मंगलवार, 28 जुलाई 2020

व्यंग्य - बंदर की औलाद

     इतवार का दिन था। हमेशा की तरह तैयार होकर मिर्जा ने अख़बार बगल में दबाया और सैर के मक़सद से दरवाजे की तरफ लपके ही थे कि बेगम ने पानदान पेश किया। सख़्त हिदायत भी दी कि किसी से उलझिएगा नहीं।

      मिर्जा ने चांदी के वर्कों में लिपटी खुशबूदार गिलौरियां गलफड़ों में ठूंसीं और बगैर कोई जवाब दिए बाहर निकल गए ।

      मदरसे की बगल में पिलखन का छतरीनुमा पेड़ था जिसके नीचे किसी खैराती ने पक्का चबूतरा बनवा दिया था।

     चबूतरे पर बैठकर मिर्ज़ा ने अखबार खोला और सुर्खियों पर नज़र दौड़ाने लगे। अचानक एक ख़बर पर आकर उनकी निगाहें टिक गईं  और वह चीख पड़े-वाह ! क्या ख़बर छपी है।

   आस-पास काफ़ी लोग इकट्ठे  हो गए । किसी ने भीड़ में से पूछा-

   ‘हमें भी सुनाइए  मिर्ज़ा, ऐसी क्या ख़बर है ?’

   ‘इसमें लिखा है कि आदमी बंदर की औलाद नहीं है।’

   ‘मगर मेरी किताब में तो लिखा है आदमी शुरू में बंदर था। धीरे-धीरे उसने तहजीब सीखी। साइंस में तरक़्की की और आदमी बन गया। डारविन नाम के अंगे्रज़ ने तो इसी खोज में सारी उमर खपा दी।’
भीड़ में से एक लड़का बोला तो मिर्जा के होंठों पर मुस्कान फैल गयी। पीक का सुर्ख लावा उगलकर मुंह पोंछा और बोले-

‘तुम्हारी किताब में क्या लिखा है- मैं नही जानता, मगर मेरे अख़बार की एक ख़बर और सुन लो, लिखा है- दो बच्चे छोड़कर मां आशिक के साथ भागी।’

      मौलवी खुदा बख़्श जो कुर्बानी के बकरे को बेर की पत्तियां खिला रहे थे- भीड़ में घुस आए  और बोले- इस खबर का बंदरवाली बात से कोई मेल नहीं बैठता।’

     मिर्ज़ा तो इसी ताक में थे कि उनके पुराने दोस्त मौलवी बहस में शरीक हों। मिर्ज़ा ने सामने खड़े बड़ के दरख्त की तरफ़ इशारा किया और बोले-

‘वो देखो मौलवी, बंदरों का झुंड। हाथ कंगन को आरसी क्या। पढ़े लिखे को फारसी क्या ! देखो वो बंदरिया अपने बच्चे को पेट से कैसे चिपटाए  घूम रही है। बच्चे के बडे़ होने तक वो इसी तरह सीने से लगाए  रखेगी और अपना दूध पिलाती रहेगी।’

फिर ठहर कर बोले- अगर आदमी बंदर की औलाद होता तो औरत बच्चों को छोड़कर आशिक के साथ कभी न भागती।’

मौलवी ठहाका लगाकर हंस पड़े- ‘बच्चों जैसी बातें न करो मिर्जा, हम उम्रदराज़ लोग हैं।’

मिर्ज़ा ने फलसफाना अंदाज में कहना जारी रखा- देखो खुदाबख्श ! एक बंदर कैसे अपने साथी के बालों से जुएं खोज रहा है ? कितनी मुहब्बत से ? कितने अपनेपन से ? बगैर किसी लालच के ! 


    और आदमी ? मतलब न हो तो बात तक करने को राजी नही ? बगलवाले फ्लैट में कौन जीता है कौन मरता है- इतना भी नहीं जानना चाहता। ऐसा मतलब परस्त, बंदर की औलाद कैसे हो  सकता है।

इस बार बात को हंसी में नही उड़ा पाए मौलवी। उन्हें लगा कि जैसे उनके पैरों तले की ज़मीन खिसकती जा रही है। फिर भी कड़क कर बोले- ‘मिर्ज़ा अख़बार में जो लिखा है, आप सिर्फ वही बोलिए । ख़ामखाह अपनी टांग बीच में न घुसेड़िए । बताइए  क्या लिखा है आगे।’

मिर्ज़ा के दिल में भीतर ही भीतर लड्डू फूट रहे थे। पहली बार ऊंट पहाड़ के  नीचे जो आया था। मन ही मन बोले- बड़ी शेखियां बघारा करता था। आज बंध गई  घिग्घी।

फिर रूककर बोले- ‘इसमें लिखा है कि दांतों की बनावट से बंदर ज़रूर गोश्तख़ोर है, पर वह गोश्त नहीं खाता। फल, अनाज या सब्ज़ियां खाता है। आदमी इस हिसाब से शाकाहारी है, पर गोश्त खाता है। अपने जायके के लिए जानवरों को मार कर खाता है। कभी मजहब के नाम पर तो कभी तंदरूस्ती  के नाम पर। उसने जानवरों का ज़िन्दा रहने का हक अपनी ताकत, अपनी मक्कारी की वजह से छीन लिया है। बताइए  मौलवी खुदाबख़्श, क्या बंदर ऐसी नीच हरकत करता है ?

‘नही’। खुदाबख़्श आगे कुछ न कह सके। मिर्ज़ा को लगा- मैदान साफ़ है। तपाक से बोले-

‘फिर आप ही बताइए - ये बेरहम, मक्कार, दगाबाज़ आदमी भोले-भाले बंदर की औलाद कैसे हो सकते है ?’

मौलवी जी चारों खाने चित्त हो गए, पर एक टांग फिर भी उन्होंने ऊपर उठा ली। सारी अक्ल इकट्ठी  करके बोले- 

‘कुछ भी हो। आदमी में तहजीब तो है। इल्म तो है।’

मिर्ज़ा ने ताबूत पर आखिरी कील ठोंकते हुए कहा- 


   ‘क्यो नहीं खुदाबख़्श ! बहुत तहजीब है आदमी में। वह शहरी है। आलिम है। तरक़्क़ी पसंद है। चांद तारों से भी आगे निकल गया है। इतना आगे कि बंदर की औलाद कहना तो दूर, अब उसे इंसान कहने में भी शर्म आने लगी है।अब वो अपने को खुदा समझने लगा है। बल्कि सच कहूं तो अब इंसान खुदा को भी ज़्यादह तवज्जो नहीं देता । कहता है ये खुदा ये भगवान ये सब इंसान ने ही आम पब्लिक को बेवकूफ बनाने के लिए बनाए हैं। अगर ये वाकई मे होते तो जमाने मे 
इतनी नाइंसाफियां रोज होती हैं- क्यों नही सामने  आकर  इंसाफ करते ?

     तभी भीड़ मे से एक नौजवान बोला – मेरे ख्याल से मिर्जा दुरुस्त फरमाते हैं। बंदर को हमने बेकार मे ही बदनाम कर रक्खा है । मुझे तो लगता है कि इंसान शैतान की औलाद है।

    एक बुजुर्ग भीड़ मे से कानों को छूते हुए बोल उठे- ऐसा नही कहते बेटा । अल्लाह को बुरा लगता है । तुम्हे कोई बात नहीं जंचती तो मत मानो, पर सबके सामने सरे बाज़ार खुदा की तौहीन करने का हक तुम्हे किसने दे दिया ?

     एक दूसरे बुजुर्ग हां मे हां मिलाते हुए गुर्राए- ये मुआ मिर्जा आए दिन ऐसी उल्टी पुल्टी बातें छौंक कर फिजां खराब करता है । जा कर अपने घर अपने नीम तले पढ़ा करे अखबार और अपनी बेगम को सुनाया करे सारी ताज़ा खबरें ।

    एक नौजवान से रहा न गया- सामने आकर सीना तान कर बोला – शेर की कुर्बानी क्यूं नहीं देते ? बेचारे गरीब दुम्बे को ही क्यों हलाल करते हो ? कुर्बानी अपने सबसे ज्यादा अज़ीज़ की दी जाती है । क्या दुम्बे से ज़्यादा अज़ीज़ तुम्हारा कोई नहीं है?

      भीड़ मे एक हिंदू नौजवान भी खड़ा था। उससे जब न रहा गया तो सामने आकर चीखा- यही ढकोसला हम हिंदुओं मे भी है। जहां देखो बेकसूर कमजोर गरीब जानवर की कुर्बानी ! अरे जीभ पर लगाम नही है तो खुल कर कहो कि गोश्त खाने के चक्कर मे मजहब को घसीट रक्खा है । खाना है तो खाओ। पर ऊपर वाले को क्यों बदनाम करते हो ?


   मौलवी खुदा बख़्श के पास अब कोई चारा नहीं बचा था सिवाय इसके कि वे कुर्बानी के बकरे की डोर पकडे़ खामोशी के साथ घर लौट जाएं ।

(समाप्त)




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