'आज के युग' को लेकर लोगों में कई धारणाएं बन गई हैं.
कुछ लोग मानते हैं कि आज का युग विज्ञान का युग है. कुछ लोग एक कदम और आगे बढ़ाते
हुए इसे इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का युग बताते हैं. कोई इसे 'कलजुग' कहते हैं तो
किसी की नज़रों में यह अंधा युग भी है.
बहुमत मगर ऐसे लोगों का है, जो इसे आंकड़ों का युग कहते
हैं. ऐसे लोगों को सुविधा के लिये आप
आंकड़ा संप्रदाय के सदस्य भी कह सकते हैं.
इस संप्रदाय का मानना है कि दुनियां में सच या झूठ नाम
की कोई चीज़ नहीं होती. दुनियां का सत्य एक ही है. और वह सत्य है-आंकड़े. आंकड़ों से ही सत्य तथा असत्य नामक तत्वों की
रचना होती है. वैसे तत्व तो प्रकृति में सिर्फ पांच ही हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि वायु
और आकाश, लेकिन इन पांच के संयोग से कितनी विराट सृष्टि का निर्माण हो गया ! ठीक उसी तरह आंकड़े भी हैं तो मात्र एक ही
वस्तु, यानि कि संख्याएं, मगर उनसे कितने सारे सत्यों असत्यों का जन्म हो जाता है
! इस संप्रदाय का तो यहां तक कहना है कि यह संपूर्ण जगत मिथ्या है.
आंकड़े ही ब्रह्म हैं, आंकड़े ही सत्य हैं. इसके अलावा जगत मे जो कुछ भी दीखता है- सब मिथ्या है.
इस संप्रदाय को हर चीज़ की उत्पत्ति के पीछे सिर्फ आंकड़े ही दिखाई देते हैं. ठीक उसी
तरह , जैसे सावन के अंधे को हर तरफ हरा ही हरा दिखाई देता है.

मगर अपने चारों तरफ जब आप देखेंगे तो कन्फ्यूज़ हो
जाएंगे. बहुत मुमकिन है कि आपको चारों तरफ भूखे-नंगे, प्यासे लोगों की बस्तियां
दिखाई पड़ें. आपको अखबारों में छपी खबरें भी परेशान करेंगी कि आस्ट्रेलिया से
हज़ारों टन सड़ा-गला, कीड़ों से बिलबिलाता,फफूंदीदार गेहूं करीब बीस रुपए किलो खरीदा
गया, जिसे सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों तक ने उठाने से इनकार कर दिया. आप ही
बताइए-ऐसी खबरें छापने वाले, या ऐसे मुद्दे उठाने वाले पत्रकार व नेता देश द्रोही
नहीं तो क्या हैं ? देर -सबेर इन पर देश-द्रोह के मुकदमे ज़रूर दायर होंगे.

अब आंकड़ों का प्रताप देखिये-बाढ़ तो आती है-सिर्फ एक, घर
बह जाते हैं सैकड़ों, बेघर हो जाते हैं हज़ारों, प्रभावित होते हैं लाखों, नुकसान हो
जाता है करोड़ों का व केन्द्र से सहायता मांगी जाती है अरबों की. है न आंकड़ों का
खेल ! अब इस तस्वीर का दूसरा रुख भी देखिये. सहायता भेजी जाती है अरबों की, पहुंचते हैं करोड़ों, बांटे जाते हैं लाखों,
बंटते हैं हज़ारों, व हाथ में आता है वही सौ का एक नोट- ये पीड़ा व्यक्त हुई है भाई
घनश्याम अग्रवाल की कविता में.

जोड़ कर पता चलता है - इस सारे रकबे का क्षेत्रफल तो पूरे
गांव से भी ज़्यादा है. फिर सवाल उठता है
कि यह गांव आखिर बसा कहां है ? हवा में ?
इस सवाल का जवाब हमारे पास नहीं है. जिला विकास अधिकारी महोदय बेहतर
जानते होंगे.
आंकड़ों के बढ़ते इस्तेमाल ने अब एक नए उद्योग को ही जन्म
दे दिया है. इस उद्योग का नाम है-आंकड़ा-संसाधन'. 'आंकड़ा संसाधन' यानी डेटा प्रोसेसिंग आज एक उद्योग की
शक्ल पा चुका है. बाज़ार में कई कंपनियां
मौजूद हैं जो आपकी जरूरत के मुताबिक आंकड़े
पेश कर सकती हैं. इंडस्ट्री लगाने के लिए बैंक से करोड़ों का कर्ज़ लेना है ?
बनवा लीजिये एक फड़कती हुई रिपोर्ट किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट से. वह दिखा देगा कि
कैसे इस उद्योग के लगते ही सारे इलाके से बेरोज़गारी गायब हो जाएगी. कैसे विदेशी मुद्रा की बरसात अपने यहां शुरू हो
जाएगी. कैसे तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में हम विकसित देशों के बराबर आ जाएंगे ? अब ऋण
लेने के बाद आप इंडस्ट्री लगाते हैं या पैसे को ठिकाने लगाते हैं -आपकी मर्ज़ी.
अगर आप उद्योगपति हैं तो वाज़िब इनकम टैक्स भरना आपकी शान
के खिलाफ होगा. करोड़ों-अरबों की इनकम को लाखों के आंकड़े में समेट देना आपका चार्टर्ड
एकाउंटेंट अच्छी तरह जानता है. और लाखों पर टैक्स देना तो आटे में नमक भी नहीं है.
इतना तो अपना स्टेटस बनाए रखने के लिये आपको दिखाना भी चाहिये. वरना शेयर होल्डर क्या
सोचेंगे ?

और अगर आप गलती से कस्बे -देहात के किसी स्कूल की तरफ ये
फिल्म देख कर निकल गए तो सिर पकड़ कर मत बैठियेगा. क्योंकि वहां आपको मैले-कुचैले
कपड़े पहने, थके-हारे, बीमार बच्चे मिल सकते हैं. और भैन जी ! पहले तो मिलेंगी ही
नहीं. गलती से मिल भी गई तो पढ़ाती हुई नहीं स्वेटर बुनती या इंश्योरेंस पॉलिसी
बेचती हुई मिलेंगी. मास्टर जी मिलेंगे बैंड वाले के यहां. इंस्पेक्टर साब की बेटी की
शादी है ! बैंड-बाजे का इंतजाम हेड मास्टर जी ने अपने कंधों पर खुशी-खुशी लिया है.
आखिर कन्यादान है न ! कन्या तो कन्या है. चाहे किसी की भी हो. और अगर अपने ही
इंस्पेक्टर साब की हो तो क्या कहने ! ऐसे सामजिक मौके पर इंस्पेक्टर साब के काम न
आए तो फिर कब आएंगे ? बाकी स्कूलों के हेड मास्साब भी अपने अपने खास मास्टरों व कई-कई साल के फेलियर छत्रों के साथ
वहां शादी-ब्याह की ज़िम्मेदारियां संभालते मिल जाएंगे.
और जब आप इंस्पेक्टर साब के रजिस्टरों में गुरुजी की
उपस्थिति देखेंगे तो वे पूरे तीस दिन पढ़ाते मिलेंगे. रिज़ल्ट भी शत प्रतिशत आता है.
आंकड़े इंस्पेक्टर साब के दस्तखत से जारी
हुए हैं इसलिये एक दम सच हैं. आप उन्हें
झुठला नहीं सकते. सरकार का सर्व शिक्षा
अभियान आंकड़ों के पंख लगा कर उड़ा जा रहा है. भर रहा है परवाज़ खुले नीले आसमान में
! जिसे उखाड़ना हो उखाड़ ले. देश तो साक्षर होता ही जाएगा. कोई रोक सके तो रोक ले.
अब बात कर लें जरा अपराधों के आंकड़ों की भी.ये आंकड़े भी
कम दिलचस्प नहीं होते. पुलिस महकमा चाहता है कि बलात्कार के केस हर साल पहले से कम
दिखाए जाएं मगर बुरा हो तरक्की का. इस क्षेत्र में भी जब हम तरक्की की रास्ते पर तेज़ी
से दौड़ते दीखते हैं तो पुलिस विभाग की परेशानियां बढ़ जाती हैं. कैसे कम करके
दिखाएं?
घबराने की बात नहीं. इसका भी बड़ा आसान तरीका खोज लिया
गया है. तरीका ये है कि ऐसे मामूली मामलों की रिपोर्ट ही न लिखी जाय. पीड़ित महिला
चाहे थानेदार के सामने लाख दुहाइयां दे, लाख सुबूत पेश करे, मेडिकल रिपोर्ट दिखा
दे, यहां तक कि बलात्कार करने वाले को भी पेश कर दे, मगर दरोगा जी की समाधि नहीं
टूटती. ऐसे दृढ़ निश्चयी अफसरों के होते बलात्कारों का ग्राफ ऊपर कैसे उठ सकता है ?
और भई सच तो वही माना जाएगा जो रिपोर्ट में कलमबंद होगा. ऐसे सड़क पर कोई लाख चिल्ला ले. उससे क्या होता है ? साल
के आखिर में जब आंकडे देखे जाएंगे तो पता चलेगा कि पिछले साल की तुलना में अबके कम बलात्कार हुए.

तो आंकड़ों का यह अंक गणित सारी व्यवस्था की जड़ में अमृत
सींच रहा है. कहां कहां पूंछ उठा कर देखियेगा ? थक जाएंगे.
तो फिर क्या करें ?
करना क्या है- आप भी अंक-विद्या सीखिये, और पा जाइये निजात सारी दिक्कतों से.
(समाप्त)
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जवाब देंहटाएंBahut sunder sir
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार !
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूं.
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