शनिवार, 18 जुलाई 2020

लेख- स्वतंत्रता संग्राम में लोकगीतों की भूमिका

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई 
 लोकगीत , जैसा कि नाम से ही प्रकट है, यह काव्य की एक विधा है- जिसे गीत कहा जाता है. लेकिन इस श्रेणी में सभी गीतों को नहीं रखा जा सकता. केवल वही गीत लोकगीत कहे जाएंगे जो, जन साधारण द्वारा नितांत सीधी सादी बोली, मिली जुली भाषा शैली तथा मिश्रित शब्दावली में विशेष अवसरों पर गाए जाते हैं.

इन गीतों में न तो पांडित्य प्रदर्शन की भावना होती है, और न काव्य की परंपराओं के प्रति कोई दुराग्रह होता है. इसमे तो सिर्फ भावना की ही प्रधानता होती है. केवल संदेश ही प्रमुख होता है ।  अलंकारों से विभूषित गीतिकाव्य में अगर भावना व संदेश नहीं है, तो वह काव्य आभूषणों से लदी मूक सुंदरी से अधिक और क्या हो सकता है.

और इसके ठीक विपरीत, यदि एक ग्राम्य बाला जो नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण है, वह यदि फटे पुराने कपड़े भी पहने हुए है तो वह उस लोकगीत के समान होगी, जिसमें अलंकार रस छन्द आदि का ध्यान भले ही न रखा जा सका हो किंतु जो ललित है, जिसमें संदेश है, जिसमें भावना है.

पराधीन भारत का एक दृश्य 
अपनी सीधी सादी शैली तथा लोकप्रचलित शब्दावली में जितनी आसानी से ये लोकगीत बड़ी बात कह जाते हैं, मुझे यकीन है कि और किसी भी विधा से वह बात उतनी सरलता पूर्वक नहीं कही जा सकती. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है – स्वतंत्रता संग्राम में हमारे लोकगीतों की भूमिका.

हमारे देश के अलग अलग प्रांतों में लोकगीतों के कई स्वरूप प्रचलित रहे हैं. इनमें गीत के साथ साथ नृत्य तथा संगीत की भी प्रधानता होती है. कजरी, होली, पूरबी, चैती, चौमासा, बारहमासा,  लावनी, नौटंकी, पांडवानी, आल्हा आदि इसके कई रूप भिन्न भिन्न प्रदेशों में खूब प्रचलित रहे हैं. इन लोकगीतों में सच कहें तो हमारे भारत की आत्मा बसती है.

आज़ादी की लड़ाई में जन चेतना जागृत करने मे लोकगीतों ने  बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. हमारे देश में आज़ादी से पहले शिक्षा की दशा कोई बहुत अच्छी न थी. परंपरागत गुरुकुल पद्धति मैकाले की कुटिल चालों की शिकार हो चुकी थी. विश्वविद्यालयों में भारतीय मूल के वही गिने चुने लोग शिक्षा पाते थे, जो आर्थिक रूप से बहुत मजबूत थे.  या असाधारण प्रतिभाशाली थे ।

सुभद्रा कुमारी चौहान 
ऐसी स्थिति में सारे देश में आज़ादी की लहर कैसे उठी, कौन सी शक्ति आज़ादी के उस ज़ज़्बे के भीतर छिपी  थी-  हम समझ सकते हैं. वह शक्ति थी, लोकगीतों की शक्ति.

वे बुंदेले हरबोले कौन थे जिनके मुंह से सुभद्रा कुमारी चौहान ने आज़ादी की पहली लड़ाई की कहानी सुनी थी. वे कहती हैं-

बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी ॥

इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि आज़ादी की लड़ाई में हमारे लोकगीतकारों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी. और उन लोकगीतों को आज़ादी के परवानों ने गा गा कर देश की जनता तक पहुंचाया. उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी में आज़ादी की मशाल इन्हीं लोकगीतकारों के हाथों  में रही. 

उत्तरी भारत की बात करें तो अजीत सिंह, नन्दलाल नूरपुरी व रामप्रसाद बिस्मिल जैसे नाम जेहन में उभर आते हैं. पगड़ी संभाल जट्टा उड़ी चली जाए ओए, लूट लेया माल तेरा हाल बेहाल ओए,  भला इस लोक गीत को कौन भूल सकता है. इस गीत ने पंजाब के किसानों को बड़ी आसानी  से यह बात बता दी कि अंग्रेज सरकार उसका भयंकर शोषण कर रही है.
सरदार भगत सिंह डिजिटल चित्र 

ऐसा ही एक लोक गीत था नूरपुरी का- ऐथों उड़ जा भोल्या पंछिया – इस गीत ने भी शोषण के शिकार किसानों को अंग्रेजों के खिलाफ लामबंद किया.

इसी तरह एक और लोक गीत मेरा रंग दे बसंती चोला माए रंग दे--- पंजाब में बहुत लोकप्रिय हुआ. यह सरदार  भगत सिंह का भी प्रिय लोकगीत था.

अब बात करें राम प्रसाद बिस्मिल के  लोकगीत की.  -- सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है--- यह लोक गीत भी जन सामान्य को आज़ादी की लड़ाई से जोडने में बहुत कामयाब रहा. वाजिदअली शाह, घाली व बहादुरशाह ज़फर आदि की उर्दू गज़लों व शायरी ने भी इस लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने में कसर न छोड़ी.

   उधर बंगाल में यंग इंडिया आंदोलन के कवि माइकेल मधुसूदन दत्त तथा गुजराती कवि दलपत राम ने भी अपने लोकगीतों से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया.
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल 

बन्दे मातरम के द्वारा बंकिम चन्द्र चटर्जी व जन गण मन अधिनायक जय हे द्वारा गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने भी बंगाल में स्वाधीनता की चेतना फैलाई. काजी नजरूल इस्लाम के लोकगीतों को भी इस अवसर पर भुलाया नहीं जा सकता.

सुब्रह्मण्यम भारती 
   . मराठी लोकगीत कार सागर प्रण तलमल्ता  या फिर सुब्रहमण्यम भारती के लोक गीतों ने भी आज़ादी का संदेश जन जन तक पहुंचाया.

इसी तरह कालिंदी चरण पाणिग्रही ने उड़ीसा में,  लक्ष्मी राम बरुआ, पद्मधर चालिहा कमलाकांत भट्टाचार्य व अंबिकाराय चौधरी ने असम में अपने लोकगीतों से आज़ादी की अलख जगाई.    

और डॉ. मोहम्मद इकबाल के लोकगीत सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां  हमारा—को कौन भुला सकता है. 

मुहम्मद इकबाल 
   बृजनारायण चकबस्त के सुबहे वतन में भी  एक से बढ़ कर एक लोकगीत संकलित हैं जिन्होने आम आदमी को आज़ादी के लिए उकसाया. उर्दू के लोकगीतकारों में ऐसे नाम हैं- अल्ताफ हुसैन हाली, आगा हज्जू,बर्क लखनवी तथा मुनीर शिकोहाबादी. 

सामाजिक आर्थिक नजरिये से आज़ादी की लड़ाई में शरीक होने वाले लोकगीत कार थे- हसरत मोहनी, फैज़ अहमद फैज़, कैफी आज़मी, हंसराज रहबर, और अली सरदार जाफरी . 

हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चन्द्र का लोकगीत “आवहु रोवहु सब मिलि भारत भाई, भारत दुर्दशा देखि न जाई”. इसी क्रम की अगली कड़ी है.    मैथिलीशरण गुप्त,  रामधारी सिंह दिनकर बालकृष्ण शर्मा नवीन,  हरिवंश राय बच्चन तथा सुभद्रा कुमारी चौहान इसी शृंखला की नवीनतम कड़ियां हैं.  

उर्चिन का लोक गीत “टोडी टोडी बच्चे रे तेरी ऐसी की तैसी”  ने भी आज़ादी की भावना को सड़क पर ला दिया.

भारत के बिहार उत्तरप्रदेश झारखंड आदि उत्तरी भागों के लोक साहित्य मे सामाजिक चेतना स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी थी । इस भूभाग मे प्रचलित लोकगीतों की एक प्रमुख शैली कजरी का ही उदाहरण लें। भारतेंदु युग तक भी कजरी मे शृंगार और प्रेम का सुंदर संयोग मौजूद था । प्रेमघन जी की एक कजरी का उदाहरण प्रस्तुत है-

बदरी नारायण चौधरी "प्रेमघन" 
रिमझिम बरसै रे बदरिया, मोरी चदरिया भीजी  जाय ।
कहां जाय अब हाय बचौं मैं दइया जिय घबराय ।
लै छाता तर छाती से लगि प्रीति रीति सरसाय ।
पिया पेमघन पइयां  लागौं बेगि बचावो आय ।  

यही कजरी लगातार बढ़ते सामाजिक असंतोष और जीवन संघर्ष के बीच कैसे अपने स्वरूप मे परिवर्तन करती है- भारतेंदु जी द्वारा रचित एक उदाहरण दर्शनीय है –

टूटै सोमनाथ के मंदिर केहू लागै न गोहर बार ।
दौरो दौरो हिंदू हो सब गौरा करे पुकार ।
की केहू हिंदू के जनमल नाहीं की अरि मैलों छार ।
की सब आरज धरम तजि दिहलैं भेलैं तुरुक सब इक ।
केहू लगल गोहार न, गौरा रोवै बार बिजार ।
अब जग हिंदू केहू नाहीं झूठै नामै के बेवहार ।

   आधुनिक हिंदी के जनक  भारतेंदु हरिश्चंद्र 
तो इस तरह हम देखते हैं कि लोकगीत स्वतंत्रता  संग्राम के दौर में  बहुत शक्तिशाली हथियार साबित हुए. लोक गीतों ने आम जनता की मानसिकता बदली, उसे आज़ादी की दिशा में मोड़ा.

लेकिन सबसे बड़ा जो योगदान लोकगीतों ने स्वतंत्रता संग्राम में दिया, वह थी राष्ट्रीय एकता की भावना, जिसने प्रांत, भाषा, जाति संप्रदाय से ऊपर उठ कर सभी को एक सूत्र में जोड़ा.

भारतेंदु मंडल के रचनाकार प्रताप नारायण मिश्र ने आंचलिक भाषा मे जो काव्य लिखा उसमे तत्कालीन सामाजिक उथल पुथल और असंतोष पर उनकी तीखी नजर रहती थी. “होली” नामक लोकगीत शैली का एक उदाहरण देखिए-
प्रतापनारायण मिश्र 

जुरि आए फाकिन मस्त होली होय रही ।
घर मे भूंजी भांग नहीं है तो भी न हिम्मत पस्त । होली होय रही...
महंगी परी न पानी बरसा बजरौ नाही सस्त ।
धन सब गवा अकिल नहि आई तोभी मंगल कस्त । होली होय रही...
परबस कायर क्रूर आलसी अंधे पेट परस्त ।
सूझत कुछ न बसंत माहि ये  भए खराब औ खस्त । होली होय रही... ।

होली विधा के लोकगीतों पर तत्कालीन शोषण का प्रभाव भारतेंदु मंडल के एक अन्य कवि प्रेमघन जी ने भी देखा था। वह लिखते हैं-

महंगी टिक्कस के मारे सगरी वस्तु अमोली है ।
कौन भांति त्यौहार मनैवे कैसे कहिये होली है ।
भूखों मरत किसान तहूं पर कर हित डपट न थोरी है ।
गारी देत दुष्ट चपरासी तकति बिचारी छोरी है ।
पर्यो झोपरी मांहि छुधित नित, रोवत छोरा छोरी है ।
 ज्यों ज्यों करि काटत दुख जीवन सूझति तोरी होरी है ।  

“आल्हा शैली”  मे भी आल्हा ऊदल के रोमांचक युद्धों की जगह तत्कालीन सामाजिक विषमता ने ले ली। पंडित बालकृष्ण भट्ट द्वारा अपने पत्र “प्रदीप” मे (सन 1870 से 1910 के बीच) दिया गया आल्हा का एक उदाहरण  दृष्टव्य है –

संवत उनइस सौ तिरपन मां, पड़ा हिंद मे महा अकाल ।
घर घर फाके होवन लागे, दर दर प्रानी फिरैं बिहाल ।
गेहूं, चावल सांवां मकरा, सबै अन्न एक भाव बिकाय ।
पं बाल्कृष्ण भट्ट 
बिन पैसा सब छाती पीटैं अब तो हाय रहा नहिं जाय ।
कोई पात पेड़न के चाबै, कोइ माटी कोइ घास चबाय ।
कोई बेटवा बिटिया बेचैं, अब तो भूख सही नहिं जाय ।
कोई घर घर भीखौ मांगैं, कोई लूट पाट के खांय।
बहुत लोग जो अन्न देत हैं, राम निहोरे करैं सवाय ।
बहुत लोग देते हैं फांसी,अरु मलिका से चहैं खिताब ।
सी एस आइ के एस आइ, रायबहादुर केर खिताब ।  

तो पुराने आल्हा मे जहां .. खन खन खन खन तेगा बरसैं, जिन की मार सही ना जाय... केवल वीर रस की प्रधानता ही दिखाई पड़ती थी, नए आल्हा मे सामाजिक व राजनीतिक चेतना अब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी थी.

अंग्रेजी सरकार का शोषण व दमन चक्र चरम पर था. एक तो वैसे ही ऊंचे टैक्स के कारण किसान का जीना मुहाल था उस पर सरकारी कर्मचारियों व पुलिस का अपमानजनक बर्ताव भी सहना पड़ता था. ऐसे विषम माहौल मे लोकगीतों के विषय भी शृंगार, प्रेम, हास्य और उल्लास से हट कर तात्कालिक परिस्थितियों पर ही केंद्रित हो गए. गीतों मे एक ही पीड़ा झलकती थी कि ऐसी घोर गरीबी मे, जबकि घर मे भुनी हुई भांग तक नहीं है, बाजरा जैसा निकृष्ट अनाज भी नहीं है- होली कैसे मनाएं ?

लोकगीतों को संदेश वाहक बना कर तत्कालीन साहित्यकारों ने समाज की मूलभूत समस्या – अर्थात ब्रिटिश राज के औपनिवेशिक लूटतंत्र का न केवल  पर्दाफाश किया बल्कि एक जागरूक और जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य भी निभाया.

 लोकगीतों मे सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी वीर रस की कवयित्रियों का जहां महत्वपूर्ण योगदान रहा है वहीं भारतेंदु युगीन हिंदी साहित्य मे भी लोकगीत अपनी पारंपरिक भूमिका को नए परिवेश मे निर्धारित करते हुए प्रतीत होते हैं.

यही काव्य चेतना अंत मे जन चेतना बन कर सन सत्तावन  के पहले स्वाधीनता संग्राम मे परिलक्षित होती है. 
 (समाप्त)

 








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