“भिक्षाम
देहि” !
भिक्षुक
का कातर स्वर सुन, बाहर आई माता
लक्ष्मण
रेखा से बाहर था खड़ा तपस्वी ।
उत्तरीय गेरू के रंग मे रंगा हुआ
सिर
पर बंधी जटाएं
कर
मे भिक्षापात्र लिये !
मुखमंडल
गंभीर और तेजस्वी !
“कई
दिनों से भूखा हूं मां भिक्षा दे दो”
एक
बार फिर बोला कातर भिक्षुक ।
व्यथित
हुआ मन याचक की वह दशा देख
कंद
मूल फल लेकर आई माता ।
किंतु
तपस्वी जिद करता था माते बाहर आओ ।
भिक्षु
तभी स्वीकार करेगा भिक्षा ।
विकट
धर्म संकट था !
एक
ओर देवर लक्ष्मण की रेखा
–
जिसे लांघ कर बाहर आना सख्त मना था ।
और
दूसरी ओर तपस्वी का हठ !
रुष्ट
तपस्वी शाप दे गया तो क्या होगा ?
कहीं
राम लक्ष्मण को कोई कष्ट हुआ तो ?
“नहीं
! नहीं !
मुझे
तोड़नी होगी लक्ष्मण रेखा
भिक्षा
लिये बिना तपस्वी कैसे जा सकता है” ?
ज्यों
ही पांव निकाला बाहर सीता जी ने
खींच
लिया मायावी ने उस पतिव्रता को
अट्टहास
से कांप उठे वन प्रांतर |
सभी
वन्य पशु भागे भय से इधर उधर ।
राक्षस
वेश बदल कर आया पर्णकुटी मे
धोखा देकर उठा ले गया सीता जी को ।
युगों
युगों से वेश बदल, हो रहे अपहरण ।
आओ
एक नई रामायण लिखी जाए ।
रावण
की चालों को पहले समझा जाए ।
लक्ष्मण
रेखा के उल्लंघन से पहले ही
जनक
नंदिनी सोच समझ कर कदम उठाए ।
(समाप्त)
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