सघन हरित वृक्षावलियों से आच्छादित
वे उत्तुंग शिखर
उन पर आंचल बन कर लिपटे शुभ्र मेघ ,
कहीं वनांचल के ढालों पर
विचरण करते वन्य जीव
कहीं प्रफुल्लित वृक्षों पर बैठे,
गाते वन पाखी
शीतल मंद सुगंध पवन के झोंके
धूल भरी पगडंडी से हो कर घर आते
पशुओं के रंभाने के सुर,
और गले मे बंधी घंटियों की प्यारी मनभावन आवाजें,
कहीं घाटियों पर सीढ़ी से खेत लहलहाते,
हरे बिछौनों से खेतों के नील गगन पर
उड़ते इतराते पंछी.
और उन्ही के पास हाशिये पर खड़िया से पुते घरौंदे
और घरौंदों के समूह से बसे मनोहर गांव !
गांवों से उठ कर नभ पर छा जाती कपिश धूम्र रेखाएं
और सांझ होते ही पसर गए सन्नाटे के बीच-
दूर कहीं से वंशी पर बज उठता धीमा धीमा
भीतर तक छू जाता कोई विरह गीत.
पहाड़-
एक स्मृति चित्र डॉ. दिनेश
चंद्र थपलियाल
सघन हरित वृक्षावलियों से
आच्छादित वे उत्तुंग शिखर
जिन पर आंचल बन कर लिपटे
शुभ्र मेघ
कहीं वनांचल के ढालों पर
विचरण करते वन्य जीव
कहीं प्रफुल्लित तरुओं पर
बैठे गाते वन पाखी
मंद पवन के बहते सुरभित शीतल झोंके
कल कल बहती सरिताओं के तट से
चर कर
धूल भरी पगडंडी से घर आते
रंभाते पशुओं के
गले बंधी घंटियों के मोहक
स्वर
नदियों से मिलने को आतुर
कहीं पर्वतों से छलांगते चंचल
झरने
कहीं ढलानों पर सीढ़ी से
खेत दूर तक
हरी क्यारियों के पानी में
खूब नहाते
शुभ्र धवल पंखों वाले मतवाले
बगुले
कहीं हाशिये पर खड़िया से
पुते घरौंदे
उन्हीं घरौंदों के समूह से
बने गांव
स्वर्णिम अस्ताचल पर चाने लग
जातीं जब
कपिश धूम्र रेखाएं
संध्या की उदास नीरवता में
दूर कहीं वंशी पर बजता विरह गीत
।
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