सिंधु –सरस्वती सभ्यता एकाएक कैसे लुप्त हुई ?
सिंधु
नदी का
उद्गम तिब्बत मे मानसरोवर झील के
समीप की एक जलधारा सिन-का-बाब को माना जाता है. यह ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व की
नदी तिब्बत, जम्मू कश्मीर
से होती हुई पाकिस्तान मे प्रवेश करती है
तथा सिंध प्रांत से होती हुई अरब सागर मे मिल जाती है.
भारत
का एक नाम हिंदुस्तान इसी नदी के कारण है. अफगान लोग “स” का उच्चारण “ह” करते हैं.
वहां सप्ताह को हफ्ता सिंध को हिंद तथा सरस्वती को हरहती कहा जाता है. सिंध के किनारे के भाग को हिंद
कहा जाता था. यहां रहने वालों को हिंदी कहा जाता था जिसे देवनागरी मे सिंधी कहा
जाता है. बाद मे अंग्रेजों द्वारा शासित पूरे इलाके का नाम हिंदुस्तान पड़ गया.
सिंधु
नदी की पांच सहायक नदियां हैं वितस्ता (झेलम), चंद्रभागा
, परुष्णी ( ईरावती, रावी), विपाशा
(व्यास) तथा शतद्रु(सतलज). इन्ही पांच नदियों के कारण इस प्रदेश को
पंच नद या पंजाब कहा गया .
पहले
ऋग्वैदिक काल मे इस प्रदेश को सप्त सिंधु कहते थे. सातवीं नदी थी सरस्वती , जो
द्वापर युग के अंत मे लुप्त हो गई थी.
1856
मे कराची और लाहौर के बीच रेलवे लाइन बिछाने के दौरान इस इलाके मे बहुत बड़ी संख्या
में पकी हुई ईंटें मिलीं . बाद मे मालूम हुआ कि आस पास के लोग इन्ही ईंटों से अपने
घर बनाते हैं. 1921 मे भारतीय सर्वेक्षण विभाग के निर्देशन मे दया राम साहनी
द्वारा यहां उत्खनन आरंभ हुआ. इसी खुदाई मे मोहेंजोदारो (सिंधी भाषा मे मुर्दों का
टीला) नामका विशाल प्राचीन नगर मिला जो किसी भी आधुनिक नगर से कम न था.
मोहेंजोदारो
अवशेषों मे ही एक बौद्ध स्तूप भी था जो संभवत: सम्राट अशोक ने 304-232 ई.पू. के बीच
बनवाया था. इस स्तूप के नीचे भी मोहेंजोदारो नगर के खंडहर मिले हैं. इससे स्पष्ट है
कि सम्राट अशोक के समय (304 -232 ई.पू..) मे यह क्षेत्र पुन: आबाद हो गया था.
बाद
मे हडप्पा , चहुंदारो,
जैसे कई स्थल मिलने लगे
जिनका समय करीब 2700 ईसा पूर्व से 1800 ईसा पूर्व तक था. पहले ये स्थल सिंधु नदी
के किनारे मिले थे इसलिए इस सभ्यता को सिंधु घाटी की सभ्यता कहा गया . बाद मे
लुप्त हो गई सरस्वती नदी की सहायक नदी घग्गर के किनारे भी बड़ी संख्या मे ये पुरातात्विक
स्थल मिलने लगे. तब से एक नया नाम “ सिंधु
सरस्वती सभ्यता” चलन मे आया. अब तो भारत और पाकिस्तान मे इसके सैकड़ों स्थल मिल
चुके हैं जैसे काली बंगां(राजस्थान) ,
राखी गढ़ी(हरियाणा) , रोपड़
(पंजाब), बणावली( हरियाणा) , धौलावीरा(गुजरात)
, लोथल(गुजरात) , सिनौली
(बागपत, उत्तर प्रदेश), हिसार(हरियाणा) आदि सैकड़ों स्थल अब तक मिल चुके हैं और मिलते ही जा रहे
हैं.
महाभारत काल और उत्तर हडप्पा का समय लगभग बराबर आता है
. 1400 ई.पू. से लेकर 1800 ई.पू. के आस पास. महाभारत काल मे
इस इलाके मे सिंधु राज्य था जिसका राजा जयद्रथ था. जयद्रथ का विवाह कौरवों
की एकमात्र बहन त्रिशला से हुआ था. युद्ध मे वह कौरवों की ओर से लड़ा था. पांडवों
के वनवास के दौरान उसने पांडवों का अपमान भी किया था. वन मे उसने पर्ण्कुटी मे
अकेली पाकर द्रौपदी का बलपूर्वक
हरण कर लिया था. रास्ते मे ही पांडवों द्वारा उसे घेर कर पराजित किया गया
और द्रौपदी छुड़ा ली गई. इसी जयद्रथ ने युद्ध मे अभिमन्यु का वध किया था. अगले दिन
प्रतिज्ञानुसार अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया था.
बहुत
संभव है कि मोहेंजोदारो नामका पुरातात्विक स्थल कभी इसी सिंधु राज्य का प्रमुख नगर
रहा हो. सिंधु के पश्चिमी तट पर सिंधु
राज्य था तो पूर्वी तट पर सौवीर नामका
राज्य था. सिंधु –सौवीर नामक युग्म राज्यों का उल्लेख चौथी शताब्दी ई.पू. की
पाणिनी रचित “अष्टाध्यायी” मे भी मिलता है.
अब
विचार करते हैं उन कुछ संभावित कारणों पर जिनके कारण सिंधु सरस्वती सभ्यता नष्ट
हुई .
1.
भौगर्भिक
उथल-पुथल. – भूगर्भ
वैज्ञानिकों के अनुसार कच्छ के रण ( गुजरात के सागर के निकट) से आरम्भ होकर एक फॉल्ट (भ्रंश) राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी
उत्तर प्रदेश , हिमाचल,
उत्तराखंड जम्मू कश्मीर
होता हुआ कजाकिस्तान तक चला गया है. यह फाल्ट सिंधु तथा सरस्वती नदियों व उनकी सहायक नदियों के लगभग समानांतर है.
भौगर्भिक आंकड़े बताते हैं कि यह फाल्ट पिछले
हजारों वर्षों से सक्रिय है तथा लगातार यह प्लेट यूरेशियन प्लेट से टकरा रही है. जब
दबाव बढ़ता है तो प्लेट टूटती है और भूगर्भ मे दबी भीषण ऊर्जा उस क्षेत्र पर भूकंप
के रूप मे विध्वंस मचाती है. कराची का भूकम्प हो या भुज (कच्छ, गुजरात) का, उत्तरकाशी
का भूकंप हो या कांगड़े (हिमाचल) का,
समय समय पर भौगर्भिक
ऊर्जा यहां भूकंप के रूप मे निकलती रही है.
इस क्षेत्र मे अतीत मे आए भूकंपों की सूची
भूगर्भ वैज्ञानिकों ने तैयार की है. जो इंटरनेट पर उपलब्ध है. मालूम होता है कि
लगभग उत्तर हडप्पा काल मे भी यहां जबरदस्त भूकंप आया था जिसने सरस्वती नदी का
प्रवाह ही बदल दिया था. कच्छ के रण से होकर अरब सागर मे जाने का इसका मार्ग ऊंचा
हो गया. दक्षिणाभिमुखी प्रवाह अब पूर्वाभिमुखी हो गया और सरस्वती अब एटा इटावा इलाके के आस पास यमुना मे मिल गई.
फिर कुछ आगे यमुना भी गंगा मे मिल गई. किंतु यहां भी कुछ उथल पुथल हुई और सरस्वती
का प्रवाह मथुरा के आस पास से फिर बदल गया
व एक बार फिर यह रेगिस्तान मे खो गई.
महाभारत मे वर्णन है कि बलराम जी ने मथुरा मे अपने हल की नोक से खींच कर यमुना की दिशा बदल दी थी.
बलराम जी शेष नाग के अवतार माने जाते हैं जिसके फन पर यह पृथ्वी टिकी मानी जाती है
. शेष के अवतार द्वारा यमुना के प्रवाह को बदलने का प्रतीकात्मक अर्थ यह हुआ कि उस समय भूगर्भ मे
कोई बड़ी हलचल यानी भूकंप जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी जिसने यमुना के प्रवाह को मोड़
दिया. यह घटना लगभग 1500 ई.पू. की होनी चाहिए. इस समय भी भूगर्भ वैज्ञानिको के अनुसार
उस क्षेत्र मे भूकंप आया था.
भूगर्भ वैज्ञानिकों ने उस भूकंप की भी
पुष्टि की है जो लगभग 900 ई.पू. मे दिल्ली मेरठ के आस पास के क्षेत्र मे आया था.
उस समय हस्तिनापुर (आधुनिक मेरठ) के सिंहासन पर कुरु वंश सम्राट जन्मेजय का
प्रपौत्र निचम्नु शासन कर रहा था. भूकंप से अपार क्षति हुई. विवश हो कर राजधानी
हस्तिनापुर से हटा कर प्रयाग के पास कौशाम्बी मे ले जाई गई.
इस भूकम्प से गंगा का प्रवाह भी बस्ती की
तरफ मुड़ा होगा जिससे कई आवासीय क्षेत्र जल मग्न हो गए. हस्तिनापुर की खुदाई मे यह
बात प्रमाणित भी हुई है.
सिंधु सरस्वती के निकटवर्ती क्षेत्रों मे आए
भयंकर भूकंप से तटों पर बसे अनेक तत्कालीन नगर नष्ट हो गए होंगे- यह संभावना भी
काफी प्रबल है. तटों पर नगर इसलिए बनाए जाते थे ताकि जल मार्गों
द्वारा तैयार माल को अरब सागर तक पहुंचाया जा सके. वहां से विशाल जल यानों द्वारा
वह माल मध्य एशिया के प्रख्यात नगरों जैसे सुमेरिया,
बेबीलोन रोम ग्रीस आदि
तक पहुंचाया जाता था.
यदि हम तनिक शोध करें तो पाएंगे कि सिंध
तथा सरस्वती नदी के तटवर्ती वे नगर अधिकतर वहीं पर थे जहां सिंधु सरस्वती सभ्यता
के पुरातात्विक स्थल मिले हैं . इन स्थलों के उस समय क्या नाम थे- इस पर जल्दी ही
एक पूरा ब्लॉग लिखा जाएगा.
2.
देवासुर
संग्राम - देवों और
दैत्यों के बीच वर्चस्व को लेकर दस संग्राम हुए थे जिनका उल्लेख ऋग्वेद मे भी आता
है. अंतिम दसवें संग्राम मे देवों की ओर से सूर्यवंशी अयोध्या नरेश दशरथ ने भी भाग
लिया था. उसी युद्ध मे जब दशरथ के रथ के पहिये की कील निकल जाती है तो कैकेयी अपनी
उंगली को कील की जगह फंसा कर पहिये को निकलने से बचा लेती है. इसी उपकार के बदले
दशरथ उसे दो वरदान मांगने को कहते हैं . उन्ही दो वरदानों मे वह राम को चौदह वर्ष
का वनवास तथा भरत के लिए अयोध्या का
सिंहासन मांगती है.
पुराणों से हमे पता चलता है कि देव और दैत्य दिति और
अदिति – दो सगी बहनों के पुत्र थे . दैत्यों को अफ्रीकी महाद्वीप , तथा
मध्य एशिया का पूर्वी हिस्सा तथा पूरब मे सप्त सिंधु तक का इलाका मिला था. देवों
को आर्यावर्त अर्थात आधुनिक उत्तरप्रदेश उत्तराखंड,
हिमाचल जम्मू कश्मीर, पाक
अधिकृत कश्मीर आदि पहाड़ी प्रदेश मिला था.
सप्त सिंधु का प्रदेश चूंकि कृषि और नदी व्यापार के
लिए सर्व श्रेष्ठ था अत: देवों का तर्क था कि उपजाऊ और व्यापार के लिए उचित सप्त
सिंधु का इलाका उन्हे मिलना चाहिए. इसे छीनने के लिए देवों ने कई बार प्रयत्न किये. ये
प्रयत्न ही देवासुर संग्राम कहलाते थे . देवों का राजा इंद्र था तथा अंतिम दैत्य
राजा सुदास था जिसका उल्लेख ऋग्वेद मे कई
जगह हुआ है.
वेदों से विदित होता है कि बल व तकनीक मे दैत्य श्रेष्ठ थे अत: पहले देव
हार जाते थे किंतु बाद मे छल बल से वह दैत्यों को पराजित कर ही देते थे. इंद्र का
एक नाम पुरंदर भी है जिसका अर्थ है पुरों (नगरों) को उजाड़ने वाला. इंद्र के
नेतृत्व मे देवों ने अंतत दैत्यों को हरा
दिया तो उनके नगर जला डाले, इंद्र जल का देवता भी था. अत: दैत्यों
के नगरों को जलाने के बाद पूरे क्षेत्र मे जल प्लावन भी कर दिया ताकि कोई दैत्य बच
न सके. . ये ध्वस्त नगर ही आज खुदाई मे इस क्षेत्र मे मिल रहे हैं. सिंधु सरस्वती
लिपि आज इसलिए नही पढ़ी जा सकी कि दैत्य जो इस लिपि का प्रयोग करते थे या तो जला
दिये गए, युद्ध मे मार डाले गए या फिर जल प्लावन मे डुबो दिये
गए. भाषा लिपि जानने वाला कोई न बचा.
अत: निष्कर्ष यह निकलता है कि सिंधु सरस्वती सभ्यता
नष्ट होने के पीछे प्राकृतिक आपदा तो थी ही साथ ही उस क्षेत्र को हथियाने के लिए दो
विरोधी शक्तियों का सत्ता संघर्ष भी उत्तरदायी था.
(समाप्त )
(ये लेखक के निजी विचार हैं
)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें