शनिवार, 25 सितंबर 2021

नक्षत्र तथा राशि आधारित फलादेश भाग-2

 

वैदिक तथा उत्तरवैदिक कालीन नक्षत्र आधारित फलित ज्योतिष के पीछे जो गहराई छिपी थी उसे दुर्भाग्यवश हम समझ नही पाए। हमने ज्योतिष का अर्थ केवल यह निकाला कि राशि चक्र मे स्थित खगोलीय पिंडों के विद्युत चुम्बकीय तथा गुरुत्वीय बल ही मानव चेतना को प्रभावित करते हैं। थोड़ा और आगे जाकर हमने उनकी गतियों को भी फलादेश मे शामिल किया। ग्रहों की उच्च तथा नीच स्थितियों का फलादेश ग्रहों की गतियों के कारण ही था। जब ग्रह सूर्य से अधिकतम दूरी पर होता तो उसकी गति अत्यंत धीमी हो जाती है। ऐसी स्थिति को ग्रह की उच्च अवस्था कहा गया। उच्च इसलिए कि जैसे कैमरे का शटर ज्यादा देर तक खुला रहता है तो फोटो ज्यादा चमकीली आती है। उसी तरह धीरे धीरे चलने की अवस्था मे ग्रह के बलों का प्रभाव भी ज्यादा स्थाई पड़ेगा।

किंतु नक्षत्र ज्योतिष मे हमारे ऋषियों ने केवल भौतिक बलों का ही अध्ययन नहीं किया था। उन्होने तो यह बताने का प्रयास भी किया था कि किस नक्षत्रमंडल ( constellation or group of stars) से शुभ और किससे अशुभ प्रभाव हमारे सौर मंडल तक पहुंचते हैं।

इस तरह ऋषियों ने 27 नक्षत्रों की तीन श्रेणियां बनाईं- पहली शुभ नक्षत्र, दूसरी अशुभ नक्षत्र तथा तीसरी न शुभ न अशुभ अर्थात मध्यम.

शुभ नक्षत्र माने गए – रोहिणी, अश्विनी, मृगशिरा, पुष्य, हस्त, चित्रा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा, उत्तरा फाल्गुनी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वसु, अनुराधा और स्वाति । यह बताया गया कि  इनमें किये गए सभी मांगलिक कार्य सिद्ध होते हैं।

अशुभ नक्षत्र माने गए- भरणी, कृतिका, मघा और आश्लेषा। इन नक्षत्रों मे मांगलिक कार्य आरंभ करने से मना किया गया ।

मध्यम नक्षत्र  माने गए -  पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, विशाखा, ज्येष्ठा, आर्द्रा, मूल और शतभिषा। कहा गया कि यदि कोई मांगलिक कार्य ऐसा है कि जिसे करना जरूरी है तो इन नक्षत्रों मे उसे किया जा सकता है।

अभी तक हमारे आधुनिक खगोल विज्ञान ने नक्षत्रों का इस आधार पर वर्गीकरण नही किया है। हमारे प्राचीन ज्योतिषियों ने किस आधार पर नक्षत्रों के शुभाशुभत्व का वर्गीकरण किया था – यह शोध का विषय है। (क्रमश)

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