छुट्टी का दिन तो न था, पर हम साल की बची हुई छुट्टियां खत्म करने के
इरादे से घर पर ही होलीडे होम मना रहे थे. बिस्तर पर लेटे लेटे ही घड़ी की तरफ
देखा. कम्बख्त दस बजा रही थी. बाहर झांकने के लिए खिड़की खोली. धोबी का गधा रस्सी
तुड़ा कर अरहर की फसल में नाच रहा था. कभी
वह पूंछ को चंवर की तरह इधर उधर घुमाता, तो कभी पिछले पैर उछाल कर
दुलत्तियों की ताकत का खौफनाक डेमो देता.
अभी हमने उस भावभीने दृश्य का आनन्द लेना ढंग से शुरू भी न
किया था कि बाहर से जानी-पहचानी गाने की
आवाज़ कानों को चीर गई. गाने के बोल थे- छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी
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वह आवाज़ कानों पर क्या पड़ी कि हमारे दिमाग की तो जैसे बत्ती
ही गुल हो गई. मरदूद मिर्जा फिर आ पहुंचा
! मैं आज घर पर हूं- इस बात को कैसे सूंघ गया मेरे अमन चैन का दुश्मन !

मुंह में दबी गिलौरियों को बेरहमी से कचरते हुए मिर्जा हिनहिनाया- जनाब आज घर पर हैं और हमें सुराग तक नहीं ! ऐसी क्या जमा लूटी है हमने दुश्मनों की कि शरीफों को इत्तिला तक करना गवारा न समझा गया !
हमने भी कई बार रंगे हाथ पकड़े गए बेशर्म चोर की तरह खिसियाने का नाटक करते हुए कहा – मिर्जा यार, ऐसी बात नहीं है. ये महज़ तुम्हारा ख्याली पुलाव है या फिर दिल का वहम. हकीकत ये है कि हमें इतनी फुर्सत ही नहीं है कि इस तरह की ऊल जलूल बातों पर वक्त ज़ाया करें. अरे भाई जान, आपके अलावा और भी तो ग़म हो सकते हैं जमाने में कि नहीं !
-अच्छा अब ज़्यादा सफाई मत पेश कीजिये. उसकी कोई ज़रूरत नहीं. लीजिये पहले पान का लुत्फ उठाइये. कल शाम ही बनारस से पहुंचे हैं. इधर मुंह में रक्खे नहीं कि उधर मिसरी से घुले नहीं. क्या याद करेंगे आप भी कि खिलाया था किसी दिलदार ने बनारस का असली पान.
हमने गिलौरी मिर्ज़ा के हाथ से झपट कर सिरहाने तले धरी तो मिर्जा बिफरे- लाहौल विला कुव्वत ! अरे आप बिरहमनों को पान खाने की कोई तमीज़ है कि नहीं. जनाब ये बनारसी पान था, कोई गंडा ताबीज नहीं कि लिया औलिया से और धर दिया सिरहाने. खैर छोडिये. बंदर जब जानता ही नहीं अदरक का स्वाद तो कोई क्या उखाड़ ले उसका.
-नहीं मिर्जा ऐसी बात नहीं है. दरअसल अभी हमने उठ कर कुल्ली तक नहीं की है. बासी मुंह पान खाएं तो कैसे. क्या ये पान की तौहीन न होगी !
- अजी ऐसी की तैसी तौहीन की ! होते आप खानदानी रजवाड़े रईस तो पता होता कि पान खाया ही बासी मुंह जाता है. अरे मंजन करके पान खाया तो क्या खाक खाया !.खैर छोड़िये इन बातों को. कहिये सब खैरियत तो है! ये दस बजे तक बिस्तर क्यों पकड़ रखा है.
उनके इस बेहूदा सवाल पर हमारी दाढ़ें किटकिटा उठीं. जी तो चाहा कि मिर्जा को उठा कर खिड़की के रास्ते खेत में नाचते गधे की दुलत्तियों की तरफ उछाल दें, और फिर आराम से बैठ कर देखें नजारा, पर फिर ये सोच कर चुप रह गए कि ऐसा सोचना तो मुमकिन है, मगर कर पाना एक दम नामुमकिन. फिर भी दाढ़ों की किटकिटाहट को सहलाते हुए कराहे - क्या ये सारी कैफियत आपको देने को मैं पाबंद हूं मिर्जा कि मैं दस बजे तक क्यों पड़ा हूं, या कि फिर आज मैंने दफ्तर की तरफ कूच क्यों न किया.
जी बिल्कुल नहीं . मिर्जा बोले.
शुक्रिया मिर्जा. उम्मीद करता हूं आइंदा ऐसे बबूचक सवालात हमसे न पूछेंगे. अब आप हमारे सवाल का जवाब दीजिये कि ये –छोड़ो कल की बातें---आप क्यों गा रहे थे. भला ये कैसे हो सकता है कि हम कल की बात छोड़ दें.

- अमा यार इत्ती सी बात भी तुम्हारे भेजे में नहीं आती! अरे कल की बात छोड़ने में तो मज़ा ही मज़ा है और याद रखने में गम ही गम. अभी निकल जाइये सड़क पर. हर कोई यही कहता मिलेगा कि हमारा वक्त अच्छा था. रुपए का सेर भर घी आता था. इकन्नी का धड़ी भर आटा, छ आने की सेर भर अरहर की दाल, चवन्नी का सेर भर गुड़. अब ये सब याद करके बहाते रहिये टसुए. क्या मिलेगा सिवा आंखें फोड़ने के ! जनाब, वो अंग्रेजों का राज था ! लुटेरों का नहीं. अब कहां से आए वो बढ़िया राज !
बाजी हाथ से फिसलती देख हमने
पलटी मारी- अरे मिर्जा हम उस 'गुलाम कल' की नहीं, आने वाले 'आज़ाद कल' की कह रहे थे. हां ! अपने देश में अपने राज की बात कर रहे थे हम. बड़ा इंतज़ार था न हमें आज़ादी का ! मिल तो गई आज़ादी ! अब क्यों रोते हैं.
मिर्जा तपाक से बोले- अरे शर्मा, सच पूछो तो इस 'आज़ाद कल' को भी भूलने में ही भलाई है.
- वो क्यों भला
- वो इसलिये कि जनाब, कल सौ रुपए किलो आटा होने वाला है. गई बीती दाल भी पाँच सौ रुपए किलो से कम न होगी. नमक पचास तो चीनी दो सौ रुपए किलो मरी हालत में होगी. टमाटर सौ रुपए किलो तो लौकी कद्दू पचास साठ से कम नज़र न आएंगे. सिंथेटिक दूध सौ रुपए तो असली दूध दो सौ रुपए के भाव से शायद कहीं मिल जाए. क्योंकि गाय भैंस तब तक लुप्त प्राणियों की लिस्ट में दर्ज हो चुके होंगे. नकली दूध की थैलियों पर इन दुर्लभ दुधारुओं के खूबसूरत रंगीन फोटो छपा करेंगे. टीवी पर विज्ञापन कुछ इस तरह
आया करेंगे.—हमारा ' जर्सी गाय छाप' दूध,देखने और स्वाद में बिल्कुल जर्सी जैसा. 'मुर्रा भैंस छाप' घी, वैसा ही दाने दार. खाने में भी वही टच. ऊँट छाप मक्खन, बकरी छाप हर्बल दूध- पचास रुपए का ढाइ सौ मिली लीटर. आप हमारे प्लांट में आकर देख सकते हैं. जिस सोडे का, जिस 'रिफाइंड मोबिल ऑयल' का, जिस यूरिया का, जिस डिटरजेंट का इस्तेमाल हम दूध बनाने में करते हैं वह एक दम शुद्ध होता है. सौ फीसदी शुद्ध . नकली साबित करने वाले को पाँच लाख रुपए का इनाम. कमोबेश यही हालत होगी सिंथेटिक पनीर, घी, दही व मिठाइयों की.
मेहँदी रंगी केसरिया दाढ़ी पर मचलती सुर्ख पीक को कुर्ते के पहुंचे से पोंछते हुए मिर्जा गरजे - तो अब बताइये, ऐसे आने वाले कल की बात करके हम अपना आज क्यों बरबाद करें.

मिर्जा खिलखिला कर हंस पड़े. सोफे से उछल कर हमारे गले से चमगादड़ की तरह लटक गए. फिर उसी तरह झूलते हुए गिड़गिड़ाए, अमां कुछ भी कहो, हो तो बड़ी पहुंची हुई चीज़. अरे तभी तो तुम्हारे सामने ये गाना हमने गुनगुनाया था. वरना 'आज' के हालात पर तुम्हारा ये तफ्सरा कहां सुनने को मिलता. अब पिला भी दो इसी बात पर आधी आधी प्याली गरमागरम अदरक वाली चाय.
मिर्जा चने के झाड़ पर हमें चढ़ा ही चुके थे. मन मार कर जाना पड़ा रसोई की तरफ, अदरक वाली आधी आधी प्याली चाय बनाने.
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