शनिवार, 8 अगस्त 2020

व्यंग्य- हमारी सड़कें महान


     कभी मेरा भारत भी महान रहा होगा । मगर आज की तारीख का सच तो हमारी महान सड़कें ही हैं।

         उस महान भारत की यादें भी अभी लोग भूले नहीं हैं ।  उस युग में बताते हैं भारत गांवों में बसता था। गांव तो फिर गांव ही ठहरा ! सोने और पीतल में फर्क क्या जाने ? अमीर-गरीब पंडित-अनपढ़, छोटे-बड़े सभी को एक बराबर समझता था। गांव के चरित्र मे ये वाकई बड़ी-भारी कमी थी। सब धान बाईस पसेरी तोलना तो सरासर गलत था।

            मगर आज हालात बदल गए हैं।   आज मेरा भारत गांवों मे नहीं बल्कि सड़कों पर बसता है। सड़कों पर इसलिए बसता है कि गांव उजड़ रहे हैं। उन्हें उजड़ना भी चाहिए। गांव नहीं उजड़े तो स्पेशल इकोनामिक जोन व स्पेशल डेवलपमेंट जोन कहां बनेंगे ? माना कि शहरों और  गांवों के अलावा भी लाखों हैक्टर सरकारी जमीन खाली पड़ी है। पर उस जमीन में एसईजेड बनाना कितनी बड़ी बेवकूफी होगी ? सड़कें पहुंचाओ, बिजली पानी पहुंचाओ, ट्रेन, हवाई जहाज, बस, मेट्रो पहुंचाओ, सारे सरकारी दफ्तर, होटल, रेसर्कोस पहुंचाओ। छोटा सा जीवन है। हमारे विशेष, सम्मानित पूंजीपति इतना इंतजार कैसे करेंगे ?  उनका  तो एक एक मिनट कीमती है ।

            इसीलिए शहरों से सटे गांव उजाड़ने पड़ते हैं। गंवारों का क्या है ? वे तो कहीं भी रह लेते हैं। कुछ भी खा लेते हैं। उनके बच्चे पढ़ें तो ठीक वरना अनपढ़ भी रह लेते हैं। ऐसे मामूली कीड़े-मकौड़ों के साथ अपने स्पेशल नागरिकों की बराबरी कैसे की जा सकती है भला ? तो ऐसी  मौके की जमीन हथियाने के लिए मुद्दतों से बसे गांव उजाड़ने भी पड़ जाएं तो बुराई क्या है ? शरीर बचाने के लिए  कोई अंग काट कर फेंकना भी पड़े तो झिझकना नहीं चाहिए।


       मगर कई नादान ऐसे भी हैं जिन्हे गांवों का जबरदस्ती उजाड़ा जाना नागवार गुजरता है ।

            उन नादानों की अधूरी जानकारी पर तरस आता है। उन्हें मालूम होना चाहिए  कि जिस रफ्तार से गांव जबरन उजाड़े गए,  तकरीबन उसी रफ्तार से देश में सड़कें भी बनीं। अब भी बन रही हैं। सरकार देर मे जागी पर दुरस्त जागी। सोचिए अगर सड़कें न बनतीं तो उजड़े गांवों से शहर आने वाले लोग कहां बसते ? हाइवे के दोनों तरफ झोपड़ों की जो लंबी कतारें उग आई हैं वे कहां फलती- फूलतीं ? उन झोंपड़ो में रहने वाले बच्चे स्कूलों की कैद से कैसे छूट पाते ? नंगी, झुलसी पीठों पर दुधमुहे भाई-बहनों को लादे देश के वे भावी कर्णधार भीख कैसे मांग पाते ? और गाड़ियों के भीतर बैठे बाबूजी या मेम साब उन्हें मां बहन की गालियां कैसे दे पाते ? या फिर पचास पैसे का सिक्का उनकी तरफ उछाल कर दानवीर कर्ण की उपाधि कैसे पाते ?


            हमें इन काली, चिकनी चौड़ी सड़कों का अहसान मानना ही चाहिए। इन सड़कों के फुटपाथों पर उग आए  रूरल इंडिया की तस्वीर वरना कहां देखने को मिलती ? बगैर नहाए, बगैर खाए,   कड़ाके की गरमी सरदी व मूसलाधार बारिश में भी हमारा हिन्दुस्तानी आदमी किस धीरज, किस संतोष के साथ रह सकता है- यह हमें सड़कों ने ही दिखाया । उस पर पुलिस का कहर अलग। जाने कब आधी रात में या भोर मुंह अंधेरे आकर बूटों की ठोकरों से लतियाते हुए भर लें पुलिस वैन में और पहुंचा दें हवालात मे ?



            ऐसे खतरनाक माहौल मे भी जिन्हें गहरी नींद आती है,  वे आत्मसंतोषी भोले भाले हिन्दुस्तानी हमें इन सड़कों की मेहरबानी से ही देखने को मिल सके। वरना हमने तो आज तक सिर्फ ऐसे इंडियन रईसों के किस्से सुने थे जो मखमल व रेशम के मुलायम गद्दों पर रातभर करवटें बदलते रह जाते हैं, या फिर रोज नींद के इंजेक्शन लगवाते हैं।
            घर’ का मतलब क्या होता है- हमें इन्हीं सड़कों ने सिखाया। वरना हम तो यही समझे बैठे थे कि घर-एक आलीशान बंगले को कहते हैं। एक खूबसूरत लॉन को, एक महंगी गाड़ी को, टीवी, फ्रिज, माइक्रोवेव को घर कहते हैं। वह बंगला, जिसके भीतर हर सदस्य अकेला है। बिल्कुल अकेला। वाइफ की अपनी दुनिया है, बच्चों की अपनी-अपनी लाइफ है जिसमें कोई इंटरफेयर नहीं कर सकता। संपर्क का एक मात्र जरिया जहां ‘बाई’ है या गेट पर तैनात दरबान, जहां हर सदस्य अपने आप तक सीमित है- हमने तो अब तक ऐसे ही ‘घर’ देखे थे।

            ये सड़कें ही हैं जिन्होने ‘घर’ के बारे मे हमारे विचारों को बदल कर रख दिया। ऐसे घर,  जिनमे  दीवारें नहीं हैं, जहां दो पत्थर खड़े करके औरत चूल्हा बनाती है। रोटी सेक कर खुद गरम-साग के साथ अपने मरद को परोसती है। बेइंतिहा भीड़-भाड़, धूल-गर्द, शोर-शराबे के बीच भी जहां औरत मर्द व अधनंगे बच्चे सुकून के साथ रोटी खाते हैं -हमने पहली बार ऐसा घर भी देखा। सबके खाने के बाद जहां मुंह जमीन पर टिकाए कुत्ता भी रोटी के टुकड़े पाता है, न मिलने पर भी धीरज के साथ वहीं पड़ा रहता है, ऐसा घर हमे सड़कों ने ही दिखाया।


            वाह! क्या घर है ? न कमरे, न दीवारें, न सामान, न कल तक टिके रहने की उम्मीद। मगर सब कस कर बंधे हुए हैं एक बंधन से ! इन्सान ही नहीं, कुत्ते, बिल्ली, मुर्गी वगैरह भी !

            मुंह अंधेरे ही फुटपाथों पर बसा मेरा यह हिन्दुस्तान जाग जाता है। औरतें मर्द नींबू व हरी मिर्चे सुई में पिरो कर नज़र से बचाने का टोटका बनाने लगते हैं, जिन्हे सुबह-सवेरे वे उनींदे, अधनंगे बच्चे ऑटो, कार, गाड़ी वालों को बेचेंगे। लड़कियां फूलों, कलियों, पत्तियों को छांटेंगी, जिनसे उनके पिता, भाई या आदमी बुके बनाएंगे व सिग्नलों पर घूम घूम कर बेचेंगे। या फिर हारसिंगार, जूही व चमेली के फूलों से गजरे बनाती औरतें, जिन्हें वे दफ्तरों, मन्दिरों,  रेलवे के प्लेटफार्मो के बाहर खुद बेचेंगी। चाय का घूंट पी कर,  रोटी-सब्जी बांध कर आदमी निकल जाते हैं काम पर ! बच्चे बासी रोटी चाय खा कर निकल जाते हैं टोटके बेचने या भीख मांगने। औरतें दिन मे या तो कपड़े धोती हैं, सास को नहलाती हैं, टोकरी या रस्सी बुनती हैं या फिर  नजदीकी कालोनी मे झाड़ू-पोचे का काम पकड़ लेती हैं । नहीं तो बगल के झोंपडे मे रहने वाली बुढ़िया की कंघी-चुटिया करने लगती हैं। साथ ही साथ हंसी मजाक भी चलता रहता है।


            सड़कों के हम शुक्रगुजार इसलिए भी हैं कि उन्होनें उजड़े हुऐ गांवों की मजबूत विरासत को शहर के फुटपाथों पर नुमाइश की तरह सजा दिया। सड़क के एक तरफ आपका न्यू इंडिया होता है तो दूसरी तरफ गांवों से उजड़ कर बना भारत । दोनों के फर्क आप एकसाथ बड़ी बारीकी के साथ अपनी आंखों से देख पाते हैं।

            ये सड़कें न होतीं तो बीएमडब्लू पर सवार, नशे में चूर हमारे रर्हसजादे किन्हें कुचलते ? कुत्ते-बिल्लियों को कुचल कर थ्रिलिंग नहीं होती थी। दबी-दबी सी तमन्ना थी कि काश! कुचलने के लिये इन्सान मिल जाते ! कितना मजा आता !

 रईसजादों की वह तमन्ना भी इन चौड़ी सड़कों के टाइल जड़े फुटपाथ ही पूरी करते हैं । आधी रात गए फुटपाथों पर पड़े दो टांगों वाले ये कीडे़ मकौड़े जब गहरी नींद मे होते हैं, ठीक उसी वक्त पब्स या नाइट-क्लबों से निकले, नशे मे धुत्त हमारे ये युवा धनकुबेर पहुंच जाते हैं सड़कों पर। कुचल डालते हैं कई कीड़ों को। और खिसक जाते हैं चुपचाप। उस मौके पर गलती से कोई मामा(हवलदार) मौजूद हुआ तो उसकी भी दीवाली मन जाती है ।   

            इतनी सारी खूबियों के होते हुए हमें कहना ही पड़ा- हमारा भारत गांवों में नहीं, सड़कों पर बसता है। हमारी सड़कें सचमुच महान हैं।

(समाप्त)

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