चुनाव की तारीख आ पहुंची थी. सपनीले से पांच साल पंख लगा
कर कब उड़ गए, पता ही न चला ! विष्णु जी की अर्धांगिनी को ठिकाने लगाते
लगाते ही सारा वक्त गुज़र गया. ठिकाने, बोले
तो गोपनीय खातों में स्थापना करते-करते. गोपनीय बोले तो वे खाते, जिनकी
हवा किसी भी कीमत पर लीक नहीं होती.
सब काम ठीक -ठाक निपटा कर उन्होनें कमर सीधी भी नहीं की
थी कि चुनाव का वेताल फिर पीठ पर सवार हो
गया. रियासत के कोने-कोने से बुरी खबरें आ रही थीं. जीतने के चांस तो खैर थे ही
नहीं, मगर गिरोह बना कर सत्ता पर काबिज़ रहने के भी आसार नहीं
थे. सबसे ज्यादा खतरा था उन इलाकों से जहां कर्ज़ में डूबे शेतकारों ने खुदकुशी की
थी. या फिर जहां,
जोर जबरदस्ती
जमीनें छीन कर अज़ीज़ों को पेशे नज़र की गई थीं. लोग सबक सिखाने के मूड में थे, तैयार
बैठे थे. बस मौके का इंतज़ार कर रहे थे.
खबरें कामगारों की तरफ से भी अच्छी न थीं. जान बूझ कर
सरकारी कंपनियों के साथ जो सौतेलेपन का सुलूक किया जा रहा था, उससे
कामगार भीतर ही भीतर निराश थे. बड़े कॉरपोरेट घरानों के साथ दामाद सा बर्ताव करने
की वजह से मंझोले उद्योगपति भी गुस्साए हुए थे. अपने खुद के भत्ते बढ़वाने के लिए
पक्ष और विपक्ष वाले किस तरह एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो जाते हैं, और
कर्मचारियों की वेतन -बढ़ोत्तरी में कैसे
बरसों लगा देते हैं- पब्लिक समझने लगी. संसद में बैठ कर चीखने-चिल्लाने, हाथा-पाई
करने और शाम को साथ बैठ कर खाने-पीने के ड्रामे भी अब सबकी समझ में आने लगे थे.
उन्हें याद आया-पिछले पांच साल में करीब दो-ढाई लाख
किसान कर्ज़े न लौटाने की वजह से दुनियां छोड़ गए. इलाके के छुटभैयों ने काफी समझाया
कि चाहे कुछ करो या न करो,
बस एक बार मुंह तो
दिखा जाओ, कुछ वादे तो कर जाओ, बाकी
हम खुद संभाल लेंगे. देखो न,
अलाव दहकता देख कर
अपोज़ीशन वाले भी कब के रोटियां सेंक कर चले गए, मगर
तुम अब तक नहीं आए. प्लीज़ बता तो दो तुम
कब आओगे ? कब रेंगेगी जूं तुम्हारे कानों पर ?
आना तो दूर, उन्हें
बताना भी याद न रहा.

उन दिनों तो
सारा हिन्दुस्तान ही फिल्मी शूटिग का स्टूडियो बना हुआ था. एक लोकेशन पर कर्ज़ के बोझ में दबा किसान खुदकशी कर रहा था तो
उसी वक्त दूसरी लोकेशन पर भरे-पूरे गांव उज़ाड़ने का पावन काम चल रहा था. खेतों में
दौड़ा-दौड़ा कर काश्तकारों को पीटा जा रहा था. बाहर से आए भाड़े वाले, औरतों की इज़्ज़त पर खुले आम डाके डाल रहे थे.
नौजवान गालियों और गोलियों -दोनो के शिकार बन रहे थे. छोटे बच्चे हैरान थे. नहीं
समझ पा रहे थे कि अचानक यह कौन सी आफत उनके गांव पर टूट पड़ी है? अंग्रेज़ों
भारत छोड़ो की तर्ज़ पर पुलिस की हिफाज़त में हमले करने वाले, हाथों
में धारदार हथियार लिये -चीख रहे थे-
कमीनों, कंगालों, गांव
छोड़ो. तीसरी लोकेशन पर सरकार बहादुर देश की जनता को बता रही थी कि देखो, सेंसेक्स
में रेकॉर्ड बढ़ोत्तरी हमारी ग्रोथ रेट का सर्टिफिकेट है. कौन कहता है कि हम गरीब
हैं ? कौन कहता है कि हम तरक्की नहीं कर रहे ? कौन
कहता है कि हम किसी से कम हैं ? चौथी लोकेशन पर
कुछ भाड़े के बुद्धिजीवी शोध ग्रंथों के ज़रिये यह बता रहे थे कि
हिन्दुस्तान की तरक्की में अगर कोई रुकावट है तो वह हैं यहां के किसान,
जिन्हें बस सब्सिडी चाहिये. कभी खाद पर तो कभी बिजली- पानी पर तो कभी बीजों पर.
लेकिन ऐसे भी कुछ बुद्धिजीवी थे जो कहते थे कि जितनी
लागत छोटा किसान लगाता है,
उसे उतना भी रिटर्न
नहीं मिलता. सारा परिवार साल भर खेतों में जो हाड़ तोड़ मशक्कत करता है, उसकी
कीमत जो बनती है सो अलग है. फिर क्यों नहीं मिलनी चाइये उसे वाज़िब कीमत? क्यों
नहीं मिलनी चाहिये उसे सब्सिडी? क्या अमेरिका अपने
किसानो को सब्सिडी नहीं देता?
मगर ऐसे बुद्धिजीवियों को न तो टीवी चैनल वाले बुलाते थे, न
बड़े अखबार उनकी रिपोर्ट छापते थे.
उन दिनों तो ऐसा
लगने लगा था कि हम मलिकाए विक्टोरिया के राज में जी रहे हैं. जहां एक तरफ मुट्ठी
भर अंग्रेज़ हैं जो सत्ता में बैठे हैं. दूसरी तरफ हैं करोड़ों हिन्दुस्तानी, गरीब,
अनपढ़, बेकार, जहां इस बात के लिए
जंग हो रही है कि भारत कौन छोड़े ? अंग्रेज़ या
हिन्दुस्तानी ? हुक्मरानों की मरज़ी ही जहां कानून है, ह्यूमन
राइट नाम की जहां कोई चिड़िया नहीं होती.
इंसानियत की हालत उस दौरान ऐसी लंगड़ी, चोट
खाई कुतिया की तरह हो गई,
जो फिल्म स्टूडियो
के बाहर, कूड़े के ढेर पर मुंह छुपाए व पूंछ दबाए खामोश,
गमगीन बैठी हो.
शूटिंग अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि चुनाव का बिगुल बज
गया.
छुटभइये धरने पर बैठ गए. उन्होने जिद पकड़ ली कि अब तो
शूटिंग की लोकेशनों पर जाना ही पड़ेगा, वरना
तैयार रहिये विपक्ष में बैठने के लिये.
बात की गहराई समझ में आ गई. रणनीति बनने लगी.
इधर सब कोई अपनी
अपनी म्यानों से तलवारें निकाल रहे थे ताकि पिछले पांच साल का हिसाब किताब मांग
सकें. ऊंट को धीरे-धीरे पहाड़ के नीचे आते देख वोटर काफी खुश थे.
मगर ठीक इसी वक्त बज़ट सत्र शुरू हो गया. बज़ट में किसानों की मौत पर बेहिसाब अफसोस ज़ाहिर
किया गया. आंसू बहाए गए. किसानों को भूमिपुत्र, अन्नदाता
, जाने क्या-क्या कहा गया. हज़ारों करोड़ रुपए के कर्ज़े माफ
करने का ऐलान हो गया. वे ही हुक्मरान जो कल तक कहते फिर रहे थे कि कृषि इस देश की
तरक्की में कोई अहमियत नहीं रखती, तरक्की तो सिर्फ
कॉरपोरेट घराने ही ला सकते हैं, वह भी सिर्फ
किसानों की उपजाऊ ज़मीनों पर एसईज़ेड बना कर. वही अब कहने लगे कि किसान तो अन्नदाता
है. भूमिपुत्र है. किसान की तरक्की के बगैर हिन्दुस्तान की तरक्की की बात सोची भी
नहीं जा सकती. लिहाज़ा उनके सारे कर्ज़े माफ किये जाते हैं.
नाटक शुरू हो गया. किसानों के जत्थे के जत्थे रंग-बिरंगी
पगड़ियां बांधे "उनकी" ड्योढ़ियों पर जा जाकर मत्था टेकने लगे. उनकी चालीसा गाई जाने लगी. उन्हें इंसानियत का
सबसे बड़ा मसीहा बताया जाने लगा. उनके किसानों को वरदान देते बड़े बड़े पोस्टर, कटआउट
जगह जगह रातों रात लग गए. हर टी वी चैनल उन स्पोंसर्ड किसानों के मुंह पर माइक ले
जा कर यही पूछ रहा था- अब कैसा लग रहा है आपको ? आपका
असली हमदर्द कौन है ?
इस बार किसानों का
वोट किसे मिलने वाला है ?
बैंकों ने ब्याज़ दरें बढ़ा कर अपना घाटा पूरा कर लिया. वे
चुनाव जीत कर फिर सत्ता में पहुंच गए.
वे फिल्मी किसान, जो
रंग-बिरंगी पगड़ियां बांधे ड्योढ़ियों पर मत्था टेकने गए थे , चुनाव
के फौरन बाद न जाने कहां गायब हो गए?
उन्हें खोजने एक पत्रकार गांव-गांव घूमा.

रोते -बिलखते कुछ किसान उस पत्रकार के पास आए और पूछने
लगे- हमें अपने घरों से क्यों भगाया जा रहा है? अगर
ये हमारा देश नहीं है तो हमें बता दीजिये हम किस देश के वासी हैं ?
पत्रकार का सिर शर्म से झुक गया. "विकास" की
बलि चढ़ने वाले उन बकरों को वह कोई जबाब न दे सका.
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