वह घर से चला तो उसे अच्छी तरह मालूम था कि कहाँ जाना है और क्यों जाना है ? क्या करना है, क्या नहीं करना है । उसे यह भी बताया
गया था कि जैसे ही शाम ढले, अपना सामान समेटने लग जाना,
ताकि याद रहे कि लौटने का वक्त हो गया है । किसी भी हालत में रात को
बाहर नहीं रुकना है । एक बार भी बाहर रुके तो आदत पड़ जाएगी। और आदत पड़ गई तो घर लौटना
आसान नहीं होगा ।
एक
रात को यहाँ तो दूसरी रात को कहीं और । भटकते रहो अंधेरी रातों के बियाबान जंगलों
में ! बाहर निकलने की राह मिलती ही नहीं । खुशबूदार, कोमल और खूबसूरत फूल अपनी तरफ खींचेंगे, तो जहरीले, तीखे काँटे तन-मन को चीर कर लहू-लुहान करेंगे ।
कहीं
शेर, भेड़ियों का खौफ तो कहीं पंछियों की
प्यारी चहचहाहट । कहीं बंदरों का पेड़ों पर बेमतलब कूदना- फांदना तो कहीं खूंखार
जानवरों की गंध पाकर चिड़ियों का चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठा लेना। शरद ऋतु में
पेड़ों का पुराने पत्तों से मोह छोड़ना तो वसंत में नए-नए तांबई पत्तों की कोमल
मखमली चादरें बदन पर लपेट लेना भला किसे नहीं भाएगा ?

इतने
रंग-बिरंगे हैं वे जंगल कि घर लौटने की इच्छा तक नहीं होगी। उन्हीं सुखों को सच्चा
सुख समझने लगोगे। घर का रास्ता तक भूल जाओगे।
ऐसी
कितनी ही हिदायतें देकर तथा राह के लिए कलेवा बांध कर माँ ने उसे विदा किया था । आशीर्वाद दिया कि
बेटा काम ख़त्म करके जल्दी घर आ जाना। मैं तुम्हारा तब तक इंतजार करती रहूँगी, जब तक तुम लौट नहीं आते । आँसू भरी आँखों से मन ही मन पुत्र की मंगल
कामना करती माँ उसे तब तक देखती रही, जब तक कि वह आँखों से
ओझल नहीं हो गया।
घर
की देहरी लाँघ कर बाहर की अनंत असीम दुनियाँ में आखिर वह उतर ही गया । बहुत कुछ सुना था इसके बारे में उसने । बहुत
कुछ पढ़ा था, और काफी पहले जहाँ वह गया
भी था । लेकिन पुरानी यादें अब धुंधली हो चुकी थीं।
वैसे
घर का सुख-चैन छोड़ कर वह भी नहीं भटकना चाहता था। क्या हो जाएगा अगर राह चलते हुए
सोने-चांदी के कुछ टुकड़े मिल गए ? फेंकने तो
पड़ेंगे ही ! क्या हो जाएगा अगर जी-तोड़ मेहनत करके ईंट गारे का ढेर खड़ा कर भी लिया ?
छोड़ कर जाना तो होगा ही ! क्या हुआ अगर धरती के टुकड़े को घेर कर
अपने नाम का बोर्ड लगा दिया ! नाम तो एक
दिन गुम होगा ही ! धरती के टुकड़े पर हमेशा की तरह किसी और के नाम की तख्ती भी कल लगनी
ही है !
ऐसे
किसी चक्रव्यूह में प्रवेश करने की उसकी भी इच्छा न थी । पर मजबूरी थी । पुरानी जमा-पूंजी चुक गई थी ।
बैंक-बैलेंस ज़ीरो था । घर पर सुख-सुविधाएँ थीं पर कीमत तो चुकानी ही पड़ती है,चाहे कोई कहे या न कहे ! जिम्मेवारी
का अहसास खुद ही होना चाहिए- ऐसा उसका मानना था ।सुख-सुविधाएँ जारी रखने के लिए जमा-पूंजी
की जरूरत थी। जमा-पूंजी जोड़ने के लिए घर छोड़ने के अलावा उसे कोईरास्ता सूझ नहीं रहा था।
घर
छोड़ते वक्त मन में कई शंकाएँ थीं -जा तो रहा हूँ, पर जाने कैसा काम मिलेगा ? जहाँ रहूँगा वह जगह पता
नहीं कैसी होगी ? जिन लोगों के बीच रहूँगा वे अच्छे तो होंगे न ! क्या इतना जमा कर सकूँगा कि फिर
कभी घर न छोड़ना पड़े ? बचपन में पढ़ी कविता ‘एक बूंद’ उसके जेहन में कौंधने लगीं-
ज्यों निकल कर
बादलों की गोद से,थी अभी इक बूंद कुछ आगे बढ़ी
।
सोचने फिर फिर यही
जी में लगी,आह ! क्यों घर छोड कर मैं
यों कढ़ी ॥
उसे
भी यही फिक्र थी कि घर छोड़ने के बाद कहीं वह तपती हुई धूल में न गिर जाए । साथ ही यह भी उम्मीद थी कि क्या पता वह अच्छी जगह जा पहुँचे ! एक
बूंद की तरह किसी सरोवर में खिले हुए कमल के फूल पर भी तो गिर सकता है वह ! कुछ भी हो सकता है ! बाहर निकल कर सिर्फ बुरा
होगा- यह सोच भी तो ठीक नहीं है । क्या पता वह इतनी जमा पूंजी जोड़ ले कि फिर कभी
घर छोड़ना ही न पड़े ! क्या पता वह इस काबिल बन जाय कि भटके हुए लोगों को रास्ता
दिखा सके ! एक बूंद की तरह सीप के खुले मुख में गिर कर मोती भी तो बन सकता है वह !
ऐसी
तमाम कल्पनाएं करता हुआ चलते-चलते वह एक
शहर में पहुँच गया ।
शहर
को देख कर वह ठिठक गया। उसने सोचा भी न था कि घर से बाहर की दुनिया इतनी खूबसूरत
होगी । चौड़ी सड़कें, आसमान छूते बहुमंजिले भवन, चमचमाती मोटर कारें, लज़ीज़ पकवानों से सजी खाने-पीने की दुकानें, हरे-भरे
पार्कों में टहलते लोग, सड़कों पर भारी चहल-पहल, स्कूल-कालेजों में चहलकदमी करते छात्र-छात्राएँ,
सिनेमा घर, पब्स, कैसीनो, रेस्तरां, होटल, चौराहों पर
बने फव्वारे, जिनसे फूटती दूधिया सहस्रधाराएँ इंद्र्धनुषी छटा बिखेर रही थीं ।
वह
सोचने लगा - अपना घर भी तो इस कदर मायावी कहाँ था? इतनी सारी खूबसूरती, अलग-अलग रूपों में कहाँ थी घर
पर ? हाँ ! घर पर एक सुकून
जरूर था, जिसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता । एक गहरी
शांति, एक शाश्वत बेफिक्री तो थी घर में । सुरक्षा का अहसास भी था,भले ही मन को बहलाने
वाली इतनी सारी चीज़ें नहीं थीं !
उसने जेब में हाथ डाला । कानी कौड़ी तक
न थी । उसे पता था कि बगैर पैसा चुकाए कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा । कोई उसे अपने घर
में भी पनाह क्यों देगा ? वन बीएचके टू बीएचके या हद से हद
थ्री बीएचके के फ्लैटों में सब कमरे बुक रहते हैं । ये ड्राइंगरूम, ये डाइनिंगरूम, ये किचन, ये
लॉबी, ये स्टोर, ये स्टडीरूम वगैरह वगैरह । किसी गेस्ट के लिए या बूढ़े
माँ-बाप के लिए भी कोई स्कोप नहीं होता ।
उसके
थके पाँव धीरे धीरे उस रास्ते की तरफ बढ़ गए, जो
शहर से बाहर जाता था ।
काफी
दूर चलने के बाद सुनसान इलाक़ा शुरू हो गया । चारों तरफ खाली जमीन थी । दूर-दूर तक
कोई बस्ती न थी । शमसान जैसी खामोशी छाई थी । कुछ आगे चल कर एक
नदी थी । वह खुशी से झूम उठा । जिंदा रहने
के लिए हवा के बाद सबसे जरूरी पानी होता है, और
वह सामने था । वह पानी में पाँव डुबो कर थकान मिटाने लगा । फिर नदी में उतर कर खूब नहाया। मन ताजगी से खिल उठा । फिर वहीं चादर
बिछा कर लेट गया । लेटते ही गहरी नींद आ गई ।
नींद
खुली तो याद आया कि वह तो कुछ कमाने आया था,
यहाँ क्यों रुका ? हड़बड़ा कर चलने को हुआ,पर मन में विचार आया- जाना तो है ही । चले जाएँगे । जगह अच्छी है! थोड़ा वक्त और बिता लिया जाए ! वह एक दिन और रुक गया।
अगले दिन चलने को हुआ तो फिर वही विचार आया । उसने फिर मन को समझाया - दो-चार दिन रुक
भी गए तो आसमान नहीं टूट पड़ेगा ।
वह
फिर रुक गया । अगले रोज जाने लगा तो मन में विचार आया कि एक चतुर्मास यहीं ठहरा जाए,
उसके बाद चाहे कुछ हो जाए, नहीं रुकेंगे । वह
चार माह के लिए फिर रुक गया । बारिश शुरू होने से पहले ही उसने झोंपड़ी बना ली ।
आस-पास की जितनी जमीन वह घेर सकता था – घेर ली । फलों-फूलों के पेड़ चारों तरफ रोप
दिये । अभी कुछ ही दिन बीते थे कि गाय-बछड़े
को हांकती एक औरत उधर से गुजरी । उसके
हाथों में न तो चूड़ियाँ थीं और न माथे पर बिंदी । वह दूर के एक गाँव में बस्ती से बाहर
अकेली रहती थी । वह भी उसके साथ रहने लगी ।
अब
वे एक और एक ग्यारह हो गए । औरत अपना सारा सामान समेट कर वहीं आ गई । समय पंख लगा
कर उड़ता रहा । कच्चे मकान की जगह अब पक्का मकान बन गया, जिसमें कई कमरे थे । खूँटों पर दर्जनों गाय – भैंस और कई जोड़ी बैल बंधे
थे। नदी के साथ साथ काफी दूर, जहाँ तक नजर जाती थी, उसी की जमीन थी । सिंचाई के लिए नदी से एक गूल निकाल कर खेतों तक पहुँचा
दी गई थी । खेतों में धान, गन्ने,
सरसों व दलहन की फसलें लहलहा रही थीं । खेतों से सटा उतना ही बड़ा बाग था, जिसमें आम, अमरूद, लीची, संतरे, व केले आदि के हजारों पेड़ खड़े थे । विकास की कई योजनाएं जमीन पर उतर चुकी
थीं तो कई पर मन ही मन काम चल रहा था । चार महीने की जगह चार साल कब बीत गए उसे पता ही न चला ।
उसे
तो बस इतना याद था कि घर में एक नया मेहमान आने वाला है । उसके लिए कपड़े, दूध, अनाज, का इंतजाम होने
लगा । मेहमान बीमार हुआ तो दवा-दारू भी चाहिए । वह बड़ा होगा तो पढ़ने शहर जाएगा । घर में कार तो
होनी ही चाहिए ।
अगले
कुछ ही महीनों में नया मेहमान आ गया। चारों तरफ खुशी ही खुशी छाई थी । वारिस आ गया
था। अब वही संभालेगा। चिंता ख़त्म हुई । अगले साल फिर एक मेहमान आया। दो वारिसों के
हिसाब से जायदाद कम न पड़ जाए, इस डर
से वह नई ज़मीन तोड़ने लगा । नए खेत, नए बाग, नया मकान, नए पशु ।
सभी कुछ तो दोगुना करना था !
लेकिन
मेहमानों के आने का सिलसिला बदस्तूर जारी था । उस पर बोझ बढ़ता जा रहा था। बदन की
ताकत दिनों दिन कमजोर पड़ती जा रही थी । बोझ से कमर झुक कर कमान हो गई । दिखाई -सुनाई देना बंद हो गया । खाँसी
बुखार ने बदन को तोड़ कर रख दिया । अब वह खेतों तक भी नहीं जा पाता था। हालत दिनों
दिन गिरती ही जा रही थी ।

तभी
उसने एक मीठा और धीमा नारी स्वर सुना – बेटे ! तुम्हें तो शाम ढलने से पहले ही घर
पहुँचना था न ! यहाँ कुछ कमाने आए थे तुम,
ताकि घर पर आराम से रह सको ! पर तुम ने तो यहीं घर बना लिया ! क्या करने आए थे और
क्या कर बैठे !
वह
किसी भी सवाल का उत्तर न दे सका । किसी अपराधी की तरह चुपचाप सिर झुकाए खड़ा सुनता
रहा, फिर उन लोगों की तरफ घूम गया, जो अकड़े हुए ठंडे पड़ गए शरीर को बांध कर शमसान की तरफ ले जा रहे थे ।
(समाप्त)
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