बुधवार, 22 जुलाई 2020

व्यंग्य-- ब्लॉगर साइट से


            हिन्दी वेबसाइटें खंगालते हुए हमें यह ब्लॉगर साइट मिली. इसमें दिसंबर 2008  के आखिरी हफ्ते की कुछ बातों का ज़िक्र है. इसका कुछ हिस्सा अच्छा लगा. इसीलिए जैसे का तैसा यहां उतार लिया है. उम्मीद है, आपको पसंद आएगा -----

न्यूयॉर्क, दिसंबर 25, 2008

     हाय, मैं हूं निखिल. सॉफ्टवेयर इंजीनियर. बेसीकली फ्रॉम इंडिया. मैं इंडिया के किसी भी एक्सवाइ ज़ेड के साथ चैट करना चाहता हूं. कल एक इंडियन न्यूज़ चैनल देख रहा था. तब से डिस्टर्ब हूं. बीएसपी पार्टी के एक एमएलए ने  साथियों के साथ मिल कर एक मर्डर किया. यू नो किसका मर्डर ? एक इंजीनियर का मर्डर. क्यों किया ?  पचास लाख रुपए न देने की वज़ह से.

      मर्डर भी ब्रूटली किया. घर में घुसे. कॉलोनी में सिक्योरिटी गार्ड थे पर किसी ने रोका नहीं. वाइफ को टॉयलेट में बन्द किया. फिर उसके हस्बैंड-इंजीनियर मनोज गुप्ता को पीटने लगे. इंजीनियर ने दो बार पुलिस को फोन किया. कॉल अटेंड हुई, पर पुलिस तब पहुंची जब हत्यारे अपना काम करके जा चुके थे. इंजीनियर मनोज  चीखता रहा- भाटिया, मुझे सस्पेंड कर दो, बरखास्त कर दो मुझे, पर मारो मत. किसी ने नहीं सुना. मारते रहे. जब वह बेहोश हो कर गिर गया तो एक बोला- जो बाथरूम में छिपी है उसका क्या करें. जवाब मिला- छोड़ दो. 

     कॉलोनी का कोई  भी आदमी पूरी वारदात के दौरान बचाने नहीं आया. भरी कॉलोनी में, एक आदमी का कत्ल हो रहा है और कोई बचाने नहीं आता ?

    इज़ इट दैट ग्रेट इंडिया ? इसी की तारीफ करते तुम्हारी गालें नहीं थकतीं?

       माइ फ्रेंड ! लोग कहते हैं अपना देश अपना ही होता है. मगर मैं लात मारता हूं ऐसे देश को. थूकता हूं ऐसे देश पर,  जहां का आदमी इतना सेल्फिश, इतना इंडिवीजुअलिस्ट, इतना डरपोक है. ऐसे 'अपने देश' से तो पराए देश में रहना ज़्यादा अच्छा. जो आपको टैक्स के बदले सिक्योरिटी तो दे ही सकता है. जहां गवर्नेंस का कुछ मतलब होता है, जहां सेंस नामकी चिड़िया भी होती है.

       बीएचयू से मास्टर ऑफ इंजीनियरिंग था मनोज गुप्ता. एक मामूली से बैक ग्राउंड का आम लड़का, मगर मेहनती. देशप्रेम का ज़ज़्बा रखने वाला. उसे भी मेरी तरह  किसी मल्टीनेशनल में  जॉब मिल सकता था. मगर नहीं गया. मारा गया देशभक्ति के चक्कर में. और दूसरी तरफ था वह एमएलए तिवारी, जिसने दस पार्टियां बदलीं. खूंखार, खूनी  गुंडा. क्रिमिनल बैकग्राउंड रखने वाला. जिन भाड़े के हत्यारों के लिए पॉलीटिक्स देश सेवा नहीं बिज़नेस है. किसी तरह उल्टा सीधा करके पावर कैप्चर करो. अफसरों व ठेकेदारों से मोटी रिश्वतें लो. खुद भी खाओ, पार्टी को भी खिलाओ. ऐसे दुधारू जानवरों को कौन नहीं पालना चाहेगा ? क्या ये जनता के सेवक हैं ? बास्टर्ड ! और वो पॉलीटिकल पार्टियां ! जो ऐसे गुंडों को टिकट देती  हैं, क्या वे कॉमन मैन का भला कर सकती हैं कभी ?------------ 

26 दिसंबर 2008  औरैया, इंडिया

     हाय निखिल, मैं हूं  एक अनफॉर्चुनेट इंडियन . तुम मुझे दीपक कह कर बुला सकते हो. तुम्हें पढ़ा. आइ एम रियली सॉरी, जो कुछ भी हुआ. मगर यार इंग्लैंड को सीरीज़ से भी तो हमने ही हराया है. चन्द्रयान भी तो हमने ही छोड़ा है.  यू नो ! हम इंडियन क्रीम हैं.  हम जीनियस हैं. हमें नाज़ है अपने मुल्क पर.

      छोड़ो यार गुप्ता वाले केस पर क्यों अटके रहें. ऐसे केस तो यहां दिन में कई होते हैं. रहा होगा कोई पंगा उनका आपस में. ऊपर से सुना, हर एमएलए को टारगेट दिये गए थे कि इतनी कलेक्शन महीने में होनी ही चाहिए. गुप्ता के केस में बताते हैं ये पचास लाख थी. गुप्ता दे नहीं पाया. एमएलए को पैसा आगे पहुंचाना था. चीफ मिनिस्टर का बर्थडे है 15 जैन को.  प्रेस वालों से पता चला कि उसी के लिए मांगी थी फिरौती. वैसे बीएसपी का डिस्ट्रिक्ट सेक्रेटरी दोहरे भी मर्डर मे नामज़द है. मगर फरार हो गया है. उसकी ज़मीन ज़ायदाद कुर्क कराई जा रही है. उसकी वाइफ उस इलाके डिबियापुर की पंचायत सदस्य थी. वह फोन स्विच ऑफ रखती है. कुछ बताने को राजी नहीं.

     और हां. कोई जॉब मेरे लायक हो तो बताना यार. यहां अनइंप्लायमेंट कुछा ज़्यादा ही है. सरकारी जॉब्स पहले तो होते ही आटे में नमक के बराबर हैं. ऊपर से करीब 50% सीट रिज़र्व होती हैं. जेनेरल कैंडीडेट का तो फ्यूचर यहां बिल्कुल डार्क है. मैं अपना रेज़्यूम भेज रहा हूं. कुछ करना यार. कोई छोटी मोटी भी मिली तो कर लूंगा. मैरीज भी कर दी घरवालों नें. तुम्हारा दोस्त --- दीपक.

27.12.08 न्यूयॉर्क.  हाय दीपक. 

    मैं देख रहा हूं तुम्हारा इंडिया अब पूरी तरह माफियाओं के शिकंजे में जकड़ गया है. ड्रग माफिया, अवैध हथियार माफिया, लैंड माफिया, फॉरेस्ट माफिया, किडनी माफिया, कॉल गर्ल माफिया, नकली दवाई माफिया, नकली घी-दूध माफिया,भगवान माफिया ...आखिर कितने माफिया गिनाऊं. और सभी माफियाओं के पास अपने शूटर हैं. एक्सपर्ट शूटर. आइएसओ स्तर की उन्हें ट्रेनिंग मिलती है. टॉप क्लास के हथियार  मिलते हैं. और तुम्हारे पुलिस वालों को ? वही बाबा आदम के जमाने की बन्दूकें, वही बेंत के डंडे उनके हाथों में, वही थकी हुई परेड, ट्रेनिंग. ये बेचारे कहां तक मुकाबला करेंगे उन पेशेवर अपराधियों का ? और मान लो कोई देश भक्ति के चक्कर में जान की बाज़ी लगा कर पकड़ भी ले तो ऊपर से फोन आ जाएगा कि छोड़ दो, फरार हो जाने दो.

  ईमानदारी नाम की चिड़िया आप के इंडिया नाम के बगीचे मे कहीं नज़र नहीं आती. कुछ नहीं हो सकता. दूर तक अंधेरा ही अंधेरा दीखता है. मेरे डैड कहते हैं- वापस आ जा. यहीं रह कर अपना काम शुरू कर. मगर मैं क्या समझाऊं उन्हें ? आज जो इंडिया का हाल है उसमें वापस आने की बात सोचना भी बेकार है.  कोई सिक्योरिटी नाम की चीज़ है वहां? आप के इतने बड़े खिलाड़ी धोनी को 26 नवंबर के बाद खुले आम धमकी मिलती है कि पचास लाख दे या फिर मरने को तैयार हो जा. फिर पापा कहते हैं मैं इंडिया आ जाऊं ?  नो दीपक. तुम्हारा इंडिया तुम्हे ही मुबारक. हम यहीं अंग्रेज़ों की  गुलामी में ठीक हैं.

    जहां तक तुम्हारे लिए जॉब की बात है- आजकल तो यहां भी हालत खराब है. वर्ल्ड वाइड स्लंप की वजह से यहां भी छंटनी हो रही है. अभी तो नहीं, मगर जैसे ही सिच्वेशन नॉर्मल होगी, मैं तुम्हारे लिए कुछ करूंगा.  न्यूज़ चैनल देखा तो पता चला कि गुप्ता के केस में एसपी पुलिस भी सस्पेंड हो गया ! एक चीज़ मेरी समझ में नही आती दीपक. क्या ये सारी चीज़ें किसी गलत अफसर की वज़ह से हुईं? मैं नहीं मानता. इंडिवीज़ुअल का इसमें कोई कसूर नहीं. पूरा सिस्टम ही करप्ट है. एक अफसर को बलि का बकरा बना कर तुम मेन खिलाड़ियों को बचा लेते हो. आज 'एक्स' सस्पेंड हुआ, कल 'वाइ' होगा. मगर टॉप लेवल से जो करप्शन चल रहा है वह चलता ही रहेगा. वो बन्द नहीं होगा.

         दीपक यार, मुझे ज़रा उन स्टेच्यूज़ के बारे मे बताना जो आजकल मायावती लखनऊ में बनवा रही है. कांशी राम की, अपनी या अंबेडकर की मूर्तियां बना कर, करोड़ों अरबों रुपए उनमें झोंक कर वह किन का भला करने वाली हैं? इतने पैसे से तो यूपी के सारे दलितों को रोज़गार दिया जा सकता था. ये ड्रामे क्या इंडिया के लोग समझते नहीं? या फिर ये पॉलीटीशियन पब्लिक को अब भी बेवकूफ समझे बैठे हैं? इलेक्शन रिज़ल्ट बताते हैं कि  इंडियन वोटर अब मैच्योर हो चुका है. ये चोंचले अब काम नहीं आने वाले. फ्रैकली स्पीकिंग,  ये भी करप्शन का ज़रिया है. महान पुरुषों की मूर्तियां भी अब कमाई का औज़ार बन गई हैं.  

             पाट दो सारे हिन्दुस्तान को मूर्तियों से. झोंक दो सारे बजट इन पार्कों के बनाने में. ज़िन्दा इंसान के बारे में सोच कर क्या होगा, सोचो इन मरे हुए लोगों के बारे में. अशोक महान ने तो चौरासी हजार स्तूप बनवाए थे. तुम चौरासी लाख स्टेच्यू बनवा दो. मगर इससे फायदा क्या होगा ?  पब्लिक इन मूर्तियों के दर्शन करके गरीबी की रेखा से ऊपर उठ जाएगी? लिटरेसी रेट बढ़ जाएगा ? वाह माइ इंडिया ! ये मेरा इंडिया ! आइ लव  माइ इंडिया.ये मेरी सोशल इंजीनियरिंग. एक बनिये को मरवाया, एक बाम्हन को खूनी बनवाया, एक ठाकुर को सस्पंड कराया, और एक दलित को फरार करा कर साफ बचा लिया. ये है आपकी सोशल इंजीनियरिंग ! इसी के भरोसे लाल किले के ख्वाब देखे जा रहे हैं?

              सोचता हूं अब सो जाऊं. वरना दिमाग का दही हो जाएगा ज़्यादा सोच कर. एक्सप्लॉयटेशन के खिलाफ कॉमन मैन को एकजुट करना बहुत मुश्किल काम है. मुश्किल इसलिये कि उस कॉमन मैन को बांट दिया गया है. कहीं जातियों में कहीं मजहबों में, कहीं अमीर गरीब में तो कहीं एजूकेटेड, अनएजूकेटेड में, तो कहीं ईस्ट,वेस्ट, नॉर्थ, साउथ में.

बॉय दीपक. सी यू अगेन. --------------


28-12-08, नई दिल्ली, वैष्णवी.

       हाय निखिल, मैने तुम्हारे ब्लॉग पढ़े. आइ लाइक्ड इट. मैं सोशल साइंस में डॉक्टरेट कर रही हूं. निखिल, सबसे पिंच करने वाली बात तो ये है कि इंडिया में एजूकेशन की कोई रिस्पेक्ट नहीं है. एक पोस्ट गेजुएट इंजीनियर, जो सरकारी अधिकारी भी है- उसे कुछ अनपढ़ क्रिमिनल्स लातों घूसों से मारें, पुलिस की मदद लेकर उसे इलेक्ट्रिक रॉड से टॉर्चर करें और आखिर उसे पीट पीट कर खत्म कर दें ! इज़ इट अ ह्यूमन सोसायटी ? ऐसा तो जंगल राज में भी नहीं होता ? और अमेज़िंग तो ये है कि इतना देखने के बाद भी किसी अफसर ने किसी असोशिएशन ने, किसी एम्नेस्टी इंटरनेशनल ने एक शब्द भी नहीं कहा ? हम कब तक फ्यूडलिस्टिक मेंटलिटी के लोगों से गवर्न होते रहेंगे ? ऐसे घटिया लोग, जो किसी दफ्तर में चपरासी बनने के भी काबिल न हों- उन्हें हम देश की बागडोर सौंपते आ रहे हैं ! क्या इस देश के पढ़े-लिखे लोग एक पार्टी नहीं बना सकते, जिसमें कोई क्रिमिनल  न हो, जिसमें सब वेल क्वालीफाइड हों, इंटेलेक्चुअल हों, जिनके पास इस देश के लिए विज़न हो ? जो सिर्फ पैसा इकट्ठा करके बाहर जमा करने मे ही न लगे रहें, उससे आगे भी सोचें. यू नो निखिल, गुप्ता की गलती क्या थी ? मैं बताती हूं. उसकी गलती थी कि वो करप्ट नहीं था. दूसरी गलती उसकी ये थी कि उसमें देश-प्रेम की फीलिंग थी.

      थिंक निखिल, इस मुल्क का ब्यूरोक्रेट व टेक्नोक्रेट देश के बारे में क्या सोच रखता है, और ये ज़्यादातर बेशर्म, निहायत घटिया, टुच्चे, क्रिमिनल  पॉलीटीशियन देश के बारे मे क्या सोचते हैं. जस्ट कंपेयर !------

    ओके निखिल --- हम ब्लॉग करते रहेंगे--- तब तक के लिए -बॉय ----वैष्णवी.
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