शाम के करीब
साढ़े पाँच का वक्त है. विदाई समारोह चल रहा है. पुष्प- गुच्छों से मेरा स्वागत हो चुका है.
तारीफों के पुल मेरे सम्मान में बाँधे जा
चुके हैं. मुझे बड़ा मेहनती, ईमानदार, काम
में एक्सपर्ट, साथियों का मददगार, और भी जाने क्या क्या...साबित किया जा चुका है.
कहा जा रहा है कि कल से मैं सभी साथियों को बहुत याद आऊंगा ...
इधर मोबाइल
पर कॉल आ रही है- दोस्त, फ्री हुए कि
नहीं. सख्त जरूरत है तुम्हारी. बताओ, कब तक पहुंचोगे.
समझ में नहीं आता कि क्या कहूं. साठ साल का होते
ही जब मुझे रिटायर किये जाने की रस्म चल रही है, इस शख्स को मेरी जरूरत क्योंं है ?
ये पहली बार
नहीं है. डॉ. ठाकुर ने इससे पहले भी मुझे कई बार सोचने पर मजबूर किया है. तब भी,
जब हमारे बैच के प्रोमोशन ऑर्डर आए थे. सिर्फ वही
ड्रॉप हुआ था. दूसरी बार तब, जब फॉरेन ट्रेनिंग से उसका नाम काट कर जूनियर
कनिष्ठा को भेजा गया. और उस रोज़ भी, जब
उसने एक मुश्किल फैसला बड़ी आसानी से कर लिया था.
हर बार उसके चेहरे पर न दुःख था और
न चिंता. और जब अमेरिका के विश्व प्रसिद्ध प्रसिद्ध जर्नल में उसका शोध पत्र छपा
था, तब भी उसके चेहरे पर न खुशी थी, और न सफलता का अभिमान.
हो सकता है यही वजह हो कि ठाकुर से मिलने पर
मुझे हमेशा सुकून मिलता रहा है. करीब बीस बरस
पहले हम दोनों इस कंपनी में आए थे.
हॉस्टल में हमारे कमरे आस-पास थे. मिलना होता
रहता था. ठाकुर के चेहरे पर
हमेशा शालीन, मुस्कराहट छाई रहती. जब भी
हम मिलते, पहले वही हाथ बढ़ाता. बैच में सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा वही था. डॉक्टरेट की डिग्री के लिए उसने प्रकाश
के अपवर्तन पर जो शोध किया, उसके कारण एक प्रौद्योगिकी संस्थान में उसे प्रवक्ता
के पद पर चुना गया था.
ट्रेनिंग के
दौरान एक बार हम लोग कंप्यूटर सॉफ्टवेयर में उलझे हुए थे. मेनफ्रेम कंप्यूटर के
सॉफ्टवेयर को दूसरे कंप्यूटर में ट्रांसपोर्ट करने के लिए विदेश से इंजीनियर
बुलाना पड़ता था. हमें प्रोजेक्ट दिया गया कि बगैर इंजीनियर बुलाए यह काम होना
चाहिए, ताकि कंपनी के खर्चों में कमी की जा सके. हममें से कोई भी यह काम नहीं कर
पा रहा था. डॉ. ठाकुर ने पॉजीटिव हैकिंग
द्वारा उस सॉफ्टवेयर प्रोग्राम का प्रिंट ले लिया व जरूरी परिवर्तन भी कर दिए.
इससे वह सॉफ्टवेयर दूसरे मेनफ्रेम पर भी चल गया और बाहर से इंजीनियर नहीं बुलाना
पड़ा.
यों तो मैं
पहले ही उसकी प्रतिभा का कायल था, मगर उस घटना के बाद ठाकुर के लिए मेरे मन में
आदर बढ़ गया. उसी रोज शाम को उसके कमरे में पहुंचा. वह कोई किताब पढ़ रहा था. मुझे देख किताब बंद
करके वह खड़ा हुआ और हंसते हुए बोला – बैठो यार.
मैने पूछा, '
एक बात बताओ, तुम तो अच्छे स्कॉलर हो. इंडस्ट्री में क्यों आए.
सुन कर वह
गंभीर हो गया, व बोला- मेरी जानकारी अगर इंडस्ट्री के काम आ जाए तो समझूंगा कि
मेरा पढ़ना –लिखना सफल हुआ. अपने लिये पढ़े तो क्या पढ़े.
ट्रेनिंग के
बाद हमारी पोस्टिंग भी एक ही जगह हुई.
जान-पहचान दोस्ती में बदल गई.

अतीत से वर्तमान मे लौट आता
हूं. भाषणबाजी के बाद चाय नाश्ते का दौर शुरू हो चुका है. तेजी से चाय पीते हुए हर
किसी की नजर दीवार घड़ी पर टिकी है. छह बजने को हैं. विदाई समारोह ज़्यादा लंबा
खिंचा तो बस छूट जाएगी. और इस महानगर में बस के छूटने का मतलब है एक साथ कई
मुश्किलों में फंस जाना. कॉलोनी इतनी दूर है कि ऑटो से जाने की हिम्मत नहीं पड़ती.
बसें इतनी भर कर आती हैं कि उन पर चढ़ने की इच्छा नहीं होती. और लोकल ट्रेन ! उफ्फ
! उसमें तो चढ़ना ही नामुमकिन है
.... .इधर मोबाइल पर फिर कॉल है- यार, तूने बताया नहीं.
तय नहीं कर पाया हूं कि क्या बताऊं. उस रोज भी
तो उसने दोबारा फोन किया था. बुलाने पर भी मैं नहीं गया. मुझे डर था कि उसके करीब जाने पर मैं बॉस की गुड बुक से हट जाऊंगा.
वही खुद मेरे पास चला आया था. फिर हमेशा
की तरह हम दोनो कैंटीन गए.
चाय पीते हुए
ठाकुर नें ही खामोशी तोड़ी. बोला –
मैने डिसाइड कर लिया है.
-क्या डिसाइड
किया है तूने.
मैंने चौंक कर
उसे देखने का अभिनय किया. वह सिर झुकाए चाय पी
रहा था. फिर धीरे से बोला-
ह्यूमिलिएशन की भी हद होती है. आप ऐसी गलती के लिए सज़ा कैसे पा सकते हैं
जो आपसे हुई ही नहीं. मुझे रिज़ाइन करना ही होगा.
-रिज़ाइन करना
हंसी खेल है क्या. बच्चे पढ़ने वाले, पत्नी, बूढ़े मां-बाप, भाई-बहन, और भी कई जिम्मेदारियां ! सेलरी बंद हो गई तो
कैसे काम चलेगा.
- यूएस में जॉब
का ऑफर है, मगर जाऊंगा नहीं.
-मेरे ख्याल से
तो जाना चाहिये. तू ही तो कहता है - चेंज
इज़ आलवेज़ बेटर.
-क्या फायदा.
वहां भी यही होगा. वह व्यंग्य से
मुस्कराया.
-नहीं यार, वो
यूएस है, वहां तू कंफरटेबल रहेगा.
-पर दोस्त मुझे
जो करना है, यहीं रह कर करना है.
-अच्छा बता,
क्या करेगा तू ?
-मैं स्कूल
खोलना चाहता हूं.
-स्कूल ! दिमाग
सही है तेरा ! प्रोमोशन रुकने से, फॉरेन ट्रेनिंग कटने से या फिर आज की मामूली
घटना से जो रिज़ाइन कर सकता है, वह क्या स्कूल चलाएगा !
-किसी निर्दोष
को सज़ा देना मामूली घटना है ? अच्छा छोड़,
ये बता कि स्कूल में क्या खराबी है ?
-खराबी एक तो
यही है कि स्कूल का बिजनेस जमने में बहुत टाइम लेता है. दूसरे इसमें कंपीटीशन भी
कितना है ! गली गली में परचून की दुकान की तरह स्कूल खुले हुए हैं. नमक-तेल का
खरचा भी उठ जाय तो गनीमत है.

- स्कूल कॉलेज भी तो कमाई के अड्डे हैं. वे कौन
से शिक्षा के केन्द्र रह गए हैं ?
- वही तो मैं
भी कहता हूं.
वह सपाट आवाज़ में बोला, पैसे की भूख ने शिक्षा को भी व्यापार बना दिया है. न कहीं मॉरल का अता-पता है, न एथिक्स, न ट्रेडीशंस का. थर्ड डिवीज़न भी हो तो डोंट माइंड. मैनेजमेंट कोटा ज़िंदाबाद. आठ दस लाख भरो और मनचाहा एडमिशन ले लो. पास नहीं हुए . कोई बात नहीं. फिर पैसा लगाओ और मनचाहे नंबर पा लो. कंपीटीशन में निकलना है. जुगाड़ खोजो, पैसा लगाओ और कर लो क्लीयर ! जिसे देखो- भाग रहा है पैसे के पीछे. इस पैसे के लिए बेटा बाप को, भाई भाई को मार देता है. सात जन्मों की साथी पहले ही जन्म में छोड़ जाती है. बाप पेट काट कर बच्चे को पढ़ाने भेजता है. बच्चा बाप की कमाई बेरहमी से उड़ाता है. उसे लगता ही नहीं कि ये पैसा, खून पसीने का है.
वह सपाट आवाज़ में बोला, पैसे की भूख ने शिक्षा को भी व्यापार बना दिया है. न कहीं मॉरल का अता-पता है, न एथिक्स, न ट्रेडीशंस का. थर्ड डिवीज़न भी हो तो डोंट माइंड. मैनेजमेंट कोटा ज़िंदाबाद. आठ दस लाख भरो और मनचाहा एडमिशन ले लो. पास नहीं हुए . कोई बात नहीं. फिर पैसा लगाओ और मनचाहे नंबर पा लो. कंपीटीशन में निकलना है. जुगाड़ खोजो, पैसा लगाओ और कर लो क्लीयर ! जिसे देखो- भाग रहा है पैसे के पीछे. इस पैसे के लिए बेटा बाप को, भाई भाई को मार देता है. सात जन्मों की साथी पहले ही जन्म में छोड़ जाती है. बाप पेट काट कर बच्चे को पढ़ाने भेजता है. बच्चा बाप की कमाई बेरहमी से उड़ाता है. उसे लगता ही नहीं कि ये पैसा, खून पसीने का है.
चाय का अखिरी
घूँट पीकर वह फिर बोला- दोस्त क्या स्कूल कॉलेजों का काम पैसे के बदले सर्टिफिकेट
नामके कागज़ बांटना है ? क्या फायदा ऐसी डिग्री का जो बच्चे को संस्कार तक न दे सके
!
मुझे कोई जवाब न सूझा. चुप रह जाना पड़ा. ठाकुर की बात काफी हद तक ठीक थी. मेरी आंखों के आगे श्रवण कुमार का चेहरा घूम गया. उसने भी एक मैनेजमेंट कॉलेज की डिग्री ली थी. शराब और जुए की आदत के चलते वह घर का सामान बेचने लगा. एक दिन जब श्रवण कुमार मां के जेवर बेचने लगा तो पिता ने रोकना चाहा. गुस्से में आकर उसने बूढ़े पिता को कुल्हाड़ी से काट डाला था.
मुझे वह किस्सा
भी याद आया कि जब ज़मीन ज़ायदाद के झगड़े में पड़ोसी गांव के लछमन ने बड़े भाई राम सिंह
का भरा-पूरा परिवार खत्म कर दिया था.
भोला बाबू की पत्नी का किस्सा भी तो
कुछ ऐसा ही था. सावित्री भोला बाबू के यहां झाड़ू -पोचे का काम करती थी. मासूम सूरत
पर रीझ कर भोला बाबू ने उसे काम वाली से घरवाली बना दिया. साल भर किसी तरह
खिंचा, पर बाद में सावित्री बात बात पर झगड़ने लगी. महीने के शुरू में ही पगार छीन
लेती. कपड़े लत्तों व क्रीम पाउडर में खुल कर पैसा उड़ाती. महीना चलाना मुश्किल हो जाता. दो साल
में ही तलाक की नौबत आ गई. उसी बीच सावित्री का प्रेम-प्रसंग एक ठेकेदार से भी चलने
लगा, जो रंगीन तबीयत का आदमी था. भोला
बाबू सब कुछ देख कर भी अनजान बने रहे कि कभी तो सावित्री को अक्ल आएगी. मगर वह दिन
कभी नहीं आया. उलटे एक दिन सावित्री नें दहेज के मुकदमे में भोला बाबू को अन्दर पहुंचा दिया और खुद
ठेकेदार के घर जा बैठी.

वे सारे किस्से
जब जेहन में आए तो लगा कि स्कूल खोलने का डॉ. ठाकुर का आइडिया गलत नहीं था. फिर भी
अपनी बात रखने के लिए मैने कहा
- तो तू स्कूल
में मॉरल सिखाएगा. उलटी गंगा मत बहा ठाकुर. ज़माने के साथ चल. आज की तारीख में
पेरेंट्स भी नहीं चाहते मॉरल वारल जैसी आउटडेटेड चीज़ें. उनका भी यही मानना है कि
बच्चे को चलता पुरजा होना चाहिये. तभी वह सरवाइव कर सकता है. वरना कोई भी उसे
बेवकूफ बना देगा.
मुझे लगा कि मैं बेकार ही बकवास करता जा रहा
हूं. मेरी बात में दम नहीं है. मेरी तरफ सहानुभूति से देख कर बोला था ठाकुर-
- ये मामूली लड़ाई नहीं है दोस्त. ये इंसानियत का
संकट है. कल तक बाज़ार में चीज़ें बिकती थीं,
आज जीता जागता इंसान बिक रहा है.
कुछ रुक कर फिर कहने लगा ठाकुर. 'मेरी
नाराजी उसी इकोनॉमिक सिस्टम पर है, जिसने
वैल्यूज़ को खत्म करके सोसायटी में पैसे को स्टेब्लिश कर दिया है. आज जिसके पास
पैसा है, वही महान है, वही इज़्ज़तदार है. वही भगवान है. और जो सीधा सच्चा है, जिसके
कुछ एथिक्स हैं, जिसका कुछ मॉरल है, वह बेवकूफ समझा जाता है. चाहे वह कितना भी
ज़्यादा पढ़ा-लिखा क्यों न हो. ये सेक्स,
क्राइम, पैसे की हवस, झूठ- फरेब, डिस्पैरिटी, आतंकवाद, –ये सब इसी पैसे की हवस के नतीजे हैं. समाज में फैल
चुके इस कैंसर का पूरा इलाज चाहे मैं न कर
पाऊं, पर कोशिश तो ज़रूर करूंगा दोस्त.
चाय पीकर हम
वापस आए तो बॉस ने डॉ. ठाकुर को केबिन में बुलाया. गोपनीय दस्तावेज़ बेचने के जो
गंभीर, लेकिन झूठे आरोप उस पर गढ़े गए थे- उनका चश्मदीद गवाह मुझे बनाया गया था.
बॉस की गुड बुक में रहने व प्रमोशन के लालच में मैं दोस्त की पीठ पर छुरा भोंकने
को तैयार हो गया. इसी झूठे केस के आधार पर आज उसे सस्पेंड किया जाना था.
उस रोज़ पहली
बार मैनें डॉ. ठाकुर के चेहरे पर पीड़ा देखी थी. बहुत बेचैन था वह. मुझसे अपनी
तकलीफ बांट कर वह हल्का होना चाहता था. सस्पेंशन लेटर लेने की जगह उसने इस्तीफा
देना ज़्यादा ठीक समझा.
जाने से
पहले ठाकुर मेरे पास आया. मेरे कंधे पर
हाथ रख कर बोला- बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं दोस्त. आज यह भविष्य दांव
पर लग चुका है. मटीरियलिस्टिक सोच हमारी
पीढ़ी को घुन की तरह खाने लगी है. हमें जरूरत है ऐसी शिक्षा की, जो बच्चे को अपनी परंपराओं, महान
संस्कृति और अनूठी विरासत से भी जोड़े. मुझे इस मिशन में तुम जैसे सच्चे दोस्त की
जरूरत भी पड़ेगी. आओगे न !
मैं कुछ न कह
सका. झुकी पलकों से खारे पानी की बूंदें टपकती रहीं. पीठ थपथपाता डॉ. ठाकुर कहता
रहा, डोंट वरी यार, हम जल्दी ही मिलेंगे.
और एक पल में
ही जीवन का इतना बड़ा फैसला करके ठाकुर बाहर निकल गया.
----उस बात को
करीब दस बरस बीत चुके हैं. आज, विदाई समारोह के बाद फूलों के बुके व गिफ्ट के
पैकेटों के बोझ तले दबा मैं, जब सर उठा कर
चारों तरफ देखता हूं तो भीड़ भरी सड़क भी
वही है, अनगिनत वाहन भी हमेशा की तरह आज भी दौड़ रहे हैं, बेतहाशा शोर भी है. लेकिन इन सबके बीच मैं हूं
एक दम अकेला, असहाय, हताश व थका हारा. समझ नहीं आता किस तरफ जाऊं.

- दोस्त मुझे
याद था आज का दिन. वह कहता है- इस दिन का
मैं कब से इंतज़ार कर रहा था. आओ, इस शहर में आज नया स्कूल खुला है, जिसमे तुम्हारे जैसे
शिक्षक की जरूरत है.
और आंखों से
टपकते खारे पानी को पोंछता हुआ, किसी यंत्र सा
मैं चुपचाप चलने लगता हूं डॉ. ठाकुर के पीछे.
(समाप्त)
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