मंगलवार, 14 जुलाई 2020

व्यंग्य- गुरु-शिष्य परंपरा


       पूरे पांच साल सत्ता से दूर रह कर सिकन्दर भाई अत्यंत दुर्बल तथा मलिन हो गए थे. चेहरे की आभा जाती रही. आत्मविश्वास टूट चुका था. दूसरों पर तो क्या, खुद अपने आप पर भरोसा नहीं रहा. 

    सपनों मे वही दिन बार बार याद आने लगे जब वह मंत्री हुआ करते थे. चाटुकारों की पूरी फौज़ पिल्लों की तरह पीछे-पीछे चलती रहती. 

   बड़े-बड़े अफसर आउट ऑफ द वे जाकर  कुछ भी करने को बेताब रहते. 

   धन कुबेर चेक बुक लिये पीछे-पीछे चलते ताकि जैसे ही मंत्री जी के श्रीमुख से कोई रकम निकल कर उनके कानों तक पहुंचे, वे तत्काल चेक काट कर चरण-कमलों में अर्पित कर सकें. 

   इंसाफ का तराजू उनके इशारे पर किसी भी तरफ झुकने को बेचैन रहता. तकरीबन हर दिन समारोहों की अध्यक्षता में बीतता. 

   आज किसी के पेट्रोल  पंप का उद्घाटन है तो कल किसी के होटल का. परसों किसी मेडीकल कॉलेज का तो कभी किसी की डिस्टिलरी का. 

    रिबन काटते काटते आप जेबें काटने के भी विशेषज्ञ बन गए थे. लक्ष्मी जी तो जैसे आपकी दासी बन गई थी. जितना दुत्कारा जाता, उतनी ही पास आती. जरा सा मुंह खोलने के भी आपको मुंह मांगे पैसे मिलते.

   मगर बुरा हो दुश्मनों का, जिनकी बुरी नज़र ने पिछला चुनाव हरवा दिया. बरसात के वे खुशनुमा दिन एकाएक न जाने कहां हिरन हो गए ? खुश्क मौसम आ गया. न कहीं चारा न पानी. न कोई आगे न पीछे, न कोई अफसर बात मानने को तैयार. इंसाफ की देवी आंखों से पट्टी उतार घूर-घूर कर देखने लगी. गलियों के गुंडे तक उनके सामने पड़ते ही अकड़ कर चलने लगते. सेहत का सूचकांक तेजी से गिरने लगा.

   पर हमारे सिकंदर भाई ने पीठ दिखाना तो सीखा ही नहीं था. कड़ी मेहनत और बेहिसाब पैसा आखिर कब काम आता ? भारी कीमत देकर टिकट खरीदा. जान की बाज़ी लगा कर दौड़ धूप की. पैसा व शराब पानी की तरह बहा दिए. जनता के पैरों पर टोपी उतार कर रख दी. जनता-जनार्दन  का दिल, जो ऐसे मौकों पर अक्सर ही पसीज जाया करता है, एक बार फिर  न केवल पसीज गया बल्कि हार भी गया और सिकंदर भाई चुनाव जीत गए.

    जीतते  ही, मंत्री पद भी खरीद लिया. मंत्री पद भी कोई ऐरा गैरा नहीं, आबकारी का,जहां चारे और सानी की कोई कमी नहीं ! एक बार फिर  सावन का मस्ताना मौसम आ गया. वही मौसम, जिसमें जितना भी खाए जाओ, न तो पेट ही भरता है, और न खाना ही खत्म होता है, और न नीयत ही भरती है.

   सिकंदर भाई को ऐसे हरे भरे खुशनुमा मौसम में  अपने पूज्य गुरुदेव दंडी स्वामी की याद सताने लगी. 

    गुरू जी ही थे, जिन्होनें जिंदगी  का सही अर्थ शास्त्र खोल कर समझाया था. उनकी शिक्षा के बूते पर ही वह एक मामूली जेब कतरे से इतने बड़े मंत्री बन सके थे. जब कभी सिकंदर भाई जेल गए, गुरू जी ही जमानत पर छुड़ा कर बाहर लाए. जब-जब भी उनकी पत्नियां उन्हें छोड़ कर किसी और के साथ भागीं, गुरू जी नें ही हर बार लड़की ढूंढी और उनका  घर बसाया. जब भी पी कर वह नालियों में बेहोश पड़े मिले, गुरू जी ही उन्हें ढो कर घर तक लाए. जुआ खेलते हुए जब भी वह खाली हुए, गुरूजी ने ही उन्हें धैर्य का पाठ पढ़ाया, पैसे दिये और आगे  खेलने की नसीहत दी.   

   ऐसे महान गुरू जी, जिन्होने हर बुरे वक्त पर सहारा दिया, उन्हें सिकंदर भाई कैसे भूल पाते ? फौरन सेवकों  को गुरू जी की खोज में लगा दिया. आखिर खबर मिली कि गुरू जी एक जंगल में धूनी रमाए बैठे हैं.

    आने का न्योता भेजा. नहीं आए. उलटे कह दिया, हमें सिकंदर से मिलने मे कोई दिलचस्पी नहीं. वह मिलना चाहता है तो यहीं आए. हार झख मार कर खुद ही भेंट पूजा का सामान लेकर सिकंदर भाई जंगल पहुंचे. जाड़ों के दिन थे. नर्म धूप में नदी किनारे लेटे गुरू जी सन बाथ ले रहे थे. देह पर वस्त्रों के नाम पर एक मात्र ढीला-ढाला, जीर्ण शीर्ण  वीआइपी का अंडरवियर था.  खिचड़ी दाढ़ी-मूछें  बढ़ कर  जमीन छूने लगी थीं.  स्नान किये तो गुरुदेव को शायद महीनों हो गए थे.

      सिकंदर भाई के साथ चमचों की पूरी फौज़ थी.  ऐसे थके-हारे, लुटे-पिटे, मैले-कुचैले जंतु को सबके सामने गुरू मानने में उन्हें शर्म महसूस हुई. कैसे पैर छुएं? खैर ! जब ओखली में सिर दे ही दिया था तो मूसल से डरने का कोई मतलब ही न था. न चाहते हुए भी डंडौत(दंडवत) किया.  कुशल क्षेम पूछी. मिठाई, फल आदि अर्पित किए. 

फिर पूछा- कैसे हैं गुरुदेव?

उत्तर मिला- अच्छा था.

-था मतलब? क्या अब अच्छे नहीं हैं आप ? आदेश दीजिए, कौन सा डॉक्टर ले आऊं? पूरी दुनियां से कौन सी दवा ले आऊं, जो आपको चंगा कर सके ?- सिकंदर भाई अति उत्साहित हो कर बोले तो गुरू जी को हंसी आ गई. बोले, " अरे नादान बालक, तूने मेरे हिस्से की धूप रोक दी. हट जा सामने से. नहीं हट सकता तो ऐसी धूप बनाकर दे मुझे."

    सिकंदर भाई को पहली बार ऐसा लगा कि ये दौलत, मंत्रीपद, ये ऐशो आराम ही सब कुछ नहीं हैं. कुछ और भी चीज़ें  हैं दुनियां में जिन्हें इंसान सिर्फ लेता है,उनके बदले में कुछ देता नहीं. जैसे कि सूरज की धूप, हवा, नदियों का पानी, फूलों की खुशबू, आसमान की नीलिमा, पर्वतों की उंचाई, सागरों की गहराई वगैरह. इसका मतलब तो ये हुआ कि हम कुदरत के कर्ज़दार हैं !

    सिकंदर भाई को पक्का यकीन हो गया कि गुरू जी का दिमाग चल गया है. कर्ज़दार तो हमने  पैदा करने वालों तक को नहीं माना !फिर ये कुदरत क्या चीज़ है ?  ऐसी बेसिर पैर की बातें पहले तो कभी करते नहीं थे गुरुदेव ! उन्होनें तो हमेशा यही पाठ पढ़ाया था कि पराए माल को अपना ही समझो, जो गलती से दूसरे की जेब में  चला गया है. उसे हासिल करने के लिए तुम जो कुछ भी करोगे वह सब जायज़ होगा.  आज वही गुरू जी ये कैसी पट्टी पढ़ा रहे हैं? सिकंदर भाई को लगा कि गुरू जी ने धतूरा या भांग खा ली है. मेरे साथ राजधानी चलें तो ऐसे पेय पदार्थ पिलाऊंगा कि गुरू जी भी जिन्दगी भर याद रखेंगे और फिर कभी जंगल का रुख नहीं करेंगे.

   एक बार फिर सिकंदर भाई ने कोशिश की- गुरुदेव, ये जांघिया जीर्ण शीर्ण हो चुका है. कहीं देह से अलग ही न हो जाए. अत: चलिये. नवीन वस्त्र शहर में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. उन्हें धारण कीजिए.

   गुरू जी ने उसी शांत भाव से उत्तर दिया- अरे मूर्ख ! यह देह तो स्वयं एक वस्त्र है, जिसे आत्मा ने पहन रखा है. कमीज़ के ऊपर कमीज़ पहनते किसी को देखा है कभी?

-तो क्या ऐसे ही रहेंगे ?

-हां ! मैं ऐसे ही रहूंगा. तुमको भी, सारी दुनिया के लोगों को भी मेरा यही आदेश है कि वे नंगे रहें. मनुष्य नंगा आता है, और नंगा ही चला जाता है. फिर चार दिन के लिए ये हाय तौबा क्यों मचाता है?

    सिकंदर भाई के सारे औज़ार बेकार साबित हो रहे थे. फिर भी उन्होनें हिम्मत नहीं छोड़ी. बोले- गुरुदेव, - पौष्टिक भोजन के अभाव में आपकी देह निर्बल हो गई है. मैं अब मंत्री बन गया हूं. आपको ऐसी  ऐसी खुराक   खिलाऊंगा कि सारी कमजोरी हफ्ते भर में दूर हो जाएगी. शरीर तन्दुरुस्त होगा तो मन में नई उमंगें जागेंगी. जीवन के प्रति उत्साह पैदा होगा. ये मनुष्य शरीर  इस तरह नष्ट करने के लिए नहीं  मिला है. भले ही चार दिन बाद ये सड़ गल जाए, मगर जब तक है, तब तक तो इसके द्वारा सुख लूट लो गुरुदेव !

   दंडी स्वामी मुस्कराए और बोले- अरे मूर्ख ! इन्द्रियों की गुलामी से अभी मुक्ति नहीं मिली ?अभी तक तू मनुष्य देह को भौतिक सुख लूटने का ज़रिया समझे बैठा है ? जिन्दगी की शाम ढलने को है और तू अभी तक तृष्णा के बियाबान जंगल में ही में भटक रहा है ?

    यह सुन कर सिकंदर भाई का बचा खुचा दिमाग भी दही बन गया. वह समझ गए कि कोई वजह है जरूर जिसके चलते गुरुदेव बेमौसम की फिलॉसफी बघार रहे हैं. वरना वे तो साक्षात चार्वाक के अवतार हैं. अब तक गोश्त, सुरा और सुंदरी की डिमांड रख चुके होते. सिर खुजलाते हुए सिकंदर भाई वजह तक पहुंचने की कोशिश करने लगे. गुरु जी समझ गए कि शिष्य कहां अटका पड़ा है. बोले,

-सिकंदर, क्या तू राजकाज के टॉप सीक्रेट मुद्दों पर सबके सामने बात करता है?

- नहीं गुरुदेव.

सिकंदर भाई गुरुजी का इशारा समझ गए. मुस्करा कर सभी सेवकों को हाथ से दूर जाने का इशारा किया. सबके चले जाने के बाद गुरुदेव बोले,

- बहुत भोला है तू अभी तक. अरे तुझे दो चेहरे रखने होंगे. एक तो पब्लिक के बीच और दूसरा हम जैसे खास लोगों के बीच. उन दोनों चेहरों को मिक्स मत करना कभी. 

पर्सनल लाइफ में जीवन का भरपूर सुख लूटना मगर पब्लिक के सामने आदर्श और त्याग की बातें ही करना. इससे तेरी इमेज पब्लिक में अच्छी बनी रहेगी. 

बातें हमेशा आम आदमी के फायदे की करना मगर काम हमेशा पैसे वालों के फायदे के करना. इस तरह संतुलन बना रहता है.

न्याय की बातें खूब करना सिकंदर बेटा, ऐसा भी ध्यान रखना कि न्याय होता हुआ दिखे, मगर न्याय करने मत लग जाना. 

अपना तो इह लोक देखना, और पब्लिक का परलोक.  

अपना वर्तमान सुधारना और पब्लिक का भविष्य.

गुरुदेव थोड़ी देर मौन रहे, फिर बोले-

-वैसे यह सब बताने की तुझे जरूरत नहीं है. तू काफी समझदार है. मगर गुरु हूं न ! बताना मेरा फर्ज़ है. जीवन में आगे बढ़ने के लिए धोखा देना बहुत ज़रूरी है बेटे. जो भी तुझ पर विश्वास करता हो, उसी को धोखा सबसे पहले देना. जिनकी मदद से तू ऊपर चढ़ा है, सबसे पहले उन्हें ही निपटाना.   इससे मुश्किल कम आती है. उसके बाद उन्हे टैकल करना जो खाए-खेले हैं. मतलब के लिए किसी को भी बाप बनाना पड़े तो संकोच मत करना. और हां अपनी कमज़ोरी किसी को जाहिर न होने देना, वरना लोग ब्लैकमेल करेंगे. धन का महत्व तुझे क्या बताना. बाप बड़ा ना भइय्या -सबसे बड़ा रुपइय्या -- तो तूने सुना ही होगा. बस उस पर अमल करते रहना.

   अगर इन सारी नसीहतों पर तू चलता रहा तो दुनियां की कोई ताकत तुझे आगे बढ़ने से नहीं रोक सकेगी. लंबी रेस का घोड़ा बनेगा तू. अब जा. कभी कभार गुरु की खोज खबर लेते रहना. कोटा खतम होने से पहले ही भिजवाते रहना. कभी कोई प्रॉब्लम आ जाए तो बताते रहना.

कहते हुए शिष्य की लाई हुई बोतलें लेकर गुरु जी पर्णकुटी में प्रवेश कर गए.

(समाप्त)









   
     




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