बिक
गई इंसान की इन्सानियत
हो
गया इन्साफ भी नंगा यहां
जल
रहा है आग में सारा शहर
आपको कविता सुनाने की पड़ी है !
दोपहर
में ही अंधेरा छा गया है
बाड़
ही चरने लगी है खेत को
जो
न होना था वही सब हो रहा है
आपको कविता सुनाने की पड़ी है !
हर
नदी है आज कल पागल यहां
बन
गया है हर शहर जंगल
आदमी
खुद बिक रहा बाजार में
आपको कविता सुनाने की पड़ी है !
हो
गया है अब बड़ा सुविधाजनक
भूख
से शमशान तक का ये सफर
फिक्र
है ये पेट की ज्वाला बुझे कैसे
आपको कविता सुनाने की पड़ी है !
वक्त
पर्वत हो गया हिलता नहीं
हो
गए जज़्बात भी पत्थर यहां
छिन
गई पांवों तले की भी जमीं
आपको कविता सुनाने की पड़ी है !
आपके
चर्चे सुने हैं हर तरफ
आपकी
आवाज़ भी मशहूर है
आदमी
हैं आप बेशक काम के पर
आपको कविता सुनाने की पड़ी है !
सिर्फ
कविता पाठ ही काफी नहीं है
पेट
भी इससे कभी भरता नहीं
आदमीहैं
आप बेशक काम के पर
आपको कविता सुनाने की पड़ी है !
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