गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

गज़ल खिड़कियां खोलो………..

 


 

किसे हिंदू कहें किसको मुसलमां ?

यहां मजहब सियासी हो गया है ॥ 1॥

 

नफासत से जिऊंगा मैं इसे यारो ।

ये मेरी सिर्फ मेरी ज़िंदगी है ॥2॥

 

खिड़कियां खोलो व आने दो हवा ताज़ी ।

यहां हर शख्श का दम घुट रहा है ॥ 3॥

 

गौर से देखो हमारा  रहनुमा 

काठ की बैसाखियों पर चल रहा है ॥ 4॥

 

यही  जो रात का पहला पहर है ।

यही तो दर्द का अंतिम चरण है ॥ 5॥

 

बेगुनाहों को जहालत बख्श कर ।

वह गुनाहों को बढ़ावा दे रहा है ॥6॥

 

उठा होना ज़रूरी है उठाने के लिए ।

जरा देखो वो खुद ही गिर रहा है ॥7॥

 

मौत आते वक्त मे भी  साथ थी 

मौत जाते वक्त मे भी  साथ  है  ॥8॥

 

बुराई  भी सभी उपलब्धियां  बन जाएंगी  

वो मुद्दों  को करीने से उठाता है ॥ 9॥

 

भले ही डुबकियां दे दो उसे तुम दूधिया रंग मे ।  

कव्वा  तब भी हंस नहीं बनता है ॥10॥

 

जिस पर बैठा उसी डाल को काट रहा जो ।

 वह कालिदास अब तक कैसे ज़िंदा है ॥ 11 ॥

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