मंगलवार, 26 मई 2020

कहानी - भारी होता हुआ चेहरा


दीवार पर लगे आइने की तरफ देखा उसने । चेहरा एक खास अन्दाज में तना हुआ था। फ्रेंचकट दाढ़ी और झाडू की तरह झूलती मूंछें  उसके इंटेलेक्चुअल होने की गवाही दे रही थी। और स्टील की कमानी वाला वह सफेद  चश्मा! ओह! वह तो उसके चेहरे का शायद बेहद जरूरी हिस्सा बन गया था।

            यह बात तब की है जब उसे अपना चेहरा हल्का-फुल्का  लगता था बल्कि यों कहना चाहिये कि तब उसे आभास भी नहीं हो सका था कि अपना ही चेहरा कभी हल्का या भारी भी हो सकता है।

            स्टील की कमानियों वाला, यह चश्मा उन दिनों बाजार में आया ही था। आते रहते थे । कोई नई बात न थी। लेकिन उसने देखा-मामूली छोकरे भी जब इसे पहन कर भीड़ से गुजरते हैं तो कुछ खास किस्म की आंखें  बड़ी इज्जत  से उठती हैं उनकी तरफ। वह भी चूंकि  अपने आपको मामूली आदमी से ज्यादा अक्लमंद समझता था, लिहाजा उसके लिये जरूरी हो गया था कि जल्दी से जल्दी इस चश्मे को खरीदे और इस तरह अपनी पर्सनलिटी पर छाने वाले भावी कुहासे को चीर सके।

            यों भी इस अदद चश्मे की कीमत इतनी ज्यादा न थी  कि वह इसे खरीद ही न पाता। ऐसा भी नहीं था कि इसे खरीद कर उसका बजट ही चरमरा जाता। वैसे  इस बजट-वजट की उसने परवाह ही कब की थी। फिर भी साठ रूपये कम नहीं होते। इतने में तो दो हफ्ते  की सब्जी आ सकती है या फिर एक बच्चे के स्वेटर की ऊन खरीदी जा सकती है। कुछ नहीं तो महीने भर का बिजली-पानी का बिल  ही सही-उसने एक बारगी सोचा था।

            आखिर बड़ी देर तक सोचने-विचारने के बाद वह इसी नतीजे पर पहुँचा था कि हफ्ते दो हफ्ते सब्जी नहीं भी खाई जा सकती, बच्चा सरदी से ठिठुरता हुआ स्कूल जा सकता है, बिजली-पानी का बिल भी दो एक महीने लेट किया जा सकता है, पर इस बांके चश्में को, जो पहनते ही आदमी को फिलॉस्फर बना दे-नहीं छोड़ा जा सकता, कतई नहीं।

            जिस रोज चश्मा खरीदा गया, वह देर से घर आया था। दफ्तर में भी उस रोज वह चैन से नहीं बैठ सका था। करीब हर आदमी से उसने हाथ मिलाया। गैरजरूरी बातें करते हुए कई बार उंगलियों से चश्मे को नाक के ऊपर खिसकाया और एक खास अन्दाज में हँस-हँस कर बातें की। छुट्टी होते ही वह शहर के उस काफी हाऊस में पहुंचा जहाँ बुद्धि से जीवित रहने का दावा करने वाले लोग दिनभर गप्पें हांकते और माचित खेलते। एक-एक बुद्धिजीवी से उसने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया। उनकी आँखों  में कई-कई मिनट तक आंखें गड़ा कर देखा और उसी खास अन्दाज में पेश आते हुए बुद्धिजीवियों को ‘फुल’ चाय पिलाई। चुस्कियों के दौरान हर बुद्धिजीवी ने उसके चश्मे के आउटलुक पर अपने-अपने तरीके से अच्छे-अच्छे विचार व्यक्त किये। भारी उपमाएं दी और आशा प्रकट की गई कि अब वह जल्द ही महान दार्शनिकों जैसा दिखने लगेगा।

            इस पर एकाएक वह तैश में आ गया था- ‘तो क्या मैं अपने आप को शो करना चाहता हूं ?’

            -          अरे नहीं भई-चाय का घूंट पीते हुए एक बुद्धिजीवी बोला था, हम शायद गलत ढंग से कह गये। इसमें तो किसी को डाउट नहीं है कि तुम्हारी स्टडी किसी भी ग्रेट फिलास्फर से कम नही है। फिलास्फर तो तुम पहले से ही थे, अब लगने भी लगे हो। डोंट टेक इट अदरवाइज।

            यह सुनकर वह मुस्कराना चाहा था पर अफसोस। ग्रेट फिलास्फर छोटी-मोटी खुशियों पर खुश नहीं होते। पब्लिक एक्सपेक्ट करती है कि ऐसे मौकों पर खास तौर से महान लोगों को सीरिंयस ही रहना चाहिये। वह भी अपनी तारीफ सुनने के बावजूद सीरियस ही बना रहा।

            फिर वह नियमित रूप से काफी हाउस आने लगा। रोज वह चाय पिलाता। रोज उसके व्यक्तित्व के किसी न किसी छिपे हुए भाग का विशद  व प्रशंसात्मक विश्लेषण किया जाता । जिस दिन फुल चाय होती प्रशंसा के पैराग्राफ लम्बे हो जाते पर जब ‘बटा’ सिस्टम चलता तो पैराग्राफ संक्षिप्त हो जाते। हाँ परिवर्तन उसने और भी महसूस किया था कि उसकी प्रशंसा में दिये जाने वाले वक्तव्यों का ‘माखन-भाव’ लगातार घटता गया था। और एक शाम जब वह चाय का आर्डर देने की हालात में न था- एक शब्द भी उसके बारे में नहीं बोला गया। उसके हाथ में थमी अंग्रेजी की पत्रिका किसी ने नहीं पलटी। यह भी नहीं पूछा कि पैसे नहीं हैं तो  डोंट वरी, चाय पियोगे ?’ जबकि  वह बेहद थका हुआ था।

          धीरे-धीरे उसका कॉफी हाउस आना घटने लगा। हो सकता है इसका कारण चाय का कमर-तोड़ खर्च हो, या बुद्धिजीवियों की उपेक्षा, पर दरअसल दहशत की जड़ थे वे नई पीढ़ी के बुद्धिजीवी। वे करीब-करीब पोस्ट ग्रेजुएट और बेकार थे। उनकीं धंसी हुई आँखों मे चाकुओं सी चमक होती। पिचके गालों पर खूंटे से बाल छितरे रहते और कनपटियों पर सुर्खी छाई रहती। उनकी अस्थि-प्रधान मुठ्ठियां अक्सर तनी रहती।

          और जब इनके सामने उसका ‘बुद्धिजीवी’ चोंच खोलता तो वे बड़ी बेरहमी से उसकी दलीलों को चिथड़े चिथड़े कर ड़ालते।

               वह शायद पहला मौका था जब उसके दिमाग में अजीबोगरीब विचार आया कि उसका चेहरा सामान्य से कुछ  ज्यादा भारी है। भले ही इस ऊलजलूल विचार को उसने पनपते ही नोंच डाला, लेकिन चाह कर भी इसे वह जड़ समेत उखाड़ कर नष्ट नहीं कर सका था।

         वह कोई घटिया बात करता हो-ऐसा भी तो न था। आखिर उसे अपने आप पर पूरा भरोसा था। फिर उसकी स्टडी। ओह। इतना तो ये कल के छोकरे लाख जनम में भी न पढ़ पायें। ऐसे मौकों पर वह नाम नही गिनता था कि उसने इतना पढ़ा है। बल्कि यह सोचने लगता कि कौन सी चीज छूट गई है जो उसने नहीं पढ़ी ? देर तक सोचने पर भी उसे कभी इस सवाल का  जवाब नहीं मिला। भगवान ‘श्री’ का डायनामिक मेडीटेशन हो, चार्वाक का भौतिकवादी दर्शन हों या कृष्ण का कर्म योंग - सभी कुछ तो घोट डाला था  उसने।

तो फिर ?

          ये छोकरे आखिर किस बूते पर, क्या खाकर कंडम कर डालते थे देखते ही देखते उसकी दलीलों को ? क्या वे इतने वाहियात, बदतमीज और बेशर्म हो चुके थे कि थोड़ा बहुत उसकी उम्र का, उसकी फ्रेंचकट दाढ़ी का, या फिर स्टील की कमानी वाले चश्मे का भी लिहाज न कर पायें ? या फिर उसकी अपनी सोच में ही कोई डिफेक्ट था ?

           नुचा-खुचा खरपतवार फिर हरा हो जाता। उसे बेचैनी सी होने लगती। वह अपने भीतर सेल्फ कॉंन्फिडेंस टटोलने लगता। पर अपने चेहरे पर अतिरिक्त भार की अनुभूति से सिवा उसे कुछ न मिलता। कुछ भी तो नहीं। तब वह चाहता कि काश, लड़कों में कुछ मैनर्स पैदा हो जायें और वे उसका लिहाज करने लगें।

वैसे लिहाज की भीख मांगना उसके स्वभाव के कतई खिलाफ है। इसी वजह से उसे बहुत बुरे दिन देखने पड़े हैं। खास तौर पर जब उसने पैरासायकोलॉजी या सायकोथेरेपी के महंगे वाल्यूम खरीदे हैं तो वही जानता है- कई हफ्तों तक उसने एक ही वक्त खाना खाया है, महीनों चाय नही पी है, वक्त पर बच्चों की फीस या बिजली-पानी के बिल नहीं चुका सका है। यहाँ तक कि चुपके-चुपके लाटरी के दस-दस टिकट हर महीने खरीदने का नियम भी उसे तोड़ना पड़ा है। पर कभी किसी दोस्त या रिश्तेदार के आगे हाथ नहीं पसारा। उधार राशन नहीं मिला तो चना-चबेना खा कर वक्त गुजार लिया, पर किसी से यह नहीं कहा कि प्लीज कुछ पैसे उधार दे दो, अगली तनख्वाह पर लौटा दूंगा।

           यह उसकी कमजोरी भी हो सकती है। आखिर इन्सान एक सोशल एनीमल सिर्फ शादी-ब्याह पर छकाते वक्त ही होता है ? या फिर अरथी  के साथ शमशान तक चलते वक्त ? मुसीबत में  तो दुश्मन भी मदद करता है। पर उसने  कभी किसी सामाजिक जानवर को सेवा को मौका नहीं दिया।

          अगर उधार मांग कर शर्मिदा न होना उसकी कमजोरी है तो कमजोरी किसमे  नही होती-सोचते हुए वह भावुक हो जाता। एक अमीर आदमी, जिसके पास फाइवस्टार होटल है, सिनेमाहॉल है, ट्रांसपोर्ट है पर नीयत ऐसी कि मौंका मिलते ही लाखों  की नशीली दवाइयां वार-पार करने  से बाज नहीं आता । और करेक्टर ? खैर छोड़ो-यह किसी का निजी मामला हो सकता है। मगर कोई उठा सकता है ऐसे आदमी पर उंगली ?

सब पैसे की माया है- वह गहरी और ठंडी सांस खींचता-मैन मस्ट बी प्रॉस्पेरस। पैसे के बूते पर क्या नहीं किया जा सकता ? पैसा पाकर चेतना के बन्द गवाक्ष खुलते हैं। तभी तो भगवान श्री लोगों के भीतर रिचनेस का कंसेप्ट बिठाते हैं- समझो कि तुम अमीर हो, तुम्हारे पास सब कुछ है और तुम्हें लगेगा वाकई तुम्हारे पास सब कुछ आ गया। अब तुम अपनी कंशियसनेस को थॉटलेसनेस  तक पहुंचा सकते हो। अब गरीबी, बीमारी या दूसरी किस्म की दिक्कतों के बाबजूद तुम जीवन में अनोखा रस, एक गहरा अर्थ पा सकते हो वाह ! एक्सेलेंट थॉट !

            बातें तो सारी ठीक हैं- वह एकाएक परेशान हो उठता-पर इन नये सुकरातों की समझ में आये तब न ! समझाने की कोशिश भी बेकार ! मुंह तोड़ कर रख देते हैं। त्योरियां माथे पर चढ़ा कर कहते हैं - क्या दिया है तुम्हारे भगवानों ने भगवे कपड़ों और दिवास्वप्नों के सिवा ? यही न कि फल की इच्छा भी मत करो और कर्म किये जाओ ? या बोनस, मंहगाई स्ट्राइक रोजगार व करप्शन जैसे विचार तक भी दिमाग में मत घुसने दो। इससे समाधि लगाने मे डिस्टर्बेंस होता है। कुछ मत सोचो। बन्द कर दो दिमाग की सारी खिड़कियाँ। फिर देखो कैसा स्पिरीचुअल आनन्द आता है ? व्हाट नानसेंस ! फिर क्रोध में बड़बड़ाने लगेंगे ये लड़के-इन्हीं भगवानों ने कर दिया है बंटाधार। रोटी मांगो तो मिलेगी असीम शान्ति, निर्विकल्प समाधि ! उफ्फ ! दरअसल इसके लिये पब्लिक भी जिम्मेदार है।

            सोचते हुए उसका ध्यान अचानक अपने चेहरे पर केन्द्रित हो गया था। फ्रेंचकट दाढ़ी के बाल साइकिल के स्पोक्स से भारी-भारी लगे थे। नीचे झूलती मूछें तराजू पर लटके भार जैसी मालूम पड़ी थीं। चश्मे की कमानियां सीसे की  तरह बहुत भारी तथा भगवे रंग का फेल्ट हैट किसी फौलादी शिकंजे की तरह असहनीय प्रतीत हुआ था। उसे तब पिछले दिनों की उपेक्षा कहीं अधिक तकलीफ हुई थी। उसका जी चाहा था कि आइने में घूर-घूर कर अपने चेहरे को खूब खुजलाये।

              उसी रोज पहली बार उसे महसूस हुआ कि ये नये लोग शायद उतने गलत नहीं हैं। इनमें से करीब सभी डिग्रियां लादे बरसों से रोजगार कार्यालयों, और कोलतार की उबल पड़ती सड़कों पर भिनभिनाते आ रहे होंगे। हर एक के कुछ सपने भी रहे होंगे। उसकी तरह। वह खुद भी जब इस स्टेज में था तो उसके भी कुछ सपने थे। कोई ज्यादा भड़कीले नहीं, बस यही कि उसकी नौकरी लग जाए, शादी हो जाए, वह माता-पिता के बुढ़ापे की लाठी बन सके जिन्होने तमाम मुसीबतें झेलते हुए उसे पढ़ाया-लिखाया। फिर उसके बच्चे हों। ज्यादा नहीं बस दो-एक।

          ये लड़के भी क्या इसी के इर्द-गिर्द नहीं सोचते होंगे ? यह सोचकर वह भावुक हो उठता। उसका जी चाहता कि काश ! ये लड़के भी किसी नौकरी या छोटे-मोटे काम धंधे में व्यस्त हो जाते। इनके भी घर बस जाते और...... और इनकी मुट्ठियों का कसाव शिथिल पड़ जाता।

          न चाहने पर भी उसका झुकाव इन नये लड़कों की तरफ होने लगा था। तभी से उसका ध्यान भी अपने चेहरे पर केन्द्रित होने लगा। और एक अजीब से भारीपन का अहसास भी- जो दिनों-दिन साफ और घनीभूत होता जा रहा था। उसका जी चाहता कि अपने ऊपर सवार बीमार और भारी आदमी को उठा कर पटक दे और आजाद हो जाय। वह पागलपन की सीमा तक बेचैन हो उठा। और एक रोज तो उस बेचैनी की हद हो गई। काफी हाउस में नये लड़कों से उसकी बहस छिड़ गई । सब्जेक्ट  था- समाधि की अवस्था तक कैसे पहुंचा  जाय ?

         एक लड़के ने चाय की मेज पर कस कर मुक्का मारते हुए कहा था-  मिस्टर ! दोनों वक्त रोटियाँ मिल रही हैं न,  तभी समाधि के बारे में झाड़ रहे हो। पर कान खोल कर सुन लो, वक्त की डिमांड समाधि या मेडिटेशन नहीं हैं। सवाल है जिन्दा रहने का। हाउ टु सरवाइव ? बद से बदतर होते जा रहे हालातों में एक शराफत से जीने की इच्छा रखने वाला आदमी कैसे जिन्दा रहे-सावल ये है। समझ गये फिलॉस्फर दी ग्रेट ?

-          लेकिन मुझे इससे ऐतराज कहाँ है-उसने बचाव की मुद्रा में कहा था-प्राब्लम तो है ही। मगर उस प्राब्लम से रिलेक्स होने के लिये पीस भी तो चाहिए,  और ये पीस मेडिटेशन से ही तो मिलेगी।

-          नहीं। तुम गलती पर हो फिलॉस्फर-दूसरे लड़कें नें लगभग चीखते हुए कहा था-प्राब्लम का हल समाधि नहीं। पेट भूख की आग से दहक रहा हो और आप शान्ति खोजें समाधि में ? बस यहीं पर तुम्हारी फिलॉसफी ट्रैक से उतर जाती है। प्लीज बी प्रैक्टीकल एंड थिंक प्रैक्टीकली ।

           इसके बाद वह और अधिक देर तक नये लड़कों का सामना न कर सका। उसने अपने अगल-बगल में देखा-पुराने बुद्धिजीवी इन सभी बातों से बेखबर साथ की मेज पर माचिस खेल रहे थे।

          वह चेहरे पर बढ़ गये अत्यधिक बोझ को और अधिक बरदाश्त न कर सका। उसे लगा-उसके चेहरे पर अब तक कोई दूसरा चेहरा लगा था। फ्रेंचकट दाढ़ी, भगवा टोपी, और स्टील की कमानियों वाला चश्मा लगाये बेहद भारी चेहरा-जो अब धीरे-धीरे छूट कर अलग हो रहा है।

(समाप्त)






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