उनका, जो लुटे-पिटों की बात करते हैं.एक तरफ ये सिद्धांत और दूसरी तरफ राष्ट्र ! दोनो बांहें फैलाए, दरिया में डूबता गुहार रहा है. कातर नज़रों से देख रहा है गुरु भैया की तरफ. गिड़गिड़ा रहा है कि 'उनके' बाद तुम्ही तो हो जिसने देश का नमक खाया है. वरना बाकी तो सब चोर हैं, गद्दार हैं. दुश्मन हैं देश के. बचा लो भइया. अब तुम्हारे हवाले हैं हम साथियो.

       किसका दिल नहीं पसीजेगा यह सुन कर ? तोड़ डाले सिद्धांतों के झूठे बन्धन. दौड़ पड़े हैं देश को बचाने नंगे पैर ही. बॉलीवुड की हीरोइनें भी बची-खुची लाज उतार, चील के डैनों की तरह भुजाएं फैलाए, इससे तेज़ क्या भागती होंगी पिया से मिलने ? प्यार में लज्जा नहीं.


    देश को तो बचाना ही था. मगर कुछ दुश्मन देश के भीतर चिपके हुए थे, वे भी बच गए. इसमें कहां हमारी गलती है ?

         तो एक जवाब जो पत्रकार को गुरु नें दिया, वो ये था. और दूसरा जवाब जो गुरु के डायरेक्ट दिल से निकला था- वो ये था कि - बेटे , ये सियासत के खेल हैं. तेरी बालों भरी खोपड़िया में नहीं घुसने वाले.अरे, स्वार्थ नीति में न कोई स्थाई शत्रु होता है, न कोई स्थाई मित्र होता है. जिससे डील हो जाय वही अपना हो जाता है.उसी के संग हो जाता है अपना सत्यम शिवम सुंदरम. कर ले दिल की बात आज मौका है. मिलती हैं ज़िन्दगी में ये डीलें कभी- कभी. होती है धनवरों की इनायत कभी-कभी. ऐसे सुनहरी मौकों के लिये ही तो अपुन घात लगाए बैठे थे. कब राष्ट्र संकट में आए, और कब हम संकट मोचक बन कर उसे उबारें.आज वह मौका मिल ही गया.देश का ऋण उतारने की घड़ी आ पहुंची. ये दो दीवाने देश के चले हैं देखो मिल के, चले हैं चले हैं चले हैं सरकार.

      तो मूढ़ बालक ! जे हरदय परबरतन नहीं , जे तो आत्मा की आवाज़ थी. अच्छा हुआ हमने सुन लई.बच गए सब लोग.अच्छी करी कि  सिद्धांतन के चक्कर में नहीं पड़े. वैसे भी इन सिद्धांतन का क्या है. ये तो बनते ही टूटने के लिए हैं. आज टूटे, कल जुर गए ! कल नहीं, ससुर  परसों तरसों  जुर जाएंगे.मगर देश तो नहीं न जुरता है ! वो तो एक बार टूटा तो टूटा. देश बचाने के ऐसे मौके बेर बेर नहीं मिलते मेरे लल्लू. महान लोग उस कुरूसियल घड़ी में किंतु-परंतु के घनचक्कर में नहीं परते हैं. लपक लेते हैं फौरन.

     गुरु के दिल से निकली हुई ये बात भी पत्रकार समझ गया था शायद. मगर फिर भी भरा बैठा था. जैसे ही गुरु रुके, उसने अगला गोला दाग दिया. बोला- देश सेवा में मोर्चे के बाकी दलों को क्यूं शामिल नहीं किया ? क्या एक तुम्हीं इस माटी के लाल थे ? और लोग क्या क्वात्रोची के रिश्ते मे आते हैं ? जा के सबकी तरफ से खुद ही पक्की कर ली ! अरे, जरा सा पूछ लिये होते ! अब हुआ न वही, जिसका अंदेसा था. ठीक चौराहे पे फूटी है साझे की हंडिया.सारे घटक हट गए पीछे. अरे क्या उनके वोटों की कीमत न थी? क्या जनाब उन्हें जेब में पड़ी चॉकलेट समझे बैठे थे ? इतना ही कूदने का शौक था तो इकट्ठे कूदते.ये क्या कि देखी मच्छी, फेंकी कटिया. कोलीसन धर्म की खुली तौहीन !
इस पर गुरु भइया ताव खा गए. नहीं कर पाये काबू. फट गया मुखौटा. उछल कर माइक पर आ गिरा भीतर वाला चेहरा. चिनगारियां छूटने लगी अंखियों से. लगे चीखने कोकिल कंठी- अरे कोई है ? निकालो इस कम्बख्त को बाहर ! ऐसे आराम से नहीं, लतिया कर, बाल खींच कर, घसीट कर निकालना. ज़रा मैं भी तो देखूं इसके भीतर किस गद्दार की आत्मा छिपी बैठी है ? जैचंद की होगी पक्का. नहीं तो मीर जाफर की होगी. वरना ऐसे टुच्चे सवाल ढंग की आत्मा कभी नहीं पूछ सकती.

         एक चेला पानी पिलाता है गुरु को. गुरु पसीना पोंछते हैं.पानी पी कर मीडिया को कोसते हैं. मीडिया का गुनाह ये है कि वो गुरु जी के पिछले चार साल के कारनामे दिखा रहा है. कि जब गुरु बड़े बेआबरू होकर 'उनके' कूचों से निकला करते थे, सड़ी-सड़ी गालियां देते हुए. कि जब उन्हें 'बिन बुलाए मेहमान' के खिताब से नवाजा जाता था. कि जब वे 'उनकी' गलियों से गुज़रते हुए गाया करते थे- हमका अइसा वइसा ना समझो, हम बड़े काम की चीज़. हद हो गई !चार साल तक यह काम की चीज़ कूड़े में पड़ी रही. किसी की नज़र नहीं पड़ी.हीरा चिल्लाता रहा कि अरे दीवानो, मुझे पहचानो, कहां से आया, मैं हूं कौन ?मगर किसी ने भी हीरे की गुहार नहीं सुनी.

         पत्रकार को बाहर धकियाने के बाद गुरु शिष्यों को उपदेश देते हैं-बच के रहना उस दुष्ट पत्रकार से ! जितना छोटा है उतना ही खोटा है. बड़े पैने दांत हैं उसके !मत बुलाना प्रेस कांफ्रेंस में कभी. और अगर बिन बुलाए आ गया तो ऐसा ठिकाने लगाऊंगा बच्चे को कि ढूंढते  रह जाओगे.

         अभी गुरु धीरे-धीरे 'स्व' में स्थित हो ही रहे थे कि दूसरा पत्रकार बोला-ये माना कि एक आप ही देश भक्त हैं तथा बाकी सारे दल देश द्रोही हैं, तभी तो वे डील में अड़ंगा डाल रहे हैं. मगर आपकी देश भक्ति के पीछे से भी एक अन्य डील की भीनी भीनी खुशबू आ रही है- ऐसा बताते हैं. ज़रा प्रकाश डालिये कि इधर डील को सपोर्ट किये एक घंटा भी नहीं हुआ, उधर आपने 'उन्हें' एक कारपोरेट घराने की परेशानियों की लिस्ट थमा दी.  

        गुरु फिर उखड़ गए. लगे चीखने- क्या पैसे वाले हमारे दोस्त नहीं हो सकते ? अरे, पैसे वालों से दोस्ती न करें तो लुटे-पिटों से करें? हम तो डूबे डुबाए हैं सनम, मगर तुम्हें भी ले के डूबेंगे ! दोस्ती करो अंधे से, और घर भी छोड़ के आओ !  वाह पत्रकार जी ! अच्छी पट्टी पढ़ा रहे हो ! मगर याद रखो-गुरु नहीं फंसने वाला तुम्हारे जाल में. हम गरीबों की बात करते थे, करते हैं और करते रहेंगे, क्योंकि 'गरीब' अपनी पार्टी का 'लोगो' है. मगर हमारा असली मकसद सिर्फ पैसा है. पैसे के लिये हम कुछ भी बेच सकते हैं, किसी से भी डील कर सकते हैं. नोट ही हमें शक्ति देते हैं. शक्ति से ही आत्मविश्वास आता है. और एक बार जदी कान्फीडेंस आ जाय तो  फिर दिल्ली है कितनी दूर ?

      पत्रकार नें तड़का लगाया- कोलीशन धर्म आपसे भले ही न निभा हो, मगर दोस्ती जरूर निभ गई है. खूब काम आए हैं आप दोस्तों के !

      गुरु इस बार दहाड़े नहीं, बल्कि मुस्करा कर बोले- अरे, वो दोस्त भी क्या खाक दोस्त है जो गाढ़े वक्त पर दोस्त के काम न आ सके ? और यार अगर तगड़ा मिल जाए तो मज़ा आ जाता है खेल का. मै तो कहता हूं कि किसी से दोस्ती करो तो ऐसी करो कि या तो अगले को परमानेंट अपना बना लो या फिर अगले के परमानेंट हो जाओ. अमर अकबर अंथोनी वाली दोस्ती होनी चाहिये. तीन बदन एक जान.

     पत्रकार फिर बोल पड़ा- आपके एमपी तो विद्रोह पर उतर आए हैं. ऐसे में आप सरकार कैसे बचा सकेंगे ?

      गुरु बोले- आप देखते रहिये. आने वाले दिनों में क्या क्या गुल खिलते हैं ? घोड़ों की रेस शुरू हो गई है. बोलियां लगने लगी हैं. जैसे जैसे बोली बढ़ेगी वैसे वैसे सपोर्ट भी बढ़ता चला जाएगा. क्या आप हमारी असलियत नहीं जानते ?

    पत्रकार के माथे पर चिंता की लकीरें उभरने लगीं. उसने पूछा- क्या आपने न्यूक्लियर डील का ड्राफ्ट देखा है?

       गुरु थोड़ा सा हड़बड़ाए. फिर संभल कर बोले- सब चीज़ें देख कर ही जानी जाती हैं क्या ? चलिये आप ही बताइये क्या आपने अपने माता-पिता की शादी देखी है ? नहीं न ! मगर शादी तो हुई होगी. बस ऐसे ही यह डील है. हमने नहीं देखी, मगर 'उन्होने' तो देखी होगी. उन्होने देखी, हमने देखी एक ही बात है.
'मगर देश भी तो कोई चीज़ है कि नहीं? देश के लोग, जो आपको इतने अहम फैसले करने के लिये ऊपर भेजते हैं और आप बगैर देखे हां या ना कर देते हैं? मजबूर होकर देशवासियों को देखनी पड़ती हैं ये डीलें. क्या आप सार्वजनिक करवाएंगे  डील को ?

' नहीं. ये नहीं हो सकता. ये कान्फीडेंसियल डाकूमेंट है.'

       'मगर अमेरिका में तो ये बिल बाकायदा सदन में रखा जा रहा है. वहां के सीनेटर इस पर बहस करेंगे कि ये अपने देश के खिलाफ तो नहीं जा रहा? अगर उन्हें लगा कि ये उनके फायदे का नहीं है तो वे इसे पास ही नहीं होने देंगे. जब वहां ये कॉंफीडेंशियल नहीं है तो आप लोग क्यों इसे लुकाए फिर रहे हैं ! गोपनीय बताए जा रहे हैं . चलो देश को मत बताइये. संसद को तो बताइये. संसद से ऊपर तो कोई नहीं होता न?   

      इस बार गुरु गुर्राए- झूठ ! संसद से ऊपर बहुमत होता है. डील में लाख छेद हों, अगर आपके साथ बहुमत है तो आप जीत गए. और आप तो बेटे जानते ही हैं- जो जीता वही सिकंदर.

       अब बारी पत्रकार की थी.  बोला- आप झूठ कहते हैं ! बहुमत से भी ऊपर एक और चीज़ होती है. और वह चीज़ है- डील. यह डील सिर्फ डील नहीं बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा होती है. डील से ऊपर कुछ नहीं होता. अगर होता तो आप डील के बजाय उसी की तरफ भागते.  ठीक कहा न ?

        गुरु जी धीरे से बोले- अरे नादान पत्रकार,उसी की तरफ तो भाग रहे हैं. डील तो बस मील का पत्थर है. मंज़िल तो कुरसी ही है.
  (समाप्त)  






 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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