एक इंटरव्यू जो कभी छपा ही नहीं


        
  

 पिछले जन्म मे जाकर मैंने  देखा कि मै भारत मे पैदा हुआ था जो देवताओं की भूमि कही जाती थी. मेरा एक अखबार और टीवी न्यूज़ चैनल था.   मुझे यह भी अच्छी तरह याद है कि आखिरी इंटरव्यू मैंने  बाबा भारती का लिया था. ये बाबा भारती कौन थे आप नही जानते,  इसलिए बताना जरूरी है.
----  बाबा भारती  बाइ प्रोफेशन पहुंचे हुए फकीर थे पर एक्सीडेंटली उनका कार्य क्षेत्र  समाजसेवा हो गया था. दरअसल जब भी बाबा जी ध्यान लगाने बैठते, भूखे-प्यासे, लुटे-पिटे कंगालों के बिलखते थोबड़े उनकी कल्पना मे उभर आते. हृदय वेदना से छटपटाने लगता. ध्यान  भटक जाता समाज के उन लाखों करोड़ों लोगों की तरफ जो भूखे पेट सोते, जानलेवा बीमारियों से  जूझ रहे होते और पांवों से बदन ढकने की बेकार कोशिश कर रहे होते. जिन्हे देख कर दुष्यंत कुमार त्यागी ने कहा था- न हो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुआफिक हैं इस सफर के लिए. 
            एक दिन बाबा जी जुहू की एक सड़क पर टहल रहे थे. दोनो तरफ सुर्ख फूलों से भरे छतनारे गुलमोहर खड़े थे. बाबा जी सोचते जा रहे थे कि रोग शोक और गरीबी के गटर मे डूबे तमाम लोगों को कैसे बाहर निकालूं ताकि वे मुझे ध्यान मे डिस्टर्ब न करें. 
तभी सड़क के किनारे से एक बच्चे के चिल्लाने की आवाज़ आई- बचाओ, बचाओ.  
            बाबा जी ने घूम कर देखा – कचरे के विशाल ढेर पर कुछ खूंखार, आवारा कुत्ते एक नंगे, मैले कुचैले बच्चे पर झपटे हुए थे. बच्चे की कांख मे कूड़े से बीनी बासी सड़ी गली रोटियां दबी थीं जिन्हे वह किसी भी कीमत पर खोना नही चाहता था.  कुत्ते रोटियां छीनने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे, जैसे कह रहे हों इंसान के बच्चे ! हमारा हक छीन कर कहां  जाएगा ?
             बाबा जी का हृदय  पिघल गया.  कुत्तों की तरफ मांसाहारी गालियों की बौछार करते हुए बगैर हथियार के ही दौड़ पड़े. कुत्तों ने बाबा जी की इज़्ज़त रख ली. बच्चे को घायल छोड़ कर भाग लिये.  
            बस्स ! वही टर्निंग प्वाइंट था. दिव्य ज्ञान प्राप्त हो चुका था. वह समझ गए कि दरिद्र की सेवा ही नारायण की सेवा है. नारायण को तो किसी ने देखा नहीं, पर उसी का ये दूसरा रूप नर आज कुत्तों से भी बदतर हालत मे पहुंच गया है. जब तक नर का दलिद्दर नहीं धुलता, तब तक नारायण को खोजने का कोई मतलब नहीं.    
अत: फॉर द टाइम बींग बाबा जी समाज सेवा मे जुट गए.
दिमाग से बाबा जी महा चतुर खिलाड़ी थे. मंजिल तक कैसे पहुंचना है वह जानते थे, पर  दिक्कत थी नकद नारायण की.  अंटी मे एक भी पैसा टका न था. बगैर नकदी  के चूंकि  सेवा कार्य हो नही सकता. सो उन्होने सारा ध्यान नकदी पर फोकस कर दिया. हर रोज शाम को घर पर  ही उपदेश देने लगे. बड़ी मार्मिक शैली मे  लोगों से कहते- इस कलियुग मे दरिद्र की सेवा ही भगवान की सेवा है. जी खोल कर दान दीजिए. जब तक हम एक एक रोते चेहरे पर मुस्कान न ले आएं हम चुप नही बैठेंगे. और ये काम बाबा अकेले नही कर सकते. आपका साथ आपका विश्वास जरूरी है. एक रुपया, दो रुपए,  पांच, दस,  सौ,  हजार,  लाख, जो भक्त जितना भी अफोर्ड कर सके दरिद्र नारायण के चरणों मे अर्पण करे.
इधर बाबा जी खुद भी मेहनत करके कौड़ी कौड़ी जोड़ रहे थे, तो दूसरी तरफ कुछ धन कुबेरों की नजर भी इस होनहार बाबा पर  पड़ी. वे जल्द ही ताड़ गए  कि बाबा बहुत गहरे पानी की मछली है . सो, दौलत बाजों ने दांव खेल दिया. बाबा जी पर नारायण की तो नहीं पर लक्ष्मी जी की असीम कृपा बरसने लगी. देखते ही देखते सीन बदल गया.  जल्दी ही बेहिसाब नकदी बाबा जी की झोली मे भर गई. लोग  आपस मे बात करते – अरे ! चेहरे पर तेज देखा ? मैं तो कहता हूं बाबा जी इंसान हैं ही नहीं. देखो लोगों की पीड़ा कैसे उनकी आंखों से हर वक्त झरती रहती है. इनका पता ठिकाना भी किसी को नही मालूम. मैं तो छाती ठोक कर कहता हूं बाबा जी भगवान के अवतार हैं. आज नहीं तो कल सारी दुनिया मान जाएगी. 
देखते ही देखते बाबा जी फर्श से अर्श पर पहुंच गए. आलीशान आश्रम  बन गया. कई बसें,  एक बेशकीमती कार, और कई एसी फाइव स्टार सुइट आश्रम  के आहाते मे बन गए. फलों और फूलों से लदे पेड़ आश्रम की खूबसूरती मे चार चांद लगा रहे थे.    
मैंने  बारीकी से नोट किया- अब बाबा जी के भाषणों मे नर की कम और नारायण की चर्चा ज्यादा होती. आश्रम के आस पास दूर दूर तक कोई गरीब खोजे से भी न मिलता. लगता था जैसे नगर निगम वाले आवारा कुत्तों के बदले गरीबों को ही भर भर कर कहीं दूर जिंदा ही जमीन मे दफन कर आए हैं.
इधर आए दिन अखबारों और चैनलों वाले बाबा जी के आश्रम मे शूटिंग करते पाए जाते. बाबा लॉन मे टहलते हुए इंटरव्यू देते अक्सर देखे जा सकते थे.  हाल ये हो गया था कि कोई अखबार उठा लो, बाबा  जी की ईमानदारी हर खबर से फूट रही होती . कोई टीवी चैनल खोल लो- दोनो हाथ जोड़े, पीताम्बर ओढ़े मंद मंद मुस्कराते बाबा जी प्रकट हो जाते. मानो हमारे टीवी खुलने का इंतज़ार कर रहे होते कि बेटा तू खोल कौन सा चैनल खोलेगा. बच्चू तू जहां जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा.... मैं  चैनल चैनल मे उसी तरह विद्यमान हूं  जैसे कण कण मे भगवान. ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक मे आगि, बाबा चैनल चैनल मे जाग सके तो जागि.
हमेशा मुस्कराते रहने के कारण बाबा जी के होंठ परमानेंटली खिंच गए थे. वैसे तो गुस्सा उन्हे छू तक नहीं गया था,  मगर मान लो वह गुस्से मे होते भी तब भी मुस्कान की टॉर्च लाइट ही फेंकते भक्तों पर. और बोल इतने मीठे कि जैसे रसगुल्लों की चाशनी  मे नहा कर  आए हों ! एक बात और  ! ना कहना तो उन्होने सीखा ही न था. आप कोई भी काम लेकर चले जाइये. एक ही जवाब मिलता- आपका काम हो जाएगा. बंदा खुशी खुशी वापस लौट जाता. ये बात अलग है कि काम हो जाने तक कितना चढ़ावा देवों के देव उन बाबा जी  को चढ़ाना पड़ता ! 
जब उनकी ईमानदारी के चरचे ग्लोबल लेवल पर होने लगे तब जाकर हमे लगा कि पानी सर से  ऊपर हो गया है.  बाबा जी का इंटरव्यू अब ले ही लेना चाहिए. वरना क्या सोचेंगे ?  अपना लाड़ला  अखबार, सबसे प्यारा चैनल, जिसे खुलवाने मे मात्र पचास पेटी सुविधा शुल्क वसूला था हमने, वो अपना पालतू पप्पी  अब तक क्यों नहीं आया ?  कहीं लॉकडाउन मे तो नहीं फंस गया ? अरे एक  घंटी दे देता ! फौरन राशन बांट रहे  कोरोना वारियर का पास बनवा कर भेज देते ! या फिर क्वारंटाइन तो नहीं  कर रहा ?
खैर ! ज़्यादा देर न करते हुए हमने  उनके पीएस  से अपॉइंटमेंट लिया. और तय शुदा वक्त पर उनके आलीशान आश्रम  पर पहुंच गए.
वह बड़ी बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे थे.
वक्त न गंवाते हुए हमने सवाल पूछना शुरू कर दिया-
प्रश्न 1 -  बाबा जी आप महात्मा हैं . ये जो चोला आपने धारण किया है ये सन्यास का प्रतीक है . सन्यासी  को राजनीति से क्या लेना देना.
बाबा जी- बच्चा हमे भी पहले यही लगता था कि बाबाओं का राजनीति मे क्या काम ? पर देखिये पोप चाहे इसाइयों की राजनीति मे अड़ंगा न लगाए, हम तो अपने देश की राजनीति को अपनी संस्कृति से अलग न होने देंगे. अरे यही तो अपनी पहचान है. अमीरी गरीबी तो सब कर्मों के आधीन है. पिछले जन्म मे कुछ अच्छे कर्म किये होंगे तो बच्चा अरबपति के यहां आ गया, बुरे कर्म किये होंगे तो बीन रहा होगा सड़ा गला खाना कूड़े के ढेर पर.
प्रश्न 2- बाबा जी आज मानव मे संवेदना खत्म होती जा रही है. अमीर और अमीर होने की दौड़ मे यह भी नहीं देखता कि उसकी बेशुमार दौलत करोड़ों लोगों का हिस्सा थी जो उसने चालाकी से छीन कर अपनी तिजोरी मे भर ली. ऐसे लोगों को प्रभु दंड क्यों नही देते बाबा जी ?
बाबा जी- अरे बच्चा ! ये भगवान का कंसेप्ट बुद्धिजीवियों के दिमाग की उपज है. समाज मे ताकतवर लोग जो उल्टा पुल्टा करते हैं उसका गलत असर गरीब पर पड़ता है. तब गरीब मन को दिलासा देता है कि हे भगवान अब तू ही देखना. और इसी उम्मीद मे उसकी उमर गुजर जाती है. भगवान नहीं देखता. होता तो देखता. बाकी हर आदमी पिछले कर्मों का बैलेंस ही इस जन्म मे भोग रहा है. जिसने अच्छा  बोया था वो अच्छा काट रहा है. जिसने बोया ही बबूल था वो आम कहां से खाएगा ? इसलिए पत्रकार महाशय, संवेदना उपजे तो कैसे उपजे ?
प्रश्न 3- बाबा जी आप राजनीति मे जनता की नुमाइंदगी कर रहे हैं. आप नारायण की सेवा भी बखूबी कर रहे हैं, विदेशी बैंकों मे आपके खातों मे बेशुमार दौलत जमा है. सब ठीक है, लेकिन चरित्र को लेकर आप पर आरोप लगते रहते हैं. इनमे कहां तक सचाई है ?
बाबा जी-  (गुस्से मे कांपते हुए )  तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे चरित्र तक पहुंचने की ? क्या तुम जानते नही मुझे ? मेरा चरित्र मेरा  पर्सनल  मैटर है. और पर्सनल मैटर मै पब्लिकली कभी डिस्कस नही करता.
प्रश्न 4 – गुस्ताखी माफ हो बाबा जी. आखिरी सवाल . आपकी अंतिम इच्छा क्या है ?
बाबा जी – (मुस्कराते हुए) बच्चा अभी तो प्रथम इच्छा भी पूरी नही  हुई ! अभी तो मुझे सारे विश्व  का गुरु बनना है.  जमाने को दिखाना है. फिर पास पड़ोस के नक्षत्रों मे जो बुद्धिमान सभ्यताएं निवास कर रही हैं, उनका जीना भी हराम करना है. उनसे घुटने टिकवाने हैं. और धीरे धीरे सारे ब्रह्मांड का एक छत्र सम्राट बनना है. आकाश पाताल और स्वर्ग मे एक दिन मेरे नाम का ही डंका बजेगा- यह आप भी देखेंगे और मै भी.
मुझे लगा- अथाह दौलत और शक्तियां पाकर बाबा जी का दिमाग हिल गया है. अगर और कोई प्रश्न पूछ लिया तो पता नहीं मुझे ही न उठवा लें. सो डर के मारे मैंने इंटरव्यू वहीं खत्म किया और  उठने लगा.
तभी बाबा जी की सेविकाएं चाय का प्याला लेकर आ गईं. हमने बाबा जी की तरफ देखा. बाबा जी मुस्कराते हुए बोले- प्रसाद समझ कर पी लो.
मैंने  प्रसाद ग्रहण किया और उसके बाद........ मुझे कुछ भी याद न रहा.    
अगले दिन अखबारों  मे एक खबर छपी थी. शीर्षक था – गुमशुदा की तलाश, और  उस पर मेरी फोटो छपी थी.   

(मौलिक अप्रकाशित अप्रसारित) 


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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