बुधवार, 2 सितंबर 2020

व्यंग्य-सिंहवाहिनी तुझे प्रणाम



 न धृतराष्ट्र मरा है, न कौरव राजसभा के चाटुकर मंत्री-कर्ण, द्रोण, भीष्म, दुर्योधन, दुःशासन मरे हैं और न मरे हैं-शकुनि जैसे मामा, जयद्रथ  जैसे दामाद।

     जुए में कपट से पांडव हरा दिये गए । सिंगूर के किसान छले गये। वे कामरेड, जो उन गरीब किसानों के मसीहा बने फिरते थे-आज दुर्योधन की सीट पर बैठ ड्राइव कर रहे हैं ! टाटा की कारों के लिए उन्हे सर्वहारा के खेत ही दिखाई पड़े !

            किसान इस सवाल का जवाब पूछते हैं-सोनिया से, मनमोहन से, बुद्धदेव से, प्रकाश करात से, सीताराम येचुरी से, सोमनाथ चटर्जी से, ज्योति बसु से और इस धरती पर रोज़ छपते लाखों अखबारों से, मीडिया के गुरूओं से, बाजपेई से, आडवाणी से, फरनांडीज से, लालू से, माया से, मुलायम से....
           
     द्रौपदी का  यह विलाप अंधा धृतराष्ट्र नहीं सुन पा रहा है। सारे सभासद मौन। सर झुके हुए हैं। द्रौपदी विवश है। पांडव दास हैं। विरोध का अधिकार खो चुके हैं। बिके हुए लोगों से वैसे भी कोई उम्मीद नहीं होती।

  बड़े-बड़े नामी-गिरामी अर्थशास्त्रियों, मानवतावादियों, समाजसेवकों की जुबानों पर ताले पड़े हैं। उन्हें डर है-धृतराष्ट्र के विरूद्ध बोलने से ग्रांट मिलनी बंद हो जाएगी। छिन जाएंगी जागीरें। सत्ता -सुख से हाथ धोना पडे़गा।

      अपने सुखों की ख़ातिर ख़ामोश हो गया इंटेलेक्चुअल। मूकद्रष्टा बन गया है मीडिया, द्रौपदी को दुर्योधन की भूमिका में फिट करने का दुश्चक्र चलने लगा है। शकुनि, कर्ण, दुर्योधन सक्रिय हो उठे है। प्रेस में स्टेटमेंट है सिर्फ और  सिर्फ धृतराष्ट्र के, बुद्धदेव के, गांधारी के कि चीरहरण ठीक ठाक चल  रहा है।
       विकास...विकास...विकास...एक तेज़ शोर उठ रहा है चारों तरफ से........और कुछ मत देखो। ज़मीनें छीनो, द्रौपदी की इज्जत ही क्या, उसका जि़ंदा रहने का अधिकार भी छीनना पड़े ‘विकास’ के लिए, तो सोचो मत, छीन लो। नहीं छीनोगे तो विकास कैसे होगा। हे दुर्योधन। हे दुःशासन! चीरहरण एक बोल्ड़ प्रोसेस है! इसे करते हुए भावुक मत होना। मत सोचने लग जाना कि कौरव सभा में नंगी कुलवधू कैसी लगेगी ? विकास के रास्ते ऐसी ही इमोशनल चट्टानों को तोड़ कर बनाए जाते हैं। मत सोचना कि खेत बेचकर ये किसान कहां जाएंगे ? क्या करेंगे ? ऐसे सवाल ही तो विकास के रास्ते की सबसे बड़ी रूकावट बनते हैं।

    द्रौपदी अपमान बर्दाश्त नही कर पाएगी और फांसी पर लटक जाएगी, या फिर भाग जाएगी। महानगरों की भीड़ का हिस्सा बन जाएगी। तब शुरू होगा महाभोज ! फिर मनाया जाएगा जश्न ! हस्तिानापुर का राजमहल रोशनियों से जगमगा उठेगा ! सुरा-सुंदरियों का दौर चलेगा। सभी दरबारी मांगेंगे बख्शीश। औकात के हिसाब से, पेट के साइज के हिसाब से, सबको मिलेगी  खुराक। विकास का पहिया घूमने लगेगा...

       फिर, एक दिन धृतराष्ट्र की सभा मे लाएगा शकुनि एक प्रस्ताव। संविधान में संशोधन के लिए....‘महाराज जब भी हम कारपोरेट मित्रों  का विकास करने लगते हैं, तभी द्रौपदी टाइप प्रजा हमारा विरोध करने लगती है। ये बात अलग है कि उस पिद्दी से विरोध का हमारे फौलादी इरादों पर कोई असर नहीं पड़ता। प्रेस  हमारे साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी हो जाती है। छोटे से छोटे अखबार में भी विकास के उन दुश्मनों की रिपोर्ट नहीं छपती। विपक्ष मे बैठे भीतर से हमारे आदमी, पर बाहर से हमारे दुश्मन नंबर एक अपोजीशन वाले  भी उस वक्त गजब की चुप्पी साध लेते हैं । पर महाराज ! उस दौरान हम लोग आम वोटर की नजर में एक्सपोज़ तो हो ही जाते हैं।

     अतः इस संशोधन प्रस्ताव के जरिये मैं महाराज से प्रार्थना करता हूं कि आत्महत्याओं  के लिए हस्तिनापुर की राजगद्दी को ज़िम्मेदार न माना जाय। साथ ही द्रौपदी के पक्ष में अगर कोई भूख हड़ताल करके मर जाता है तो इसे खुद्कुशी का  मामला समझा जाय। यदि आम जनता विद्रोह करे तो विकास का दुश्मन बता कर विद्रोहियों को सेना तथा पुलिस की मदद से कुचल दिया जाय।

     दुर्योधन प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहेगा-‘महाराज मैं शकुनि मामा के प्रस्ताव का सर्मथन करता हूं । संविधान मे प्रत्येक नागरिक को, जीने का जो अधिकार दिया गया है, वह आज की बदली हुई परिस्थितियों में एकदम गलत है। जीने का अधिकार सिर्फ बड़े-बड़े पूंजीपतियों को तथा उनके शुभचिंतक दलों को ही होना चाहिये। अगर कानून कभी गलती से बड़े लोगो को सज़ा सुना दे तो महाराज को पावर होनी चाहिये कि उनकी सजा माफ कर सके। इसी तरह राज्य से ऋण लेकर यदि कोई हमारा शुभचिंतक चुका न पाए तो महाराज को वह ऋण माफ करने का अधिकार होना चाहिए।

      दुर्योधन की बात का विदुर, भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण दुःशासन आदि सभी ने मेजें  थपथपा कर समर्थन करेंगे। मुस्कराता अंधा धृतराष्ट्र फैसला सुनाएगा-

     गांधार के युवराज शकुनि, हस्तिनापुर के युवराज दुर्योधन और आप सभी सभासदों की राय का स्वागत करता हूं। आज से सारी प्रजा के जीने का अधिकार हस्तिनापुर राज्य के पास सुरक्षित रहेगा। राज्य की मरजी के खिलाफ ज़िंदा रहने वालों की अब खै़र नही! जो भी विकास में बाधा बनेगा, उसे पहले तो दरकिनार किया जायेगा। अगर फिर भी बाधा न हटी तो उसके जीने का अधिकार ख़त्म कर दिया जायेगा। इस राजाज्ञा के खिलाफ किसी भी अदालत में कोई भी याचिका पुनर्विचार के लिए स्वीकार नहीं की जाएगी।’

            अंधा राजा फैसला सुना देता है। उसके पास पावर है। चाटुकार, सुविधाभोगी  बुद्धिजीवियों का समर्थन है, बिके हुए सर्वहारा के दोस्तों का गुप्त सपोर्ट है। अंधा राजा सर्वशक्तिमान हो गया है। द्रौपदी  असहाय है। लाचार है। भीष्म की ओर देखकर कहती है-पितामह! ये उपभोक्तावाद आज आपकी पौत्रवधू  को नग्न करने पर तुला है। आप कुछ करते क्यों नहीं? क्या आप मुझे इस हाल मे देख सकेंगे?’
            कोई उत्तर नहीं। झुक गई  है गरदन पितामह की। राजसी सुख वैभव आड़े आ गए  हैं।

    पितामह को सर झुकाए  और खामोश देख द्रौपदी देखती है विदुर की ओर-हे धर्मवत्सल पितामह के बाद इस सभा में आप ही निष्पक्ष हैं, निडर हैं, न्यायकारी हैं। आपकी पुत्रवधू  के वस्त्र तक छीने जा रहे हैं। बड़े-से बड़े क्रूर राजा इस भरत भूमि में पैदा हुए, वेन, रावण जैसे, पर इतना बड़ा मजाक प्रजा के साथ कभी न हुआ। लज्जा  ढकने का अधिकार कभी नहीं छिना। आज इज्जत और जिंदगी बचाने का आखिरी सहारा, ये टुकड़ा भी मुझसे छीना जा रहा है-विकास के, न्याय के नाम पर ! और आप चुप हैं !’

       विदुर सर झुका लेते हैं। सत्ता सुख छिन जाएगा अगर मूंह खोला तो। दुर्योधन, दुशासन, कर्ण अट्टाहस करते हैं। शकुनि, जयद्रथ कहते हैं-दुःशासन, तुम्हारे हाथ रूक क्यों गए । जल्दी खींचो साड़ी। कर दो निर्वस्त्र दासी पांचाली को।

        द्रौपदी हाथ जोड़े बारी-बारी सभी से गुहार करती है। लेकिन कोई फायदा नहीं। सब पत्थर के बुत बने हैं। सब राजधर्म (या राजसुख) से बंधे हैं।

     विवश द्रौपदी! असहाय द्रौपदी! निरूपाय द्रौपदी! विकास की विकराल दाढ़ों मे फंसे बेचारे किसान!

      शरीर की लज्जा, पेट की आग, सुख का आखिरी आधार-ज़मीन का वह टुकड़ा, जो वहशी, दरिंदों, जमीन के भूखे भेड़ियों की आंखों में खटक रहा है-अब छिनने ही वाला है। नही! ये कृष्णावतार की कहानी, ये गीता में कृष्ण का आश्वासन-ये सब झूठ है। इसी अंधे राजा, इन्ही सुविधभोगी बुद्धिजीवियों के दिमाग से उपजी कुटिल चाल है। सेफ्टीवाल्व है-विद्रोह को दबाने का, ऐश करते जाने का।

   लेकिन एक आदि शक्ति अब भी बाकी है। आशा की आखिरी किरण। दुर्गा ! सिंह वाहिनी! द्रौपदी,  अभी हताश मत हो ! इस सृष्टि का संचालन अंधों, बहरों, गूंगों और नपुंसकों के हाथ में नहीं है। ज़मीनों के भूखे ये भेड़िये भी हमेशा नहीं रहेंगे।

   इंसानियत, मानवता, इंसाफ की एक चिंगारी अभी बाकी है।

      मगर उसे तुम्हारा साथ चाहिए । उठो। आज ही, अभी। साथ खड़े  हो जाओ लाखों हाथ बनकर ममता के साथ और फिर देखो-  त्याग और मानवता, प्रेम और करूणा की वह जीवंत प्रतिमा ममता इस अंधी स्वार्थ लोलुप व्यवस्था को बदल कर रख देगी। सिंहवाहिनी तुझे  प्रणाम।

(समाप्त)

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