व्यंग्य पैरोडी कविता ---दाल की अभिलाषा


चाह नहीं  मैं बाजारों में रक्खी ही रह  जाऊं ।
जमाखोर के गोदामों में या फिर सड़ती जाऊं। ॥1
 चाह नहीं मैं बावर्चीखानों में पकती जाऊं ।
या फिर पानी बन कर बीमारों को परसी जाऊं ॥2
 चाह नहीं मैं दालफ्राइ या फिर तड़का कहलाऊं ।
दाल महारानी बन कर या भूखों को  ललचाऊं ।।3
 काली पीली कहला कर बेमतलब भ्रम फैलाऊं ।
या भोजन भट्टों के मोटे पेटों में खो जाऊं ॥ 4
 मुझे पका कर हे बावर्ची उस ढाबे पर देना भेज ।
जिस ढाबे पर खाने आते लुटे पिटे मज़दूर अनेक ॥5

















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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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