सोमवार, 13 जुलाई 2020

व्यंग्य- ग़र खुदा मुझसे कहे....


    सोचिये, अगर ऊपरवाला आपसे कहे कि ऐ मेरे बन्दे, कुछ मांग ले मुझसे. तो आप क्या मांगेंगे ?

   यह सवाल हमने एक रिटायर्ड मास्टर साहब से किया. उनका जबाब था-मैं ऊपर वाले से कहूंगा कि मेरे खानदान में जो भी वारिस पैदा हो वह सिर्फ और सिर्फ स्कूल मास्टर बने.

"लेकिन देखा अक्सर ये गया है कि लोग अपने पेशे से बाद में नफरत करने लगते हैं. किसी और को उस पेशे में आने की सलाह नहीं देते" -हमने कहा तो मास्टर रामस्वरूप खिन्न होकर बोले-

 "हमसे गलती हुई है. इतने उर्वर, इतने उपजाऊ पेशे में जिन्दगी के तीस बरस बिता कर भी हम खाली हाथ घर आए ! हमारे साथियों नें इसी मास्टरी में घर परिवार तो संभाला ही, साथ ही कोचिंग सेंटर भी खोले. बच्चों को स्कूल में नहीं अपने कोचिंग स्कूल में पढ़ाया, तगड़ी फीस वसूली. अपने खेतों में निराई-गुड़ाई कराई. अपने गाय भैंसों का गोबर उठवाया, कुट्टी कटवाई, मिड डे मील का राशन खुले बाज़ार में बेचा, बच्चों को कभी कभार घटिया चावल और सस्ते से सस्ती दाल खरीद कर, दाल भात खिला दिया. म्यूनिस्पलिटी के इलेक्शन जीते, और इसी तरह बढ़ते-बढ़ते राष्ट्रीय राजनीति में कूद गए. स्कूली बच्चों की किस्मत सुधारते-सुधारते आज वे सारे देश की किस्मत चमका रहे हैं.  और इज्जत अलग ! बाद में सबको पास भी कर दिया. आज उन बुद्धिमान अध्यापकों की पांचों उंगलियां घी में व सर कड़ाही में है. एक हम हैं कि अपने ही बेटे बहू तक नहीं पूछते. क्यों कि जेब में कानी कौड़ी तक नहीं है."

"तो फिर आपने टीचिंग में तीस साल काटे किस तरह ?"

हमारे इस सवाल पर मास्टर रामस्वरूप गमगीन हो गए. गहरी थकी सांस छोड़ते हुए बोले-

" सुबह वक्त पर स्कूल आ जाते. दिन भर पढ़ाते. एक एक बच्चे पर ध्यान देते कि उसकी समझ में बात आई कि नहीं ? गरीब बच्चे जो फीस नहीं भर पाते थे उनकी फीस अपनी जेब से भर दिया करते. इम्तहान के दिनों में स्कूल में ही रहते. बच्चों को भी वहीं रोकते. रात देर तक व सबेरे तड़के उठा देते और खूब तबीयत से पढ़ाते.नतीजा भी अच्छा निकलता. रिज़ल्ट सौ फीसदी आता. शाबाशी मिलती. बच्चों के मां-बाप दुआ देते. अपने मन को भी खुशी मिलती कि हमने अपना फर्ज़ ईमानदारी से निभाया."
 
" ये तो  आपने नेक काम किया मास्टर जी. फिर आप के मन में पछतावा क्यों है? "

"पछतावा इसी वज़ह से है कि हमारे जिन साथियों नें धेले भर भी कभी नहीं पढ़ाया, उन्हें बेस्ट टीचर के अवार्ड मिले, उनके प्रोमोशन हुए, वे नेता बने. नेता से  मंत्री बने और आज अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति हैं जबकि हम चौराहे पर पड़ी चोट खाई कुतिया की तरह हैं. जब जो चाहे लात मार कर चल देता है. तब आप ही बताइए कि हम इतने अच्छे  महकमे में नौकरी करने की सलाह क्यों न दें ? ताकि जो गलती हमसे हुई, उसे हमारे वारिस सुधार लें " .

     यही सवाल हमने वकील  सत्यदेव जी से भी पूछा. उनका जवाब था- मैं सबसे पहले ऊपर वाले से यह दुआ मांगूंगा कि मेरे वंश में कोई सत्यवादी पैदा न हो. सबकी जीभ पर झूठ का सदैव स्थाई निवास रहे. वे मन-वचन -कर्म से झूठे रहें. सत्य जैसे आउटडेटेड विषय की ओर उनकी प्रवृत्ति कभी न हो. यहां तक कि स्वप्न में भी वे झूठ का ही प्रयोग करें. झूठ में उनकी प्रीति सदा बनी रहे."

"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं वकील साहब?" हमने कहा तो वे बगैर उत्तेजित हुए  बोले-

" इतिहास साक्षी है कि जिसने भी सत्य बोलने की गलती की वही दुखी रहा. उसके साथ उसका परिवार भी दुखी रहा. सत्यवादी हरिश्चन्द्र की मिसाल आपके सामने है. खुद राजपाट खोया, पत्नी बेची, शमशान में मुर्दे जलाने की नौकरी बजाई, पुत्र खोया, और फिर खुद भी खो गए अनंत में. दरअसल बात ये है कि चालाक लोग पब्लिक से सच बुलवाते रहते हैं ताकि झूठ बोलने वालों की तादाद बढ़े नहीं.  वे थोड़े ही रहें. ऐश करते रहें, जी हां ! झूठे की ऐश ही ऐश है. 

    एक अकेला झूठ ही झूठे को  दुनियां के सारे सुख प्रदान कर देता है. अब देखिये सत्यमेव जयते ही कितना बड़ा झूठ है ? हम अपने रोजमर्रा की जिन्दगी में देख रहे हैं कि झूठे फरेबी, जालसाज लोग लगातार तरक्की कर रहे हैं. विद्वान, सत्यवादी सज्जन लोग लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. तो ऐसे हालात में मैं अपने या अपने प्रियजनों के लिए ऊपरवाले से झूठ, फरेब, दगाबाजी  और विश्वासघात के अलावा और क्या मांगूं ? बल्कि मैं तो चाहूंगा कि मेरे वंश में पैदा होने वाले लोग अपने बाप को भी धोखा देने में संकोच न करें. जो अपने बाप को भी धोखा दे सकता हो वही विद्वानों की नज़र में  सच्चा धोखेबाज कहलाता है.उसी की कीर्ति सदा स्थिर रह पाती है. मैं तो कहता हूं जो वकील सच को झूठ तथा झूठ को सच नहीं बना सकता उसे वकालत करने का हक ही नहीं होना चाहिए."

    यही सवाल हमने जब एक टीवी चैनल के डायरेक्टर से पूछा तो उसका जवाब था- मैं ऊपरवाले से कहूंगा कि हिन्दुस्तान के लोगों में भक्ति-भावना की कभी कमी न होने पाए.  यहां रोज़ किसान खुदकुशी करते हैं. हम टीवी पर रामायण, महाभारत के सीरियल दिखाते हैं मगर कोई ऐतराज़ नहीं करता. सरकार किसानों की ज़मीनें छीन कर एसईज़ेड के नाम पर कॉरपोरेट घरानों को देती है, जिसका हम मामूली  ज़िक्र भर करते हैं तो भी लोग हमें गाली नहीं देते. कभी संगीत तो कभी नृत्य के भौंडे प्रोग्राम दिखा कर हम पब्लिक का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटाए रहते हैं तब भी कोई हमें कोसता नहीं. 

   महंगाई आसमान चूमने लगती है लेकिन हम सेंसेक्स की उंचाइयों का ही ज़िक्र करते हैं तब भी हमें कोई कुछ नहीं कहता ! हम खुल्लमखुल्ला सरकार-कॉरपोरेट गठजोड़ को प्रोटेक़्ट करते हैं पर किसी की नज़र वहां नहीं ज़ाती. 

    हमने कभी बेरोज़गारी की बात नहीं की. हमने कभी सुअरों सी बदतर ज़िन्दगी जीते झुग्गी-झोंपड़ी वालों की बात नहीं की, हमने कभी भी अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई की बात नहीं की, स्टॉक मार्केट एक झटके मे किस तरह छोटे निवेशकों की गाढ़ी कमाई पर हाथ साफ करके उसे बड़े घरानों की जेबों में पहुंचाता है-इस मुद्दे पर हमने कभी चर्चा तक नहीं की. इस सबके बाद भी यहां की पब्लिक ने हमारा विरोध नहीं किया. हमने बात की भविष्यफल की, ब्रह्मांड में मानव की खोज की, हमने बात की मुक्त संबंधों की, हमने बात की पुरानी पड़ गई लचर कल्चर को छोड़ने की. फिर भी किसी नें हमें कुछ नहीं कहा.  ऐसी महान पब्लिक हमारे देश में हमेशा बनी रहे- इससे ज्यादा मैं ऊपर वाले से और क्या मांगूं?"

      यही सवाल लेकर हम श्री श्री एक हज़ार आठ ब्रह्मलीन स्वामी निरंकारदेव से भी मिले. उस समय भगवा उत्तरीय धारण किये वे परलोक पर प्रवचन दे रहे थे. भक्ति भाव में डूबे लोग उनके वचनामृत का पान कर रहे थे.

     हमने प्रश्न किया तो उत्तर में स्वामी जी मुस्कराए.  उनके अधखुले नेत्रों से  अलौकिक प्रकाश फूटने लगा, जो ऐसे मौकों पर अक्सर फूटता देखा गया है. बोले- मुझे परमात्मा से और कुछ नहीं मांगना. बस यह महान पब्लिक मुझे इसी तरह मिली रहे, और मैं इसका  अगला जन्म इसी तरह सफल करता रहूं. देखिये चौरासी लाख योनियां झेलने के बाद यह मानव योनि मिली है. अगर मैं इस जन्म में इनके पिछले जन्मों के पाप नहीं उतारूंगा तो मेरा समाज को क्या फायदा? कितने महान लोग हैं मेरे भारत के? अपने हर कष्ट के लिये वे सरकार को  नहीं अपने पूर्व जन्म के कर्मों को दोषी मानते हैं. 

  मेरी गोशाला में सैकड़ों गाएं हैं, जिनकी देखभाल ये भक्तगण अपने सारे काम छोड़ कर करते हैं. उनका दूध तो मैं व मेरे परिवार के लोग पीते हैं तथा उनका मूत्र मैं अपने शिष्यों को चरणामृत के रूप में पिलाता हूं. वह भी बेच कर. उन गायों के गोबर की मैं अगरबत्तियां बनवा कर अपने सुधी  भक्तों को बेचता हूं. दीक्षा के नाम पर उनसे जो कुछ भी तय करता हूं वह मिल जाता है. अगर वे कभी सरकार के खिलाफ जाने लगे तो मैं उन्हें ईश्वर का डर दिखा कर रोक लेता हूं. अपने प्रवचनों की किताबें छपवा कर मैं इन्हीं भक्त शिष्यों के जरिये बेचता हूं. बड़े बड़े नेता, पार्टियों के अध्यक्ष मेरे पास आते रहते हैं. मैं अपने भक्तों के वोटों का सौदा उनसे आराम से कर लेता  हूं. अब तो मैं हर मर्ज़ की दवा भी बनाने लगा हूं. मेरे ये प्यारे भक्त  मेरी दवाओं के कस्टमर भी हैं. सरकार और कॉरपोरेट घरानों के प्रेम संबंध पहले तो लीक ही नहीं होते, लेकिन अगर कभी कोई बात इन आम लोगों तक पहुंचती भी है तो मैं हूं न !

       यही सवाल लेकर हम अबकी बार एक दिहाड़ी मज़दूर  से मिले.  छब्बीस जनवरी के रोज़ वह किसी सरकारी कॉलोनी में पुताई कर रहा था. उसका नाम था गनेसी.

हमने पूछा- "भई गनेसी, अगर तुम्हें भगवान मिल जाए और कुछ मांगने के लिये कहे तो तुम क्या मांगोगे?"

दीवार पर कूंची फिराते हुए गनेसी बोला-" अरे साहब, क्यों हम गरीबों के साथ दिल्लगी करते हैं. भगवान भी कहीं होते हैं?"

"अरे गनेसी एक बात है यार. मान लो अगर ऐसा हो गया तो तुम क्या मांगोगे ?"-हमने कहा.

गनेसी के हर जवाब में एक सवाल छिपा था. पिछले अठ्ठावन बरसों में वह छोटे किसान से दिहाड़ी मजदूर हो गया. हल बैल खेत खलिहान सब बिक गए. अब वह एक महानगर में पुताई का काम करता है. उसका गांव, एक एसईज़ेड की भेंट चढ़ गया. वहां आसमान छूती इमारतें बन गई हैं. कारखाने खुल गए हैं. चारों तरफ ऊंची दीवार बन गई है. उसका गांव किस जगह था, पता ही नहीं चलता.
 
गनेसी बोला-"हम भगवान जी से मौत मांगेंगे."

"मौत क्यों गनेसी? "

" ये जो जिन्दगी भगवान नें दी है, इससे तो मौत हज़ार गुना अच्छी है."-गनेसी की आवाज़ थकी हुई थी.

गनेसी से आगे कुछ पूछने की हिम्मत मैं न जुटा सका. अंत में सोचा एक उद्योगपति से भी पूछ लूं कि वह भगवान से क्या उम्मीद रखता है?
     जब हमने वही सवाल  उद्योगपति से किया तो जवाब मिला-

" मैं भगवान से एक ही चीज़ मांगता हूं. दुनियां के हर आदमी की ज़िन्दगी और मौत मेरे हाथ में हो. 

जिसे मैं चाहूं वही ज़िन्दा रहे. ज़िसकी शक्ल मुझे या मेरी बीवी को पसंद न आए, उसकी लाइफ लाइन तत्काल कट कर दी जाए. 

मैं दुनियां की दौलत का बेताज़ बादशाह बन जाऊं. 

बल्कि सच तो यह है कि हे भगवान, तुम अब रेस्ट करो. मैं ही भगवान बन जाऊं."

(समाप्त) 
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