मंगलवार, 28 जुलाई 2020

व्यंग्य- कालेजस्य प्रथमो दिवस:

     कालेज में शास्त्री जी का आज पहला दिन था। स्नान के बाद उन्होंने श्वेत धोती-कुरता धारण किया तो लगा-मानों काजल के पर्वत पर उजले बादल आ लिपटे हों। माथे पर चन्दन का तिलक, देखने वाले पर वशीकरण कर डालता। पैरों के खड़ाऊँ चलते वक्त तबले की सभी तालें सुना जाते। कमलनयनों पर आरूढ़ चश्मे की सुदीर्घ शाखें शास्त्री जी के कर्ण-कोटरों पर जा टिकी थीं। गरदन तक लहराते उनके घुंघराले काले बाल धोनी के शुरुआती केश-विन्यास की बरबस याद दिला जाते।

            दर्पण में सौंदर्य-राशि को विभिन्न कोणों से परखने के बाद आखिर शास्त्री जी संतुष्ट हुए। ठीक आठ बजे साइकिल के कैरियल पर उन्होने कामायनी, प्रिय-प्रवास, सूरसागर, पदमावत व सतसई आदि ग्रंथ बांधे व गद्दी पर बैठे। नेत्र मूंद कर कुलदेवता व पुरखों का स्मरण किया, फिर अपलक क्षितिज की ओर देखा, मानों कहना चाहते हों- ‘पूर्व चलने के बटोही, राह की पहचान कर ले‘।

            कालेज उनके घर से करीब दस किलोमीटर दूर था। वह गाना गुनगुनाते चले जा रहे थे- ‘रूक जाना नहीं, तू कहीं हार के....।

     अभी वह कुछ ही दूर गए  होंगे कि उनकी सांस फूलने लगी। मानस-पटल पर राम-जानकी के वन-गमन का दृश्य कौंध गया। सीताजी चलते-चलते थक गई हैं... फिर बूझति हैं चलनो अब केतिक, पर्ण कुटी करिहौ कित व्है.... हे प्रभो ! अभी कितना और चलना होगा ? पर्णकुटी कहां बनाएंगे ?
            शास्त्री जी भी अपने आपसे पूछने लगे-‘अभी और कितना जंघा-व्यायाम करना होगा ?
            स्वेद-सरोवर में नहाए, हांफते शास्त्री जी आखिर कालेज रूपी रण-क्षेत्र में उतर ही गए । अध्यापक, छात्र, स्टाफ सभी उन्हें घूरने लगे, मानों वह जंगल से भटक कर बस्ती में घुस आए  कोई जानवर हों।

            सियारों के टोले को चीरता गजराज जैसे आगे बढ़ जाता है, ठीक उसी मदमाती चाल से चलते शास्त्री जी साइकिल स्टैंड की तरफ बढ़ गए । घटिया नस्ल की फब्तियाँ कुछ दूर तक उनके पीछे दौड़ी भी, हास्य-व्यंग्य के पटाखे भी छूटे जरूर, मगर उनके धैर्य का बांध अटल था, अटूट था - कैसे टूटता ?

   

  प्रेयर में प्रिंसीपल ने शास्त्री जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डाली। संकोच व लज्जा-भार से भूमि पर गड़ी उनकी द्दष्टि उठने का नाम न लेती। ‘पके जामुन’ से अधरों पर खुशी की चपला रह-रह कर चमचमा उठती। पाव रोटी से प्रफुल्लित, आरक्त कपोल, विवर्ण हो कर बैंगनी हो उठते।

  प्रेयर के बाद शिखा में गांठ बांधते शस्त्री जी कक्षा में प्रविष्ट हुए। सारी क्लास  खामोश, खड़ी हो गई। शास्त्री जी हर्ष विभोर हो गए। मन ही मन सोचने लगे-कितने सभ्य, संस्कारवान बच्चे हैं ! देश का भविष्य अगर कहीं सुरक्षित है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है। भारत एक बार फिर सारे विश्व का नेतृत्व करेगा, और वह नेता इन्हीं बच्चों में से कोई होगा...........

शास्त्री जी अटेंडेंस लेने लगे- नचिकेता, आरूणि, उद्दालक, गौतम, जैमिनि, वैशाली, गार्गी, कृतिका, अपाला ...... कितने सुन्दर नाम थे।

अटेंडेंस के बाद ज्यों ही शास्त्री जी ब्लैक-बोर्ड की तरफ घूमे, एक समवेत, गंभीर उद्घोष उनके, कानों पर टकराया- ओ.....म।

चौंक कर छात्रों की ओर मुड़े वह। मगर कहीं कोई आवाज न थी, निस्तब्ध, निःशब्द, सन्नाटा। कहना बड़ा मुश्किल था कि ओ......म का वह अनाहत नाद किन-किन कंठों से फूटा था। शास्त्री जी ने स्वयं को समझाया कि यह शायद कालेज की महान परंपरा हो। फिर खांसते हुए बोले-‘प्यारे बच्चों, जिस प्रकार रोचक कहानियाँ सुना कर पंचतंत्र के विष्णु शर्मा ने मंदबुद्धि राजकुमारों को विद्वान बना दिया, उसी तरह मैं भी आपको हिन्दी का मर्मज्ञ बना दूंगा। लेकिन पहले मैं आपका सामान्य ज्ञान जांचना चाहूंगा।’ कुछ रूककर वह फिर बोले - ‘अच्छा नचिकेता, तुम बताओ-वाद कितने होते हैं ?

नचिकेता -सारी सर मुझे सिर्फ दस वाद ही याद हैं।

    शास्त्री जी के कान खड़े हुए। सिर खुजाते सोचने लगे-इतना सूक्ष्म, इतना गहन ज्ञान ! यहां तो हिन्दी साहित्य का इतिहास रटते-रटते उम्र खप गई, फिर भी चार-पाँच से आगे न बढ़  सके, और एक ये अदना सा कल का लौंडा, जिसकी मूंछों के बाल तक नहीं उगे-दस वादों की बात करता है !


    फिर मुस्कराते हुए बोले-शाबाश नचिकेता, मुझे गर्व है तुम जैसे मनीषी पर। सुनाओ दस वाद।
नचिकेता-सर, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, वंशवाद, संप्रदायवाद, अवसरवाद, अलगाववाद, भाई-भतीजावाद, बेटा-बेटी वाद तथा आतंकवाद। ये दस वाद ही सत्य हैं, शिव हैं, सुन्दर हैं। इनका बोध हो जाने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता ।  अतः हे सर ! इन वादों की विस्तार सहित व्याख्या कीजिए  ताकि हमारा जीवन सुख से बीत सके।

     शास्त्री जी का मुंह खुला का खुला रह गया। वह आवेश में चीखे-‘नीच ! कालीदास के विवाह-पूर्व संस्करण ! मूढ़, गर्दभ, क्या ये ही हिन्दी साहित्य के ‘वाद’ हैं ? रहस्यवाद, प्रगतिवाद आदि नहीं सुने कभी ? दूर हट मेरी दृष्टि से कलंक ।’

     हंसता, उछलता-कूदता नचिकेता क्लास से बाहर निकल गया। शास्त्री जी थोड़ी देर मौन रहे। क्रोध पर काबू पाया, फिर शान्त होकर बोले- अच्छा उद्दालक, तुम बताओ, काल कितने होते हैं ?

     टाई की सलवट ठीक करते हुए उद्दालक बोला-सर मेरी नालेज में काल दस होते हैं- कलिकाल, शीतकाल, प्रातःकाल, सांयकाल, रात्रिकाल, महाकाल, विनाशकाल, आपात्काल, युद्धकाल और सकंटकाल। सर मैं भी दूर हट जाऊं आपकी द्दष्टि से ?

     शास्त्री जी कुछ कहते, इससे पहले उद्दालक तीर की तरह क्लास से बाहर निकल गया।

    शास्त्री जी माथा पकड़ कुरसी पर बैठ गए । क्षण भर को नेत्र बंद करके आत्म-चिन्तन किया- शायद मैं कठिन प्रश्न पूछ रहा हूं, इसी से उल्टे-सीधे जवाब मिल रहे हैं, आसान प्रश्न पूछता हूं अब।

      फिर खड़े होकर शास्त्री जी ने मुस्कराहट की चादर होंठों पर फैलाई व बोले- अच्छा गार्गी बिटिया, तुम बताओ इस भूंमडल पर मुख्य-मुख्य गिरि कौन से हैं ?

     गार्गी  तत्काल उठी व किताबें समेट कर बैग में भरती हुई बोली-सर, अच्छा क्वेश्चन पूछा, गीरी पांच होती हैं, दादागीरी, बाबूगीरी, चमचागीरी, नेतागीरी, और गांधी गीरी। सर गांधी गीरी लेटेस्ट है, आज हमें बंक मार कर नचिकेता व उद्दालक के साथ- संजय दत्त की फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ देखने जाना है ताकि गांधी गीरी के सूक्ष्म रहस्य समझ सकें। सर शो का टाइम हो गया है, इट्स आलरेडी लेट। बाय सर, दूर होती हूं आपकी द्दष्टि से !

     बैग उठाए तेज कदमों से गार्गी से भी क्लास से बाहर चली गई।

     शास्त्री जी तनिक हड़बड़ाए। फिर जल्द ही सामान्य हो गए । क्योंकि वे समझ गए थे कि इन अबोध शिशुओं का दोष नहीं है। जब इन्हें सच्चा गुरू नहीं मिला तो ज्ञान कहां से मिलता। इसलिए  एक प्रयास और करता हूं। सुबह का भूला  शाम को घर लौट आए  तो भूला नहीं कहलाता।

    वह उठे। हाथ झाड़े। मुस्कराए, जैसे कुछ हुआ ही न हो। फिर बोले- गोस्वामी तुम बताओ कांड कितने होते हैं ?

    गोस्वामी उठा, जम्हाई ली, फिर अलसाई आवाज में बोला- ठीक लिखी है सर। पढ़ी है मैने पूरी मानस। कल ही आये थे, रामचरित अंकल, मानस की दो कापी लेकर, पापा को गिफ्ट करने....


     मैंने पूछा कांड कितने होते हैं, गोस्वामी ? मालूम हो तो बताओ वरना बैठ जाओ। -शास्त्री जी चीखे तो गोस्वामी भी चीखा- सर, बैठने के लिये कौन बेवकूफ उठता है ? बताता हूं, कांड मानस में भी सात ही हैं- बोफोर्स कांड, यूरिया कांड, यूटीआई कांड, स्टांप कांड, चुरहट लाटरी कांड, चारा कांड व ताबूत कांड। सर वेदों की भांति ये कांड भी किसी एक ऋषि ने नहीं बल्कि सप्त ऋषियों ने रचे हैं। ये सात ऋषि हैं- राजर्षि राजीवाचार्य, ब्रह्मर्षि नरसिंहाचार्य, काव्य-शिरोमणि यशवंताचार्य, कवि कुल केसरी तेलगी जी, प्रख्यात निशानेबाज व पहुंचे हुए महारथी अर्जुनाचार्य, गोकुल के रसिया भैंसों के दुहइया कवि कोविद आचार्य लल्लू लाल जी तथा नाग कुल दीपक, सदा एक जोड़ा वस्त्र धारण करने वाले साम्यवाद के प्रखर ज्ञाता फरनांडीजाचार्य।


      उत्तर देने के बाद हवा के झोंके सा गोस्वामी भी शास्त्री जी की द्दष्टि से ओझल हो गया। क्योंकि उसे  यकीन था कि प्रश्न का उत्तर सुनने के बाद उसका हाल भी नचिकेता, उद्दालक या गार्गी वाला ही होगा।

       तभी पहला पीरियड खत्म होने की घंटी बजी। शास्त्री जी ने कक्षा से निकल कर सीधे घर की राह ली। पहली कक्षा के पहले पीरियड के अनुभव से वह भली भांति जान चुके थे कि अगली कक्षा में उनके साथ क्या घटने वाला था।

(समाप्त)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें