आयुर्वेद और कर्मयोग


                     हमारी आयु तथा स्वास्थ्य का हमारे द्वारा किये गए कर्मों से क्या संबंध है ? क्या हमारा स्वास्थ्य हमारे द्वारा किये गए कर्मों से प्रभावित होता है ?  अथवा क्या हमारे द्वारा किये गए कर्म हमारे शरीर व मन पर कोई प्रभाव डालते हैं ?

            यदि इन प्रश्नों का उत्तर खोज लिया जाय तो स्वास्थ्य और मन को वांछित स्थिति मे रख सकने मे सफलता मिल सकती है । क्योंकि शरीर की स्थिरता ही अंतत: प्रत्येक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है ।  
इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें आयुर्वेद और कर्मयोग के अंतर्संबंधों की समीक्षा करनी होगी ।

            


आयुर्वेद “आयु” तथा “वेद” इन दो शब्दों से मिल कर बना है । आयु को स्थिर रखने के लिए जिस विद्या की आवश्यकता होती है- वही आयुर्वेद है । और आयु की स्थिरता स्वस्थ शरीर में ही निहित है ।

            आयुर्वेद का मूल आधार वात’, ‘पित्त’, तथा  कफ’ – ये तीन दोष हैं । स्वस्थ शरीर में इन तीनों दोषों का अनुपात एक समान होना चाहिए । इनमें से किसी भी दोष के बढ़ या घट जाने से उस दोष से संबंधित व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं । क्योंकि दोष तीन हैं अत: मूल व्याधियां भी तीन प्रकार की हैं ।  चरक संहिता मे कहा गया है-
अतस्त्रिविधा व्याधय: प्रादुर्भवंति – आग्नेया, सौम्या, वायव्याश्च ॥    (नि. अ. ¼)
अर्थात व्याधियां मूलत: तीन प्रकार की होती हैं- आग्नेय, सौम्य तथा वायव्य।

इसी से मिलता जुलता संदर्भ श्वेताश्वतर उपनिषद में मिलता है-
अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राभि रुध्यते । सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र संजायते मन: ( श्वे. 6)
त्रिगुण, त्रिदोष और पंच महाभूत 
अर्थात जहां अग्नि का मंथन होता है, जहां वायु का निरोध होता है तथा जहां सोम अधिकता से प्रकट होता है- वहां मन सर्वथा शुद्ध हो जाता है ।

स्पष्ट है – अग्नि, सोम तथा वायु – ये तत्व ही शरीर तथा की व्याधियों तथा मन की शुद्धि से संबंधित हैं । इसी तथ्य को सुश्रुत संहिता मे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है-

विसर्गा दान विक्षेपै: सोम सूर्यानिला  यथा ।
धारयंति जगद्देहं कफ पित्तानिलास्तथा ॥ (सू.अ.- 21/8) 

अर्थात जिस प्रकार सूर्य, चंद्र, वायु के विसर्ग, आदान व विक्षेप इस जगत को धारण करते हैं, ठीक उसी प्रकार वात, पित्त तथा कफ – इस शरीर को धारण करते हैं ।

स्पष्ट है कि प्रकृति के जड़ व चेतन- दोनों रूपों को उपरोक्त तत्व समान रूप से प्रभावित करते हैं । चेतन शरीर में वात (वायु), पित्त( अग्नि या सूर्य) तथा कफ (सोम या चंद्र या जल) के रूप मे तथा जड़ प्रकृति मे सूर्य, चंद्र तथा वायु के रूप में ।
पौष्टिक औषधि शतावरी 

            इन त्रिदोषों की स्थिति भी मानव शरीर में स्पष्ट की गई है । कंठ से सिर तक कफ दोष, कंठ से नाभि तक पित्त दोष तथा नाभि व उससे नीचे वात दोष की स्थिति बताई गई है ।

 इन दोनों उदाहरणों में पहला विशुद्ध रूप से चिकित्सा से तथा दूसरा दर्शन से संबंधित है । भले ही दोनों का कथ्य एक ही है । इसी संदर्भ में गीता का एक उदाहरण विचारणीय है-

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधी : सर्वा: सोमोभूत्वा रसात्मक: ॥13     (गीता, अध्याय 15)  

अर्थात मैं ही पृथ्वी मे प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस रूप अर्थात अमृतमय चंद्रमा (सोम ) होकर संपूर्ण औषधियों (वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूं ।

वैदिक काल मे प्रयोग किया जाने वाला सोमरस संभवत: एक वनौषधि  सोमवल्लीका स्वरस रहा होगा । दर्शन मे वर्णित तीन तत्व- वायु, अग्नि तथा सोम ही तीन दोषों – वात, पित्त तथा कफ से संबंधित हैं । आग्नेय व्याधियां अग्नि तत्व के प्रकोप से, सौम्य व्याधियां सोम(चंद्र) के प्रकोप से  तथा वायव्य व्याधियां वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती हैं ।

प्रकृति और पुरुष का साहचर्य 
अग्नि का मूल स्रोत सूर्य है । सूर्य से प्राप्त प्रकाश तथा ऊष्मा ही ऊर्जा के अनेक पार्थिव स्रोतों जैसे कोयले, लकड़ी व पेट्रोलियम में संचित होती है । आवश्यकता पड़ने पर इसी संचित ऊर्जा को हम पुन: उत्पन्न कर लेते हैं । कहना न होगा कि जड़ व चेतन- सभी पदार्थों में अग्नि का मूल आधार सूर्य है ।

इसी प्रकार जलीय तत्वों का संबंध सोम से है । सोम का एक अर्थ है- चंद्रमा । चंद्रमा के प्रकाश मे अग्नि तत्व नहीं है बल्कि इसके विपरीत सौम्यता है । चंद्रम में स्वयं का प्रकाश नहीं है । सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करके यह पृथ्वी पर भेजता है । सूर्य का अग्नि तत्व चंद्रमा में अवशोशित हो जाता है और केवल शीतल प्रकाश ही पृथ्वी पर पहुंचता है । जल का स्वभाव भी शीतल है । अत: चंद्रमा को जल तत्व का आधार मान लिया गया । औषधियों के स्वरस मे  जो अद्भुत भेषज गुण देखे जाते हैं  उनका मूल आधार सोम अर्थात चंद्रमा का प्रकाश ही है । आयुर्वेद में चौंसठ दिव्यौषधियों का उल्लेख है । चंद्रमा की सोलह कलाओं का संबंध क्या इन चौंसठ दिव्यौषधियों से तो नहीं है ?

इन चौंसठ दिव्यौषधियों मे एक महत्वपूर्ण दिव्यौषधि है- सोमलता या सोमवल्ली । कहा जाता है कि कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को इस लता पर एक पत्ता लगता है, द्वितीया को दूसरा तथा तृतीया को तीसरा। इस प्रकार पूर्णिमा तक पंद्रह पत्ते लगते हैं । फिर शुक्ल पक्ष मे रोज एक पत्ता गिरने लगता है । अमावस्या को अंतिम पत्ता भी गिर जाता है । यह क्रिया चंद्रमा की कलाओं के साथ निरंतर चलती रहती है । कहते हैं कि शुक्ल पक्ष में इसका एक पत्ता रोज खाने से शरीर भी धीरे धीरे क्षीण होने लगता है । आमावस्या आते आते शरीर मात्र हड्डियों का ढांचा रह जाता है । अब कृष्ण पक्ष आरम्भ होता है । इस पक्ष मे नित्य एक पत्ता खाने से शरीर  मे मज्जा, रक्त आदि बनने लगते हैं । पूर्णिमा को आखिरी पता खाने के बाद शरीर अमर हो जाता है । फिर कभी इस का क्षय  नहीं होता ।

भले ही अभी  तक वनस्पति शास्त्री ( Botanists ) सोमवल्ली की पहचान नहीं कर सके हैं. किंतु सिर्फ इसी आधार पर सोमवल्ली के अस्तित्व को नकारा भी नही जा सकता .

सात्विक प्रकृति की औषधि ब्राह्मी 
            इसी प्रकार वायु तत्व का संबंध केवल हवा से नहीं बल्कि हवा हवा मे विद्यमान सभी जीवाणुओं , विषाणुओं से भी है । श्वास के साथ ही अनेक रोगों के विषाणु (virus) तथा जीवाणु (Bacteria) शरीर मे प्रवेश करके रोग उत्पन्न करते हैं । ये रोग जीवनी शक्ति को कमजोर करके आयु को घटाते हैं।

          किंतु यही वायु जीवन का आधार भी है । वायु मे स्थित ऑक्सीजन (प्राण वायु) से ही शरीर को ऊर्जा मिलती है । ऊर्जा मिलने से शरीर की समस्त गतिविधियां संचालित होती हैं । वायु को श्वास प्रश्वासों द्वारा निरुद्ध करके प्राणयोगी शरीर की संपूर्ण गतिविधियों को मन के आधीन कर लेता है ।

       जैसा कि हम जानते हैं- प्रकृति के दो रूप हैं- एक जड़ व दूसरा चेतन । अग्नि , सोम व वायु का जड़ तथा चेतन  पर एक सा प्रभाव पड़ता देखा जाता है । उपनिषद कहता है – यत्पिंडे तत्ब्रह्मांडे अर्थात जैसा पिंड वैसा ब्रह्मांड ।  स्पष्ट है कि शरीर के तीनो दोषों का संबंध सूर्य, चंद्र तथा वायु से है । 

रोग प्रतिरोधक आंवला 
सूर्य अग्नि तत्व है तथा पित्त दोष की प्रकृति भी अग्नि है. अत: पित्त दोष का संबंध सूर्य से, कफ का संबंध जल से तथा वात का संबंध वायु से है । शरीर मे इन दोषों के अधिकार क्षेत्रों को देखें तो नाभि से नीचे का भाग वात दोष के अधिकार मे आता है, नाभि से ह्र्दय तक का भाग पित्त दोष तथा कंठ से ऊपर का भाग कफ दोष के अधिकार मे आता है ।

            गैस संबंधी सारे रोग होते भी नाभि से नीचे ही हैं। जैसे कि गैस ट्रबल, अफारा, अपान वायु, आदि। शरीर के मध्य भाग मे ही पित्ताशय होता है जहां एसिडिटी, आदि रोग उत्पन्न होते हैं । हृदय से ऊपर ही फेफड़े, नासिका आदि होते हैं जिनमें कफ संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं।

प्राचीन भारत मे रोगी की चिकित्सा 
            अब कर्म के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं । कर्म से हमारा आशय है किये जाने वाले काम से है । योग से हमारा आशय उस वस्तु की प्राप्ति जो अभी तक उपलब्ध न थी । इस प्रकार कर्मयोग का सामान्य अर्थ हुआ- अप्राप्त की कर्म द्वारा प्राप्ति । इसके स्वरूप को गीता के निम्नलिखित उदाहरण से समझा जा सकता है-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।  मा कर्मफल हेतुर्भुर्मातेसंगोस्त्वकर्मणि ॥ 47
त्रिफला का एक फल बहेड़ा 

अर्थात- तेरा कर्म करने मे ही अधिकार हो । फल मे कभी नहीं । तू कर्मों  के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने मे भी प्रीति न हो ।

योगस्थ: कुरुकर्माणि संगंत्यक्त्वा धनंजय । सिध्य सिध्यो समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48

अर्थात हे धनंजय, आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि मे समान बुद्धि वाला होकर योग मे स्थित हुआ कर्मों को कर । यह समत्व भाव ही योग कहा जाता है  (सम चित्तत्वं हि संसिद्धि ) ।
हरीतकी (हरड़) के गुण 

            भारतीय दर्शन की अधिकांश परंपराओं में पूर्वजन्म का सिद्धांत महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इसके अनुसार मनुष्य जैसे कर्म करता है मृत्यु के पश्चात उसे वैसा ही जन्म मिलता है । इस प्रकार अपने द्वारा किये गए कर्मों की फलभुक्ति के लिए उसे अनंत काल तक जन्म लेना व मरना पड़ता है । आवागमन के इस चक्र से मुक्त होना ही मोक्ष है । मोक्ष तभी मिल सकता है जबकि ऐसा कर्म न किया जाय जिसमें कोई अपेक्षा हो या फल की आसक्ति हो । श्वेताश्वतर उपनिषद भी कहता है –

आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान विनियोजयेद य: ।
तेषामभावे कृतकर्मनाश : कर्मक्षये याति स तत्वनोन्य : ॥4

अर्थात- जो साधक सत्वादि गुणों से व्याप्त कर्मों को आरंभ करके तथा समस्त भावों को परमात्मा में लगा देता है उन कर्मों का अभाव हो जाने पर पूर्व संचित कर्मसमुदाय का भी सर्वथा नाश हो जाता है । कर्मों का नाश होने पर वह साधक परम आत्मा को प्राप्त हो जाता है ।

            आशय यह है कि गुण (सत्व, रज, तम) , वर्ण ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) व परिस्थिति के अनुकूल किये गए कर्म यदि अहर्ता, ममता, आसक्ति आदि भावों से मुक्त रहते हुए किये जाएं तो उनका फल नहीं मिलता । अर्थात मन, बुद्धि या शरीर पर उनका प्रभाव नहीं पड़ता । ये  गुण तथा कर्म ही हैं जिन्होने जीवात्मा को शरीर में बांध रक्खा है । जैसे ही कर्मों का यह बंधन टूटता है जीवात्मा अपने परम स्वरूप (परमात्मा ) से एकाकार हो जाता है । फिर उसे जीव योनियों  में जन्म लेकर भटकना नहीं पड़ता ।

            यह तो निश्चित है कि कर्म प्राणिमात्र का स्वभाव है । मनुष्य या कोई भी प्राणी किसी भी क्षण कर्म विहीन नहीं हो सकता । कर्म तो अपरिहार्य है । श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है –

एतान्यपि तु कर्माणि संगम त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितम मत मुत्तमम ॥ 6 (अध्याय 18)

अर्थात हे पार्थ ! इसी प्रकार सभी श्रेष्ठ कर्म आसक्ति और फलों को त्याग कर अवश्य करने चाहिएं – ऐसा मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ।

            गीता के अनुसार ही संपूर्ण कर्मों के सिद्ध होने मे आधार- कर्ता, करण, चेष्टा, तथा दैव ही हेतु होते हैं । इनके द्वारा मनुष्य जो कर्म करता है वे तीन प्रकार के हो सकते हैं- सात्विक, राजसिक तथा तामसिक. इन तीनो प्रकार के कर्मों   का क्या फल होता है – यह गीता में बताया गया है‌ -

कर्मणा सुकृतस्याहु : सात्विकं निर्मलं फलम ।
रजसस्तु फलं  दु:खमज्ञानं तमस: फलम ॥ 16 (अध्याय 14)

अर्थात सात्विक कर्म का फल सात्विक, (सुख, ज्ञान, वैराग्य आदि) होता है । राजस कर्म का फल दु:ख एवम तामस कर्म का फल अज्ञान होता है ।

            कर्मयोग के स्वरूपों के संक्षिप्त विवेचन के बाद हम अब  कर्म और योग के पारस्परिक संबंधों पर विचार करेंगे ।

            उपनिषदों तथा अन्य दार्शनिक ग्रंथों में इस विश्व को पांच महाभूतों से निर्मित माना गया है । ये पांच महाभूत हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और  आकाश । इन महाभूतों के संयोग से समस्त औषधियां उत्पन्न हुईं। औषधियों से अन्न, तथा अन्न से मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ ।
                                                                                          (तैत्तिरीयोपनिषद, प्रथम अनुवाक )
            अन्न और शरीर – दोनो का ही जड़ स्वरूप इन पांच महाभूतों के संयोग से बनता है । इसीलिए शरीर को अन्नमय भी कहा जाता है । श्रेष्ठता की बात करें तो अन्न को शरीर से श्रेष्ठ माना गया है । -

तथा अन्नाद्वै प्रजा: प्रजायंते । या: काश्च पृथिवीश्रिता: । अथो अन्नेनैव जीवंति । अथैनदपि यंत्यंतत: । अन्नं हि भूतानाम ज्येष्ठम्। तस्मात्सर्वौषधमुच्यते।  (तैत्तिरीयोपनिषद, द्वितीय अनुवाक ) ।

अर्थात पृथ्वी लोक का आश्रय लेकर रहने वाले जो कोई भी प्राणी हैं , अन्न से ही उत्पन्न होते हैं , अन्न से ही जीते हैं, फिर अंत मे इस अन्न मे ही विलीन हो जाते हैं । अन्न ही सब भूतों में श्रेष्ठ है इसीलिए सर्वौषधिस्वरूप कहलाता है ।
             सांख्य दर्शन के अनुसार संपूर्ण जड़-चेतन प्रकृति त्रिगुणात्मक है । अत: अन्न, शरीर आदि जड़, चेतन पदार्थों से लेकर मन, बुद्धि आदि सूक्ष्म तत्व सभी इन तीन मूल गुणों मे पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए सत्वगुण प्रधान मनुष्य की स्वाभाविक रुचि सात्विक अन्न मे देखी जाती है । श्रीमद्भागवत्गीता से ज्ञात होता है कि तीनों प्रकृति के मनुष्यों को किस प्रकार के पदार्थ प्रिय होते हैं-

आयु: सत्व बलारोग्य सुख प्रीति विवर्धना:।
रस्या स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा सात्विका प्रिया: ॥ 8 (अ. 18)

अर्थात- आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवम रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय – ऐसे आहार सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं ।
एक अन्य उदाहरण –

कट्वम्ल लवणात्युष्ण तीक्ष्ण रुक्ष विदाहिन: ।
आहारा: राजसस्येष्टा दु:ख शोकाभयाप्रदा:॥ 9 (अ. 18)

अर्थात कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति गरम, तीक्ष्ण, रूखे दाहकारक तथा दु:ख चिंता व रोगों को उत्पन्न करने वाले पदार्थ राजस पुरुषों को प्रिय होते हैं ।

तामसिक पुरुषों के प्रिय आहार इस प्रकार कहे गए हैं-

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत ।
उच्छिष्ट मपि चामेध्यं भोजनतामस प्रियम ॥ 10 (अ. 18)

जो भोजन अधपका, रसरहित दुर्गंधयुक्त एवम बासी तथा उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह भोजन तामस पुरुषों को प्रिय होता है ।

इससे स्पष्ट है कि मानव शरीर ही नहीं, बल्कि उसका आहार (अन्न) भी त्रिगुणात्मक होता है । मानव शरीर मे स्थित सूक्ष्म तत्व मन बुद्धि आदि भी त्रिगुण प्रकृति के होते हैं ।

सात्विक सज सुलभ तथा पौष्टिक फल अमरूद 
            व्यवहार मे देखा गया है कि सात्विक व पौष्टिक भोजन से शरीर स्वस्थ व मन प्रसन्न रहता है, जबकि बासी, विषयुक्त व तीक्ष्ण रस युक्त भोजन खाने से शरीर मे अतिसार, अम्लता, अग्निमांद्य जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं । साथ ही मन तथा बुद्धि में भी बुरे विचार  आने लगते हैं । मन तथा बुद्धि मे बुरे विचार आने का परिणाम होता है बुरा संकल्प । यह बुरा संकल्प धीरे धीरे बुरे कर्म के रूप में बदलता है और यह बुरा कर्म ही जीवात्मा को कर्म के बंधन मे बांधता है ।

             सुविधा के लिए हम सात्विक पुरुष के आहार को सात्विक आहार, राजसिक पुरुष के आहार को राजसिक आहार तथा तामसिक पुरुष के आहार को तामसिक आहार कहेंगे । सात्विक आहार से तन तो स्वस्थ रहता ही है, मन तथा बुद्धि भी सात्विक हो जाते हैं । इसी प्रकार राजसिक तथा तामसिक बुद्धि व मन समझने चाहिएं । इन तीनो प्रकान की बुद्धियों के बारे मे गीता मे कहा गया है –

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च  कार्याकार्ये भयाभये ।
बंधं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि : सा पार्थ सात्विकी ॥ 30 ( अ. 18)

अर्थात प्रवृत्ति मार्ग, निवृत्ति मार्ग, कर्तव्य- अकर्तव्य, भय,  अभय तथा बंधन व मोक्ष को जो बुद्धि तत्व से जानती है वह सात्विकी बुद्धि है ।

इसी प्रकार राजसी बुद्धि के बारे मे कहा गया है-

यया धर्मंमधर्मं च कार्यं चा कार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि सा पार्थ राजसी ॥ 31 (अ.18)

अर्थात हे पार्थ, जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है ।

तामसी बुद्धि के बारे मे कहा गया है –

अधर्म धर्म्मिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थांविपरीतांश्च बुद्धि : सा पार्थ तामसी ॥ 32 (अ.18)

अर्थात हे अर्जुन, जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को धर्म मानती है तथा और भी संपूर्ण अर्थों को विपरीत ही मानती है वह बुद्धि तामसी है ।

            उक्त श्लोकों के मनन से स्पष्ट हो जाता है कि सात्विक अन्न का सात्विक बुद्धि से संबंध है । इसी प्रकार राजसिक अन्न का राजसी बुद्धि तथा तामसिक अन्न का तामसिक बुद्धि से निकट संबंध प्रतीत होता है । अर्थात सात्विक पुरुषों की बुद्धि भी सात्विक होती है तथा उनकी रुचि भी सात्विक अन्न में होती है । इसी प्रकार राजसिक तथा तामसिक प्रकृति के व्यक्तियों के बारे में भी समझना चाहिए ।
           
हमने देखा कि तीन मूल बिंदु हैं- सात्विक मनुष्य सात्विक आहार तथा सात्विक बुद्धि । इसी आधार पर राजसिक मनुष्य, राजसिक आहार  और राजसिक बुद्धि  तथा तामसिक मनुष्य, तामसिक आहार और तामसिक बुद्धि समझनी चाहिए । 

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आहार ही वह कारण है जो मनुष्य की प्रकृति तथा बुद्धि को प्रभावित करता है.  यदि आहार सात्विक है तो बुद्धि भी सात्विक होगी. बुद्धि सात्विक होगी तो मन भी सात्विक होगा . लोक व्यवहार मे कहा भी जाता है कि जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन.

सर्व रोग नाशक नीम 
आहार आयुर्वेद का विषय है. आहार से शरीर मन , बुद्धि का निर्माण होता है- ऐसा हमने ऊपर के विवेचन मे देख लिया है. मन और बुद्धि से ही किसी कार्य को करने का विचार उत्पन्न होता है. अत: आयुर्वेद का संबंध  कर्म से भी स्वत: सिद्ध हो जाता है. सात्विक बुद्धि मे सात्विक कर्म का विचार ही आता है यह लोक व्यवहार मे हम देखते ही हैं. ऐसा कभी नही देखा गया कि बुद्धि और आहार तामसिक हैं और कर्म सात्विक .

अंत मे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सात्विक आहार से सात्विक बुद्धि और सात्विक बुद्धि से सात्विक विचार उत्पन्न होते हैं. सात्विक विचार ही सात्विक कर्म करने की प्रेरणा देते  हैं. इसी प्रकार राजसिक आहार से राजसिक कर्म की प्रेरणा तथा तामसिक आहार से तामसिक कर्म की  प्रेरणा मिलती है. स्पष्ट है कि आयुर्वेद और कर्म का सिद्धांत बहुत सूक्ष्मता के साथ परस्पर  जुड़े हुए हैं।

समाप्त 

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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.

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