स्वदेशी’
सरकार के कार्यकाल में एक ‘विदेशी’ कंपनी अपने यहां ठंडे के बाज़ार में उतरी। उतरते
ही सबसे पहले यहां ठंडे की ‘देसी’ कंपनियां ख़रीदीं और ख़रीद कर बंद कर दी। उसके बाद
क्रिकेट मैचों के प्रसारण के अधिकार ख़रीदे। नतीजा यह निकला कि ‘ठंंडा’ और ‘क्रिकेट’
खूब बिकने लगे और सात समुंदर पार बैठे आका अंधा मुनाफ़ा बटोरने लगे।
सब कुछ ठीक-ठाक चल
रहा था कि कंप्यूटर ने बिक्री घटने का संकेत दिया।कारण जानने के लिए पब्लिक सर्वे कराया गया। सर्वे के नतीजों पर विचार करने के लिए क्रिकेट बोर्ड की
बैठक हुई।
अध्यक्ष जी
बोले-‘डियर फ्रेंड्स! दुख की बात है कि ठंडे की बिक्री घटती जा रही है और हम हाथ
पर हाथ धरे बैठे हैं।
इसके बाद उन्होंने
जेब से एक क़ाग़ज निकाला। चश्मा नाक पर ठीक से बिठाया और क़ाग़ज पढ़ने लगे- मुझे पब्लिक की तरफ से कुछ शिकायतें मिल रही हैं. इन पर गौर करने के लिए ही आज की मीटिंग बुलाई गई है . पब्लिक की
पहली शिकायत है कि कंपनी ‘ठंडे’ में कीड़े मारने वाला कोई ज़हर मिलाती है, जो तय मात्रा से काफ़ी ज़्यादा है।
एक सदस्य बोले,
‘मै कई इलाकों से देख कर आ रहा हूं। लोग ठंडे का बायकाट कर रहे हैं,
जैसे आज़ादी की लडाई में विदेशी कपड़ों का सुना था। जगह-जगह ठंडे की
बोतलें फोड़ी जा रही हैं। फसलों पर कीटनाशकों की जगह ठंडे का छिड़काव किया जा रहा
है। यही नहीं, कई जगह ठंडे का इस्तेमाल टायलेट साफ़ करने में
भी किया जा रहा है, जो सस्ता और असरदार साबित हो रहा है।
दूसरे सदस्य बीच
में ही बोल पड़े, ‘मगर ठंडा कोई पेस्टीसाइड
या टायलेट क्लीनर नहीं है। हमारे खिलाड़ी इसकी पब्लिसिटी क्या टायलेट चमका कर
करेंगे या फिर फ़सलों पर छिड़काव करके क्या
इसी तरह बिकेगा हमारी प्रायोजक कंपनी का ठंडा ? किस मुंह से
पकड़ेंगे हम उस कंपनी के विज्ञापन का पैसा ? ’
तीसरे सदस्य बोले,
‘दरअसल प्राब्लम शुरू हुई टैस्ट रिपोर्ट से। किसी ने यहां के ठंडे
का कैमीकल टेस्ट कराया। रिपोर्ट में पेस्टीसाइड बहुत ज़्यादा मिला। बस तभी से
अफवाहों का बाजार गरमाने लगा। और एक बार जहां अफवाह फैलने लगी तो उसे रोकना मुमकिन
नहीं रहा । जंगल की आग की तरह अफवाहों का बाजार गर्म हो उठा ।
एक सदस्य ने
पूछा-‘प्राब्लम तो सभी ने डिटेल मे बता दी । अब उस प्रॉब्लम का हल भी तो बताइए ?
क्या ठंडे की कंपनी ने हमसे सेल घटने की रिपोर्ट मांगी है ?
एक सदस्य ने जवाब
दिया -, ‘यूरोप अमेरिका, आस्ट्रेलिया
वगैरह गोरों के मुल्कों मे बिकने वाले
ठंडे में पेस्टीसाइड नाम मात्र के लिए होता है।क्यों न हम वहीं से ठंडा मंगा कर उसका
केमीकल टेस्ट करवाएं ? दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा ।
थोडी देर रूकने के
बाद उन्होंने काग़ज़ को आगे पढ़ना शुरू किया, ‘पब्लिक
की दूसरी शिकायत है कि मैच फरवरी या मार्च से ही क्यों शुरू होते हैं ? उस वक्त दसवीं-बारहवीं के इम्तिहान होते हैं। पढ़ने-लिखने की बजाय बच्चे
टीवी से चिपक जाते हैं। क्या यह लाखों बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं है?’
थोड़ी देर की खामोशी
तोड़कर एक सदस्य बोले, ‘देखिये, हमारे मैचों को स्पांसर करने वाली कंपनी कोई छोटी-मोटी देसी कंपनी नहीं
है। वह मल्टीनेशनल कंपनी है। उसका ठंडा सारी दुनियां में बिकता है और साल भर बिकता
है। इंडिया मे फरवरी- मार्च से गर्मी मे तेजी आने लगती है। चेन्नै, बंगलुरु व मुम्बई, कोलकाता मे तो इन्ही महीनों मे ठंडा पीने का असली आनंद आता है। अगर इन महीनों मे मैच न हुए तो ठंडा भी नहीं
बिकेगा । ठंडा नहीं बिका तो बोर्ड को पैसा कहां से मिलेगा ? हमे
बच्चों के एग्जाम जैसे इमोशनल इश्यूज़ मीटिंग मे उठाने ही नहीं चाहिएं। हमारा सारा
ध्यान सिर्फ नोटों पर होना चाहिए । लाखों करोड़ों बच्चों के फ्यूचर से खिलवाड़ करके
अगर फॉरेन करेंसी मिल जाए तो क्या बुरा है ? कंपनी इन बेसिर पैर के मुद्दों की परवाह करने लगी तो उसका
बिजनेस चौपट हो जायेगा। हमारे बोर्ड को भी ऐसी शिकायतें ठंडे बस्ते में डाल देनी चाहिये।’
इस सुझाव से सभी सदस्य
सहमत थे।
अध्यक्ष आगे बढ़े।
उन्होंने कहा, ‘तीसरी शिकायत क्रिकेट की
हार-जीत को लेकर है। लोग कहते हैं, हमारी टीम जीता-जिताया
मैच हार जाती है। कभी फ्लाप खिलाड़ियों को पहले खिलाया जाता है। कभी हमारे बल्लेबाज़
बच्चों की तरह पहली गेंद पर ही पैवेलियन लौट जाते हैं तो कभी हमारे गेंदबाज़
बेतहाशा रन पिटवाते हैं। पब्लिक को शक है कि हमारे मैचों को सटोरिये फिक्स करते
हैं। कौन-सा मैच हारना है। कब, कितने, रन
बनाने हैं-ये सब पहले ही तय हो जाता है। इसीलिए क्रिकेट का वह क्रेज नहीं रहा।
सबसे उम्रदराज
सदस्य हंसते हुए बोला- अध्यक्ष जी, घोड़ा घास
से यारी करेगा तो खाएगा क्या ? अपनी खोपड़ी ? अरे ये तो ठंडे
की कंपनी, और खिलाड़ियों के बीच का मामला है. बीच की कड़ी होते
हैं बुकी। शादी ब्याह मे पंडित जी का जो रोल
है, फिक्सिंग मे वही रोल बुकी का भी होता है. इसके
बारे मे हमे मीटिंग मे बात ही नही करनी चाहिए . कुछ सवालों का सबसे अच्छा जवाब
होता है चुप्पी साध लेना. बस ! आगे इस प्वाइंट
पर नो चर्चा। ओके ?
एक सदस्य बोले-बट सर,
मामला सीरियस है। एक बार पब्लिक का भरोसा टूट गया तो फिर क्रिकेट और ठंडे की मार्केट
कोलैप्स हो जायेगी। कम से कम हमे पता तो चले कि बात पब्लिक तक पहुंची कैसे ?’
दूसरे सदस्य ने खुलासा किया,
‘सुना है विजिलेंस डिपार्टमेंट में कोई देशप्रेमी आया है। उसने जाल
बिछाया और एक ‘बुकी’ फंस गया। अब फंस गया तो मुंह भी खुल गया। सुबूत भी मिल गये ।
अंधे को क्या चाहिये- दो आंखें। मीडिया को पकी-पकाई खीर मिली तो लगे परोसने।’
‘मगर बुकी
का पता विजिलेंस को मिला कैसे ?
एक सदस्य बोले,
‘लगता है हमारे बोर्ड में भी कोई देश-प्रेमी छुपा हुआ है।’
अध्यक्ष का चेहरा
तमतमा उठा, ‘कौन है वह गद्दार ? आप उसे देश-प्रेमी कहते
हैं ? उसे आइडेंटिफाइ करना बेहद ज़रूरी है ’।
दूसरे सदस्य ने
उम्मीद जताई-आखिर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी?
अध्यक्ष जी ने
सहमति सें सिर हिलाया। चश्मे को नाक पर फिर बिठाया और आगे पढ़ने लगे,--- ‘चौथी और आख़िरी शिकायत है कि हम इतनी शान-शौकत से क्रिकेट खेलते ही
क्यों हैं ? जैसे अपने यहां पुराने जमाने से गुल्ली-डंडा चला
आ रहा है, अंग्रेज़ गड़रिये भी भेड़ चराते वक्त डंडे-गोले का
खेल खेलते थे, उसी को आज वे क्रिकेट कहकर अपने गुलाम रहे
मुल्कों (कॉमनवेल्थ कंट्रीज़) के साथ खेलते हैं। दो सौ साल हम उनके गुलाम थे। उस वक्त़ क्रिकेट खेलना
हमारी मजबूरी थी। जो मालिक कहेगा, गुलाम को वही करना पड़ेगा । पर आज हम आज़ाद हैं। आज हमारा क्रिकेट का दीवानापन क्या हमारी
गुलाम मानसिकता का प्रतीक नहीं है ? क्या यह राष्ट्रीय गरिमा
का मज़ाक उड़ाना नहीं है ?’
इस पर सब एक दूसरे
का मुंह देखने लगे, कि क्या कहें क्या न कहें।
आखिर एक सदस्य बोले-‘पब्लिक को न तमीज है, और न दो कौड़ी की अकल।अरे, ग्लोबलाइजेशन के दौर में राष्ट्रीय गरिमा से पेट भर जाएगा क्या ? मैं तो कहता हूं देश
की इंसल्ट करके भी डॉलर आता है तो आने दो। अमरीका, चीन,
फ्रांस, रूस, जर्मनी वगैरह क्रिकेट खेलते कैसे जब अंगे्रजों नें उन्हें गुलाम बनाया ही नहीं। इस गौरव के
हक़दार तो हम ही थे। अंग्रेजों से पहले भी एक हज़ार साल पहले से ही हमारे पास तुर्कों, गुलामों और मुगलों की गुलामी का शानदार अनुभव था । हमारे आकाओं ने सन आठ सौ से 1947 तक हमे आपस मे खूब लड़ाया । हम डट कर लड़े कटे व मरते रहे, वो देश लूटते रहे । गुलामी की
खूबियां हम से बेहतर कौन जान सकता है ?’
यह सुनकर मीटिंग हॉल मे खामोशी छा गई । किसी के मुंह से चूं तक न निकली। एक अनजाना सा डर सभी सदस्यों के चेहरे पर उभर आया था । उधर मीटिंग हाल के
बराबर वाले कमरे में लंच की व्यवस्था थी। खाने की लज़ीज़ खुशबू सदस्यों के सर चढ़ कर
बोलने लगी थी ।
मौके की नजाकत भांप कर अध्यक्ष जी ने मीटिंग खत्म करने की रस्म
पूरी की-
-
डियर फ्रेंड्स,
आप ठीक कहते हैं। बोर्ड को पहले पैसा देखना होगा। राष्ट्रीय सम्मान
उसके बाद है । मान अपमान से पेट नही भरता । इसलिए पब्लिक की इस बेहूदा शिकायत को
ठंडे बस्ते से भी निकाल कर मैं रद्दी की टोकरी में फेकने की घोषणा करता हूं।’
इसी के साथ सभी
सदस्य गण खाने पर टूट पड़े।
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