मुक्त कविता : जनक नंदिनी सोच समझ कर कदम उठाए




“भिक्षाम देहि” !
भिक्षुक का कातर स्वर सुन,  बाहर आई माता
लक्ष्मण रेखा से बाहर था खड़ा  तपस्वी ।
 उत्तरीय गेरू के रंग मे रंगा हुआ
सिर पर बंधी  जटाएं  
कर मे भिक्षापात्र लिये !
मुखमंडल गंभीर और तेजस्वी !
“कई दिनों से भूखा हूं मां भिक्षा दे दो”
एक बार फिर बोला कातर  भिक्षुक ।  
व्यथित हुआ मन याचक की वह दशा देख
कंद मूल फल लेकर आई माता ।
किंतु तपस्वी जिद करता था माते बाहर आओ ।
भिक्षु तभी स्वीकार करेगा भिक्षा ।  
विकट धर्म संकट था !
एक ओर देवर लक्ष्मण की रेखा
– जिसे लांघ कर बाहर आना सख्त मना था ।
और दूसरी ओर तपस्वी का हठ !
रुष्ट तपस्वी शाप दे गया तो क्या होगा ?
कहीं राम लक्ष्मण को कोई कष्ट हुआ तो ?
“नहीं ! नहीं !
मुझे तोड़नी होगी लक्ष्मण रेखा
भिक्षा लिये बिना तपस्वी कैसे जा सकता है”  ?  
ज्यों ही पांव निकाला बाहर सीता जी ने
खींच लिया मायावी ने उस पतिव्रता को
अट्टहास से  कांप उठे वन प्रांतर |
सभी वन्य पशु भागे भय से  इधर उधर ।
राक्षस वेश बदल कर  आया पर्णकुटी मे
 धोखा देकर उठा ले गया सीता जी को ।
युगों युगों से वेश बदल, हो रहे अपहरण ।
आओ एक नई रामायण लिखी जाए ।
रावण की चालों को पहले समझा जाए ।
लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन से पहले ही
जनक नंदिनी सोच समझ कर कदम उठाए ।   
(समाप्त)  

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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