सोमवार, 1 जून 2020

व्‍यंग्‍य - मुंबई की लोकल




                 कश्‍मीर की खूबसूरती देख कर एक मुगल  बादशाह ने कहा था अगर धरती पर कहीं जन्नत  है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है । काश ! उस बादशाह को मुंबई की लोकल में  बैठने का  मौका  मिला होता तो हम लिख कर दे सकते हैं कि वह कहता   अगर दुनिया में कहीं जन्नत  है तो वह मुंबई की लोकल में है ।  मुंबई की लोकल में है । मुंबई की लोकल में है ।
                  हो सकता है शुरु शुरु में लोकल में आपकों जन्नत का अहसास न भी हो । कई बार आंवले का स्‍वाद और  बड़ों की बात का असर बाद में पता चलता है । मुंबई की लोकल में सफर करने का स्वर्गीय  सुख  भी कइयों को बाद में महसूस होता है । इसलिए थोड़ा धीरज रखना पड़ सकता है ।

                  कितनी बड़ी बात है कि आप ट्रेन में चढ़ते नहीं, चढ़ा दिये जाते हैं । उतरते नहीं उतार दिये जाते हैं । भीड़ द्वारा डब्‍बे मे ठूंस दिये जाने के बाद आप बेफिक्र हो जाते हैं । हों भी क्यों न आखिर ? स्टॉप आने तक आपकी काया  कितने खट्टे मीठे तजुर्बात से रूबरू होगी उसे आपसे बेहतर कौन समझ सकता है ? जैसे गूंगा गुड़ का स्वाद बता नहीं पाता,  ठीक वैसे ही लोकल मे चढ़ने से उतरने तक का “सुख” आप लेते तो हैं पर बता नही पाते ।  आपकी हालत उस गन्‍ने सी होती  है जिसे पिराई के लिए मशीन मे धकेल दिया  गया हो ।

                  आपको पसीना बहाने के लिए न तो जॉगर्स पार्क जाना है, न जिम  जाना है और न सॉना बाथ लेना है । इन स्‍थानों में जाने का आनंद  आपको लोकल मे  घुसते ही मिलना शुरु हो जाता है । आपसे सटे जिस्‍मों से जब पसीने के पतनाले बह रहे हों तो आपकी देह भी ज्‍यादा इंतज़ार नहीं कर पाती । उसमें भी जगह जगह से पसीने के सोते फूटने लगते हैं ।  

                  अब पसीना निकला है तो उसकी गंध भी निकलेगी । अपना पसीना  लाख बदबूदार क्‍यों न हो, बुरा नहीं लगता । आखिर है तो अपना ही । मगर पड़ोसी जिस्‍मों से उठी पसीने की दुर्गंध चुप नहीं बैठती, नथुनों से होती हुई दिमाग पर चढ़ कर चीखने लगती है ।

                  तजुर्बे मे आया है कि हर जिस्‍म के पसीने की गंध अलग होती है । जो बदन नहाए होते हैं उनके पसीने की बू  सो-सो होती है । तीन चार स्‍टाप तक उसे आप झेल जाते हैं। मगर जो शरीर नहाने धोने में यकीन नहीं रखते उनके तन बदन से उठे भभके आपकी बरदाश्‍त करने की हदों की अग्नि परीक्षा ले लेते हैं । उस अलौकिक दुर्गध का नासिकापान करने के बाद भी जो प्राणी विचलित नहीं होता वह साक्षात योगी नहीं तो और क्‍या है ?  यदि आपको आयुर्वेद शास्त्र की  मामूली जानकारी भी है तो आप बता सकते हैं कि बगल की जिस काया से पसीने की सहस्त्रधाराएं फूट रही हैं, उसका वजन कितना है ?  उसे बीमारी कौन सी है या फिर वह किस पेशे से ताल्‍लुक रखता है ?

                 लोकल की यात्रा मे पसीने के अलावा आप अपनी नाक के बिल्‍कुल करीब गर्म गर्म सांसें  भी महसूस करते हैं । पसीने की गंधों की तो फिर भी एक सीमा होती है । आप को आ‍इडिया होता है कि पसीने की दुर्गंध किस हद तक टुच्‍ची होगी  ? मगर मुंह से छोड़ी जा रही उसांसों की गंध का  टुच्चापन बताने वाला माई का लाल अब तक पैदा नहीं हुआ। बस इतना समझ लीजिए कि जितने मुंह उतनी गंधें ।  और मुंह कितने हैं आजू -बाजू इसका सिर्फ अंदाज़ लग सकता है । देखना मुमकिन नहीं । क्‍योंकि देखने के लिए अपना मुंह घुमाना पड़ेगा । मुंह घुमाने लायक आसमान आपको मयस्‍सर नहीं । आप तो फ्रीज़ और फिक्स हो चुके  हैं । हिल डुल तक नहीं सकते । आने वाले हर स्‍टॉप पर मुखों की संख्‍या बढ़ती ही जानी है । जाहिर है कि फिर चित्र विचित्र गंध वाली सांसों की तादाद  भी बढ़ेगी । फिर होगा ये कि तांक-झांक करने  की आपकी हसरत मन  में ही रह जायेगी । क्‍योंकि  मुंडी घुमाना तब  हो जायेगा पहले से भी मुश्किल ।

                  गर्म सांसें छोड़ रहे जिस्‍मों के भीतरी इलाके में क्‍या  उथल पुथल चल रही है आप भली भांति  पढ़ने  लगते हैं । किन फेफड़ों में टीबी किस स्‍टेज में है, कौन से फेफड़े दमे से ग्रस्‍त हैं ?  किन गलफड़ों में तमाखू या खैनी दबी है । किन कल्‍लों में कितने पान ठूंसे गये हैं । किस गले से रात दारू उतरी थी , किन मनहूस बत्तीसियों को सुबह   पेस्ट नसीब नही हुआ  - ऐसी  कई जानकारियां आपको बगैर देखे, बगैर हिले डुले  मिल जाती हैं ।

                  उन गर्म सांसों के साथ किस किस बीमारी के कीट आपके फेफड़ों की बेटिकट यात्रा कर चुके हैं आपको पता नहीं चलता । पता चल भी जाए तो क्या उखाड़ लेंगे ?  बाद में जब हल्‍की खांसी होती है, रोज हल्‍का बुखार आने लगता है, थकावट महसूस होती है, खांसी में खून गिरने लगता है, तब जाकर कन्फर्म होता है कि आपके फेफड़ों में भी उन बेटिकट मुसाफिरों ने झुग्गियां डाल ली  हैं । जिन्हें  बेदखल कर पाना अब मुश्किल  है ।

                  लोकल के भीतर ठेले जाने के बाद आपको ढेरों काम एक वक्‍त में निपटाने पड़ते हैं । पहला काम होता है - छत से लटके कुंडे कस कर पकड़े रहना, अगर गलती से खाली मिल जाएं तो । दूसरा काम,  कंधे पर लटके बैग को हर वक्त महसूस करना । तीसरा काम,   जेबों में पड़े बटुए, क्रेडिट कार्ड, नोट, मोबाइल वगैरह की मौजूदगी फील करते रहना । कलाई पर बंधी घड़ी से भी टच में रहना कि वह बंधी है या उतर कर किसी और कलाई पर तो नहीं जा बंधी ?  कांख में दबे अखबार को भी आपको बराबर  महसूस करना होता है कि वह कांख में ही बना हुआ है । ऐसा तो नहीं कि वह सरक कर बगल वाली कांख की शोभा बढ़ाने लगा हो और आप खामखाह अपनी बगलें भींचे खड़े हों ।

                  इतनी सारी जगहों पर एक ही काल खंड में चेतना को टिकाये रखना बच्‍चों का खेल नहीं है । ये तो योग की साक्षात सिद्धि है । वरना ये मन !  कई जगह तो रहा दूर, एक जगह भी पल भर नहीं टिकता । टिक जाय तो समझिये  कोई अनहोनी घट गई । लोकल के सफर का असली  फायदा यही है कि आप चित्त  की वृत्तियों का निरोध करना सीख जाते हैं  । यही तो योग है । ये हमने नहीं पतंजलि ने कहा है योगश्चित्‍तवृत्ति निरोध: ।

                  मगर देखने में आता है कि इसके बावजूद आपका कभी बटुआ साफ होता है तो  कभी घड़ी हाथ से मुक्त हो जाती है या फिर   कभी गले से सोने की चेन गायब  हो जाती है । घबराइये नहीं । वजह  सिर्फ इतनी  है कि चोरी के दौरान  चोर आपसे ज्‍यादा एकाग्र था । चोरी तो भई सीधे सीधे कंसंट्रेशन का खेल है । आगे से कभी आपकी गिरह न कटे – इसका एक ही तरीका है चोर से ज्‍यादा अवेयरनेस   होना ।  अवेयरनेस की  प्रैक्टिस आप लोकल  की  यात्रा में बखूबी कर  सकते हैं । और हां । इतनी कोशिशों के बाद भी अगर चीजें खो जाएं तो गम न करें।  चीजें तो नश्वर हैं ।  आज गई तो कल आ भी जाएंगी । बस कड़ी मेहनत और पक्का इरादा होना चाहिए ।  

                  कुछ मुसाफिरों ने एक नई तरकीब ईजाद की है । ये  दिमाग का  पार्टीशन कर लेते हैं । एक पार्ट से ये अपनी चेतना को बटुए, चेन, बैग, घड़ी, अखबार  आदि से जोड़े रहते हैं । तो दूसरे पार्ट से फ्यूचर प्लानिंग करते  रहते हैं । जैसे कि अगर टू बीएचके का फ्लैट अंधेरी में बुक करें तो मंथली कितनी किश्‍त जायेगी । या फिर बच्‍चे को मैनेजमेंट कोटे से एडमिशन मिला तो चार पांच लाख का जुगाड़ कैसे हो  सकता  है ?  अगर दफ्तर में आप कमाई वाली कुरसी पर हैं तो सोच सकते हैं कि किस फाइल में क्‍या नोटिंग देने से नोट आने लगेंगे । अपनी पीठ  आप खुद ही थपथपाने लगते हैं कि  वाव  ! व्हाट एन आइडिया यार !  

                  अभी और भी कई आइडिये आ  रहे  होते हैं, कि आपकी छठी इन्‍द्री अलार्म बजा देती  है कि स्‍टॉप आने वाला है । ये काम वैसे आपकी आंखों का  था, मगर बेचारी आंखें  कहां  देख लें और क्या देख लें ?  आप तो बेहिसाब जिस्‍मों के बीच सैंडविच बने हुए हैं । वहां न आंखों की पहुंच है  न रोशनी की । लिहाजा  सारा लोड छठी इन्‍द्री पर आ जाता है ।

                  जब आप लोकल में नए नए  आते हैं तो उतरने के एक दो स्‍टॉप पहले से ही निकास की तरफ सरकने लगते हैं । इंच इंच कर मंजिल  की तरफ बढ़ते हैं । फिर भी अगल बगल वालों की फब्तियां सुननी पड़ती हैं । कोई कहता है- अरे छीलेंगा तू ?  ओ मिस्टर ! अपना खुर हटाने का ! जल्दी हटाने का  बाबा ! अरे अरे ! धक्का काय कू देता गुरु  ! अपुन  गाय बैल दीख रएला क्या  ? .... वगैरह वगैरह. जवाब मे खिसियाते हुए,  लगातार आगे बढ़ते हुए आप कहते हैं- सॉरी भाउ !  अपुन का स्टॉप आएला है.


                  पुराने  हो  जाने के बाद आप को अपनी बेवकूफी का पता चल जाता है । जिस्‍मों को दायें बायें ठेलकर उतरना भी कोई उतरना है लल्लू  ? ये प्रोफेशनल नहीं , नौसिखिये का तरीका है। जरा याद कीजिए  - चढ़ते वक्त कौन सा जोर लगाया था  आपने ?  बस इतना किया था कि दरवाजे के सामने आ गए थे । उसके बाद काम था भीड़ का, जो आपको फुटबाल की तरह खेलते हुए भीतर ले आयी थी । ठीक वही ट्रिक पेशेवर यात्री उतरते हुए भी अपनाता है, और बगैर ताकत खर्च किये  प्‍लेटफार्म पर आ गिरता है ।

        कभी कभी लोकल में बमों के धमाके भी हो जाते हैं । उन मनहूस दिनों मे लोकल की भीड़ गधे के सींगों की तरह गायब हो जाती है । आपको खुद ही चढ़ना-उतरना  पड़ता है । भीतर आकर मन जार जार रोने को होता है । न “कानों से धुआं उठा देने वाली”  पसीनों की बदबू, न गरमा गरम दुर्गंध भरी  सांसें । न अपनी किसी आइटम के लुप्त होने का खौफ ! और न मुर्गे की तरह  बैठने का की सजा ! उल्टे किसी सीट से आवाज आती है -- भाई साहब ये सीट खाली है । यहां बैठिये । अच्‍छी हवा आ रही है । आपको सीट मिल गई। ठंडे झोंके भी मिल गए ।  पर अब मकान की किश्‍तों  या बच्‍चे के दाखिले पर कैसे सोचें ?  आपको तो  कुंडे पकड़े, हवा में लटकते हुए सोचने की आदत  थी ।  और स्टॉप आने पर   खुद ही  बाहर आना !  ये उतरना भी कोई उतरना हुआ ? आह ! कहां गये वे मजबूत धक्‍के, जो ऐसे वक्‍त पर गोली के वेग से आपको प्‍लेटफार्म पर ला पटकते थे ।

                  लुटे पिटे से जब आप घर पहुंचते हैं, चिड़चिड़े होकर बच्‍चों पर बरसते हैं तो पत्‍नी पूछती है क्‍या हुआ ? तबीयत तो ठीक है न ?

                  आपका थका हुआ जवाब होता है आज लोकल खाली थी ।
                                                      (समाप्त)


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